नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि ईसाईयों के तलाक के मामले में भारतीय तलाक अधिनियम के तहत ही कोई भारतीय कोर्ट फैसला कर सकती है।
कोर्ट ने उच्च और गिरजाघर द्वारा दिए गए तलाक को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि पर्सनल लॉ संसद द्वारा पारित कानून से ऊपर नहीं हो सकता है।
चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने कहा कि चर्च के कोर्ट अंग्रेजी न्यायशास्त्र का हिस्सा हैं जिसमें राज्य का एक धर्म होता था, लेकिन आज के लोकतांत्रिक समाज में ऐसे कोर्ट के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।
वकील क्लैरेंस पैस ने जनहित याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि चर्च द्वारा किए गए फैसले को कोर्ट में मान्यता मिलनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि ईसाईयों की शादी और तलाक चर्च द्वारा तय किए जाते हैं और ऐसे में अगर चर्च के फैसलों को कोर्ट में मान्यता नहीं मिलेगी तो कैथोलिक समुदाय कोर्ट के द्वारा तलाक की डिक्री मिलने के बाद भी भारतीय दंड संहिता के मुताबिक द्विविवाह का दोषी पाया जा सकता है।
याचिकाकर्ता के मुताबिक अधिकांश कैथोलिक पुरुषों की तलाक की डिक्री के बाद दोबारा शादी चर्च के धर्मगुरुओं द्वारा आयोजित की गई है। उन्होंने ट्रिपल तलाक के जरिये तलाक देने की परम्परा को भी इसी तर्क के आधार पर सही ठहराया।
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ पहले ही फैसला दे चुकी है।