नई दिल्ली। दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क भारतीय रेल के बदबूदार और ढंग से काम नहीं करने वाले शौचालय जल्द ही बीते जमाने की बात हो जाएगी। भारतीय रेल अब अपने बायो-टॉयलेट को आयातित बायो-वैक्यूम टॉयलेट में अपग्रेड कर रहा है। यह टॉयलेट वैसा ही है, जैसा हवाई जहाजों में होता है।
एक अधिकारी ने यह जानकारी दी और कहा कि शुरू में राजधानी और शताब्दी जैसी महत्वपूर्ण रेलगाड़ियों के 100 डिब्बों में यह टॉयलेट लगाए जाएंगे। इसके लगाने की प्रक्रिया अगले साल जनवरी से शुरू होगी। उन्होंने बताया कि ये बॉयो-वैक्यूम टॉयलेट दुर्गंधरहित होंगे और इससे पानी का इस्तेमाल 20 गुणा तक कम हो जाएगा।
अधिकारी ने यह भी कहा कि चेन्नई की इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) में बॉयो-वैक्यूम टॉयलेट लगाकर 100 डिब्बे बनाए जाएंगे, जिन्हें राजधानी और शताब्दी जैसे प्रीमियम ट्रेनों के साथ जोड़ा जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रकार के टॉयलेट के जाम होने की संभावना भी कम होगी।
रेलवे द्वारा वर्तमान बॉयो-टॉयलेट को अपग्रेड करने की पहल यात्रियों द्वारा लगातार टॉयलेट के जाम होने की शिकायतों के मद्देनजर शुरू की गई है। वर्तमान में रेल डिब्बों में लगे बॉयो-टॉयलेट के प्लास्टिक बोतल, कागज व अन्य चीजें फेंकने से जाम होने की शिकायतें मिल रही हैं।
अधिकारी ने नए टॉयलेट की जरूरत के बारे में कहा कि पानी की बचत करना रेलवे की प्राथमिकता है। उन्होंने कहा कि बॉयो-टॉयलेट में हर फ्लश के लिए 15 लीटर पानी की जरूरत होती है, और यह पानी पॉट से मल को हटाने के लिए अधिक दबाव नहीं बना पाती है, इसके कारण बदबू आती है और कई बार पॉट भी जाम हो जाता है।
अधिकारी ने कहा कि बॉयो-वैक्यूम टॉयलेट को केवल एक लीटर पानी की जरूरत होगी और सारा मल वैक्यूम के द्वारा खींच लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि इन टॉयलेटों का कुछ ट्रेनों में पॉयलट आधार पर परीक्षण किया गया था।
अधिकारी ने बताया कि बॉयो-वैक्यूम टॉयलेट के निर्माताओं ने रेलवे को आश्वासन दिया है कि निर्माण इकाइयों को भारत में स्थापित किया जाएगा।
बॉयो-टॉयलेट लगाने से पहले भारतीय रेल में साफ-सफाई का घोर अभाव था, खासतौर से शौचालय में साफ-सफाई हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है। तब ट्रेनों में मानव मल को संशोधित करने की कोई प्रणाली नहीं थी और उसे रेल की पटरियों पर गिरा दिया जाता था।
बॉयो-टॉयलेट में मल को पटरियों पर नहीं फेंका जाता है, बल्कि एक कंटेनर में जमा किया जाता है। वहां एनारोबिक विषाणु द्वारा इसे खाकर पचा लिया जाता है, जो इसे पानी और बॉयोगैस में परिवर्तित कर देता है। हालांकि इस्तेमाल के दौरान यह ठीक से काम करता नहीं पाया गया।
बॉयो-टॉयलेट का प्रयोग रेलगाड़ियों में चार साल पहले से 2017 तक किया गया, जिस पर 1,305 करोड़ रुपये की लागत आई। लेकिन ये सेप्टिक टैंक से बेहतर नहीं हैं। फिलहाल 900 से ज्यादा ट्रेनों में बॉयो-टॉयलेट लगाए गए हैं।