देश आजादी के जश्न में डूबा था। सबको लग रहा था कि अब कुछ करने की जरूरत नहीं है। हम स्वतंत्र हैं। अब अपने तरीके से जीने और काम करने की स्वतंत्रता होगी। युवा, राजनैतिक शक्ति, किसान, मजदूर, मातृशक्ति, शिक्षित वर्ग में जिम्मेदारी का भाव लुप्त हो गया था। युवा दिशाहीनता की ओर बढ़ रहा था। बावजूद इसके इस ओर किसी का ध्यान नहीं था।
दूसरी ओर देश के नेतृत्व को भी यूरोपीय माॅडल पर भरोसा था। देश संक्रमण काल से गुजर रहा था। नागरिक इतने खुश थे कि उनमें कर्तव्य बोध लुप्त हो गया था। फिर इन्हें बाहर कौन निकाले? दिशा कौन दे और ऐसे समय में जब नेतृत्व ही अपनी संस्कृति, परंपरा और ज्ञान पर भरोसा न कर यूरोपीय माॅडल के भरोसे हो।
इस मानसिकता से युवाओं को बाहर निकालने तथा देश के निर्माण में लगाने का विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और कुछ राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों के मन में आया। 1948 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) जैसा संगठन खड़ा करने पर काम शुरू कर दिया।
लगातार एक वर्ष मेहनत करने के बाद उन्हें लगा कि युवाओं में राष्ट्रभाव पैदा कर देश के नेतृत्व को दिशाहीन होने से बचाया जा सकता है। अन्ततः 9 जुलाई, 1949 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना हुई।
देश के सामने सर्वांगीण विकास की चुनौती थी। पराधीनता से प्रतिभा पर गहरा मालिन्य था। ऐसे समय में अभाविप ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के व्यापक संदर्भ में कार्य का लक्ष्य रखा। राष्ट्रीयता को जीवन लक्ष्य माना। गौरवशाली अतीत, विश्व की प्राचीनत सभ्यता व महान संस्कृति को कार्य का आधार बनाया।
भारत को एक शक्तिमान, समृद्धिशाली एवं स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में पुनर्निर्मित कर उसे राष्ट्रमालिका में गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का लक्ष्य तय हुआ। शिक्षा-परिवार की सामूहिक अन्तर्निहित शक्ति में विश्वास करते हुए छात्रों के सम्मुख देश को सर्वोपरि रखा।
भारत सरकार से मिलकर राष्ट्रहित में काम करने का मन भी बनाया और मांग के रूप में कुछ सुझाव भी दिए, लेकिन अफसोस कि तत्कालीन सरकार ने इस पर विचार करने की बजाय कूड़ेदान में फेंक दिया। अगर सरकार ने अभाविप की पहली मांग पर विचार किया होता तो आज ऐसी स्थिति नहीं होती।
नेहरू सरकार और संविधान सभा के सदस्य देश की भावी दिशा पर मंथन कर रहे थे। सभी संविधान गढ़ने में तल्लीन थे। अभाविप ने सरकार से तीन मांगों को संविधान में शामिल करने को कहा। पहली, देश का नाम ‘भारत’ रखा जाए। दूसरी, ‘वन्देमातरम्’ को ‘राष्ट्रगान’ घोषित किया जाए और तीसरी, देश की सम्पर्क भाषा ‘हिन्दी’ बने।
सरकार ने मांगो से घालमेल किया। छलावा किया। ‘इंडिया दैट इज भारत’ कहने वालों की गलतियों का खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं। देश का ‘नाम’ और ‘भाषा’ तय नहीं कर पाये हैं। हालात तो ऐसी है कि देश के लोगों में से ही कुछ ‘इण्डिया’, कुछ ‘हिन्दुस्थान’ और कुछ लोग ‘भारत’ कह रहे हैं। यह घालमेल नहीं है तो और क्या है। जो नेतृत्व देश का नाम नहीं तय कर सका उसमें कितनी दूरदर्शिता रही, हम और आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं।
‘हिन्दुस्थान’, ‘आर्यावर्त’, ‘भारत’ जैसे शब्द जन-जन से जुड़ा है। आज भी भारतीय संस्कृति का अंग है। यहां तक कि पूजन के समय लिये जाने वाले संकल्प में भी इन्हीं नामों के साथ संकल्पित होते हैं। वन्देमातरम् ने अंग्रजों के खिलाफ बिगुल फूंका था तो हिन्दी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। हमें ‘इण्डिया’ से क्या लेना देना है?
पं. नेहरू, भारत को इंग्लैण्ड बनाने के पक्षधर थे। देश के प्राचीन व गौरवशाली अतीत पर विश्वास नहीं था। परम्परागत ज्ञान-कोष को हीनभाव से देखते थे। नेहरू के लिए अंग्रेजी सर्वोपरि रही। वजह, उन पर पश्चिमी देशों का प्रभाव अधिक था। वे देश को भारतीयता की नींव पर नहीं, यूरोपीय माॅडल यानी पाश्चात्य संस्कृति पर खड़ा करना चाहते थे। उन्हें न तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति से कभी लगाव रहा और न ही यहां के लोगों से, जिन्हें वन्देमातरम् ने जगाया था और देश में क्रांति आई थी।
शायद यही वजह रही कि पं. नेहरु परिषद ने इन मांगों को नहीं माना जबकि यह मांग जनमानस की थी। पं. नेहरू ने भारत को ‘इण्डिया दैट इज भारत’, कहना ज्यादा मुनासिब समझा। जन-गण-मन को राष्ट्रगान, वन्देमातरम् को राष्ट्रीय गीत और भाषा के दृष्टि से हिन्दी की जगह अंग्रेजी को आगे बढ़ाया।
अभाविप के राष्ट्रहित के कार्यों को हमें याद करना होगा। युगीन परिस्थितियों के अनुसार युवा वर्ग को ढालने वाला यह संगठन नवीन परिवर्तनों से देश के युवाओं व समाज को दिशा देता रहा है। 1962 में चीन आक्रमण के समय को याद कीजिए।
आन्तरिक मोर्चे पर नागरिक प्रतिरक्षा में सहभाग करने वाले इस संगठन के प्रयासों से घायल जवानों की रगों में एक बार फिर से रक्त संचार हो सका था। वामपंथियों के राष्ट्र विरोधी कार्यों का जवाब और देशहित में संघर्ष कर रहे जवानों को खून देने का एक साथ काम करने वाले युवाओं की टोली, इसी संगठन ने तैयार की।
‘एक राष्ट्र, एक जन और एक संस्कृति’ के मंत्र के साथ स्वर्ण जयन्ती वर्ष मना रहा अभाविप 1970 में 18 वर्ष पर मताधिकार, परमाणु बम बनाने, शिक्षा व्यय 6 प्रतिशत करने, राष्ट्रीय शिक्षा पीठ की स्थापना आदि मांगें कर चुका हैं। विश्व के सबसे बड़े छात्र-संगठन ने छात्र-हित से लेकर राष्ट्र हित से जुड़ी समस्याओं की ओर हमेशा ध्यान खींचा है।
चाहे वर्ष 1960 के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संक्रमण के काल में विद्यार्थियों की सहभागात्मक भूमिका का विचार हो, कानपुर अधिवेशन (1966) में ‘विद्यार्थी कल का नहीं, आज का नागरिक है’ का प्रस्ताव हो या 1970 में छात्रशक्ति-राष्ट्रशक्ति का नारा हो सभी राष्ट्रप्रेम के परिचायक रहे।
असम में बंगलादेशी घुसपैठ समस्या पर ध्यान खींचना हो या ‘कल का भारत बचाने के लिए आज असम बचाओ’ का उद्घोष हो, हमें राष्ट्रहित में काम करने की प्रेरणा देता रहा। आखिर ‘सेव असम टुडे, टू सेव इंडिया टुमोरो’ की प्रासंगिकता को हम कब समझेंगे?
-राजेश कुमार