नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की सत्ता से वनवास खत्म करने की तैयारी में जुटी भाजपा इस बार विधानसभा चुनाव में उसी फार्मूले को आजमा रही है, जिसके जरिए कभी कल्याण सिंह ने सूबे में पार्टी को सत्ता का स्वाद चखाया था।
पार्टी यह भलीभांति समझ रही है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी करनी है तो केवल अगड़ी जातियों और व्यवसायी वर्ग के भरोसे रहने से यह संभव नहीं है। नतीजतन, पार्टी पूरी तरह से पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने के लिए हर वह दांव चल रही है जिससे की उसका ख्वाब पूरा हो सके।
दरअसल, मुस्लिमों का पार्टी के खिलाफ जाना और यादवों एवं दलितों के मुलायम सिंह और मायावती के खेमे में जाने पर कल्याण ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को लुभाने का काम किया था। इसी का नतीजा था कि भाजपा ने पहली बार 1991 में यूपी में सत्ता का स्वाद चखा।
बीते एक दशक में पहली बार सत्ता की लड़ाई में दिख रही भाजपा की रणनीति तैयार कर रहे अमित शाह ने कल्याण फार्मूले को ही मामूली बदलाव के साथ आगे बढ़ाने का फैसला किया है। हां, इसमें जाट मतदाताओं का एक वर्ग और जोड़ने की तैयारी है।
कल्याण सिंह के लिए अब वक्त का पहिया पूरी तरह घूम चुका है। 1991 में भाजपा को सत्ता में पहुंचा चुके कल्याण सिंह ने दशक के अंत तक पार्टी ही छोड़ दी थी और अब राजस्थान के राज्यपाल हैं।
अब 25 साल बाद भाजपा एक बार फिर से हिंदुत्व और पिछड़ा सशक्तिकरण की रणनीति को बढ़ाने में जुटी है। कल्याण की भाजपा में पकड़ कमजोर होने के साथ ही गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित मतदाता पार्टी से छिटक गए थे। अब शाह एक बार फिर इस फारमूले को जमीन पर उतारने की तैयारी में हैं।