Warning: Undefined variable $td_post_theme_settings in /www/wwwroot/sabguru/sabguru.com/news/wp-content/themes/Newspaper/functions.php on line 54
फिल्म समीक्षा- अनारकली ऑफ आरा, पिंक से मिलती जुलती कहानी - Sabguru News
Home Entertainment Bollywood फिल्म समीक्षा- अनारकली ऑफ आरा, पिंक से मिलती जुलती कहानी

फिल्म समीक्षा- अनारकली ऑफ आरा, पिंक से मिलती जुलती कहानी

0
फिल्म समीक्षा- अनारकली ऑफ आरा, पिंक से मिलती जुलती कहानी
Anarkali Of Arrah movie Review
Anarkali Of Arrah movie Review
Anarkali Of Arrah movie Review

मुंबई। परंपराओं और संस्कृति के नाम पर उत्तर भारत में, खास तौर पर पूर्वी यूपी और बिहार में नौटंकी से लेकर शादी ब्याह में नाचने-गाने के लिए पार्टियों को बुलाया जाता है, ताकि मेहमान महिलाओं के डांस का मजा ले सकें।

इन पार्टियों में नाचने वाली महिलाओं के साथ शराब और शबाब के नशे में धुत्त मेहमानों की पकड़ा पकड़ी से लेकर यौन शोषण के किस्सों से कोई अनजान नहीं है।

पहली बार निर्देशन के मैदान में आए अविनाश दास की फिल्म अनारकली ऑफ आरा में इस यौन शोषण और इसकी शिकार एक नाचने वाली के पलटवार को लेकर कहानी का ताना बाना बनाया गया है, जिसे क्लाइमैक्स में महिला सशक्तिकरण के साथ जोड़कर छोड़ दिया गया।

कहानी बिहार के आरा जिले की रहने वाली अनार (स्वरा भास्कर) की है, जो अपनी मां की परंपरा को निभाते हुए नचनिया बन जाती है और शादी ब्याह से लेकर दूसरे समारोह में डांस और गाने से अपनी जिंदगी का गुजर बसर करती है।

आरा के पुलिस थाने में एक समारोह के दौरान वहां के कॉलेज के वाइस चांसलर (संजय मिश्रा) अनार के साथ शराब के नशे में धुत्त होकर जबरदस्ती करने की कोशिश करते हैं। खुद को बचाते हुए अनार उनके गाल पर थप्पड़ मार देती है, तो मामला इज्जत का बन जाता है।

एक तरफ अनार वाइस चांसलर के खिलाफ पुलिस में एफआईआर दर्ज कराना चाहती है, तो वहां के पुलिस वाले चांसलर साहब को खुश करने के लिए अनार के खिलाफ वेश्यावृत्ति का केस बना देते हैं। पुलिस और चांसलर के गुंडों से बचने के लिए अनार भागकर दिल्ली आ जाती है, जहां उसे फिर से गाने का मौका मिलता है।

बिहार पुलिस अनार को थाने में समर्पण के लिए मजबूर कर देती है। अनार चांसलर की सारी बातें मानने के लिए तैयार हो जाती है और अगले समारोह में चांसलर का पर्दाफाश करने में कामयाब हो जाती है। निर्देशक अविनाश दास खुद आरा से आते हैं और वहां के माहौल को अच्छी तरह से समझते हैं।

परदे पर उन्होंने वही माहौल कायम करने की भरपूर कोशिश की, इसके लिए गांव से लेकर छोटे शहरों के बाजारों, मकानों और गलियों में कैमरा घूमता रहता है। फिल्म को जमाने के लिए शुरुआत में ऐसे नाच-गानों के मसालों का भरपूर इस्तेमाल किया गया, जो अश्लील होने के बाद भी वहां लोकप्रिय होते हैं।

बाद में इस कहानी को पुरुष प्रधान समाज की हेकड़ी और अपनी इज्जत-आबरु के लिए लड़ने वाली एक सामान्य महिला के संघर्ष में बदल दिया गया। फिल्म की अच्छी बात ये है कि परदे पर स्थानीय माहौल का एहसास बखूबी होता है। नाच-गाने से लेकर कानून व्यवस्था तक हर बात पर कटाक्ष है, लेकिन इसके आगे मामला गड़बड़ हो जाता है।

अविनाश दास की फिल्म बिहार और पूर्वी यूपी के बाहर वाले दर्शकों से कहीं नहीं जुड़ पाती। पुरुष प्रधान समाज की हेकड़ी से लेकर महिला द्वारा अपने मान-सम्मान की रक्षा का मामला संवेदनशील होने के बाद भी दूसरे दर्शकों, खास तौर पर गैर हिन्दी भाषी राज्यों के महानगरों के युवा दर्शकों को समझ में नहीं आएगा।

अविनाश दास खुद अपनी फिल्म को रियल रखने और इसमें सिनेमाई मसाले डालने को लेकर कंफ्यूज नजर आते हैं। अनार का भागकर दिल्ली आ जाना और वहां फिर से गाना और क्लाइमैक्स में जो दिखाया गया, उसे पूरी तरह से फिल्मी बना दिया गया। यहां अविनाश दास के निर्देशन में अनुराग कश्यप (जो खुद उनकी तरह से बिहार के हैं) के निर्देशन का हैंगओवर नजर आता है।

अविनाश दास को निर्देशन में बहुत कुछ सीखना है। फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष स्वरा भास्कर का शानदार परफॉरमेंस है, जो परदे पर छा जाती हैं। निल बट्टे सन्नाटा के बाद स्वरा ने एक बार फिर बेमिसाल काम किया है। उनके किरदार में कमजोरियां हैं, फिर भी स्वरा ने इसे मजबूत बना दिया। वह दर्शकों पर छाप छोड़ने में सफल होती हैं।

शायद अविनाश दास ने उनके किरदार को मजबूती देने के लिए उनके आसपास के किरदारों को कमजोर बनाए रखा। संजय मिश्रा से लेकर पंकज त्रिपाठी और दूसरे कलाकारों को कमजोर किरदार दिए गए, ताकि अनार छा जाए। इस कोशिश में अविनाश दास सफल रहे हैं।

फिल्म की सिनेमाटोग्राफी, संगीत और रियल लोकेशन खूबियों में शामिल हैं। ये फिल्म बिहार और पूर्वी यूपी के साथ दिल्ली तक चल सकती है, लेकिन इन इलाकों को छोड़ दिया जाए, तो मुंबई से लेकर गुजरात, साउथ और पूर्वी राज्यों में इस फिल्म के चलने की संभावनाएं कम हैं।

बेहतर होता, अविनाश दास अपने राज्य से बाहर आकर देश के लिए फिल्म बनाते, तो ये उनके लिए और अनारकली ऑफ आरा के लिए ज्यादा बेहतर होता।