प्रकृति के साथ की गई छोटी सी भी छेड़खानी पर प्रकृति गुणात्मक रूप से प्रतिक्रिया करती है, जिसके परिणामस्वरूप समाज को काफी क्षति झेलनी पड़ती है। लिंगानुपात में आये असंतुलन का कारण भी मनुष्य द्वारा प्रकृति की इच्छा के विरोध में अपनाए गए तरीके ही हैं।
जब समाज में पनपती बुराइयों व विसंगतियों के विरुद्ध लड़ने की बजाय व्यक्ति शार्ट- कट रास्तों पर चलकर इनसे बचने या टलने का प्रयास करता है, तो बुराइयां व सामाजिक विसंगतियां अपने वर्चस्व का प्रसार करती जाती हैं और अमरबेल की भांति समाज का शोषण करती चली जाती हैं।
लड़कियों को बोझ समझ उनके लालन –पालन में बरता गया भेदभाव , उनकी शिक्षा के प्रति माँ –बाप की विमुखता तथा शादी पर दिए जाने वाले भारी भरकम दहेज़ की मांग के कारण लड़कियों की शादी में असहाय व निरीह स्थिति से बेबस अभिभावक एक ऐसी राह पर चलने को विवश हो गए जिसकी परिणति कन्या भ्रूण हत्या के रूप में समाज के सामने प्रकट हुई। लगभग तीन दशक से इस कुकृत्य को अजन्मी कन्याओं ने झेला है और आज उन्हीं अभिशप्त आत्माओं के श्राप स्वरुप पैदा हो गई है लिंगानुपात की समस्या ।
आज हालात इस कद्र विषम हो गए हैं कि हरियाणा में तो हर सातवां लड़का शादी से वंचित हो गया है, जिसके परिणाम स्वरुप हताश अविवाहित युवाओं द्वारा बलात्कार , लूट खसोट व नशीले पदार्थों के सेवन का रास्ता अख्त्यार किया जाने लगा है। कमोवेश यही हालात राजस्थान समेत अन्य राज्यों में भी परिलक्षित हो रहे हैं। इसी प्रकार लिंगानुपात के असंतुलन से उपजी विवशता के कारण एक और गंभीर सामाजिक समस्या लड़कियों की खरीद-फरोख्त के रूप में समाज में नागफनी काँटों की तरह पनप रही है। अगर हालात यही रहे और लड़कियों की संख्या इसी प्रकार घटती रही तो समाज को पुनः पांडव कालीन बहुपति प्रथा का दंश झेलना पड़ सकता है।
समय की मांग है कि समाज के प्रबुद्ध वर्ग को चिंतन करना होगा तथा समाज को विसंगतियों बारे जागृत करना होगा। भ्रूण हत्या का मुख्य कारण दहेज़ समस्या के रूप में उभरकर आया है अतः सामाजिक पंचायतों तथा स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा लोगों को जागरूक करना होगा तथा ऐसे प्रतिबंधात्मक कदम उठाने होंगे जिनके द्वारा दहेज़ लेना व देना एक दुष्कृत्य माना जाने लगे तथा दहेज़ लेने व देने वालों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाने लगे। माता –पिता द्वारा लड़कियों को समान अवसर मुहैया करवाने होंगे ताकि वे किसी भी क्षेत्र में लड़कों की तुलना में अपना कम आंकलन न करें और आत्मनिर्भर बनकर समाज में अपनी भागीदारी का सफल निर्वहन करें।
परन्तु केवल उपरोक्त सामाजिक कदम इस समस्या को जड़ से समाप्ति हेतु पर्याप्त नहीं हैं अतः सरकारों को भी न केवल राज्य स्तर पर अपितु राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ अन्य ठोस कदम उठाने होंगे, जिनमें कुछ शुरूआती कदम अग्रांकित हो सकते हैं ताकि लड़कियों के लालन –पालन , शिक्षा तथा शादी में माँ-बाप बोझ न समझें तथा अपने कर्त्तव्य का पालन कर समाज के विकास में सहयोग दें।
लड़कियों की शिक्षा प्राम्भिक स्तर से व्यावसायिक ,टेक्निकल एवं मेडिकल व स्नात्तकोतर स्तर तक निशुल्क हो तथा सभी प्रकार की पुस्तकें व बोर्डिंग–लॉजिंग फ्री हो। हर शिक्षण– प्रशिक्षण संस्थान में लड़कियों के लिए न्यूनतम पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित हों। किसी भी पाठ्यक्रम में दाखिले तथा नौकरी में चयन के मापदण्ड में लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा पांच प्रतिशत अंकों की विशेष तरजीह दी जाये ताकि अधिक से अधिक लड़कियां शिक्षित हो अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।
अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं तथा अध्यापकों की भर्ती में तो महिलाओं का पदारक्षण अस्सी प्रतिशत तक बढाया जाए क्योंकि महिलाएं जहाँ इस व्यवसाय के चयन को प्राथमिकता देती हैं वहीँ एक अच्छी अध्यापक भी सिद्ध हुई हैं। लड़कियां जितना जल्दी अपने पैरों पर खड़ी होंगी वहीँ नौकरी पेशा होने के कारण बिना दहेज़ के योग्य वर पाने में भी सक्षम होंगी।
अतः आज जरुरत है समाज व सरकार द्वारा प्रभावी एवं त्वरित उपायात्मक कदम उठाने की ताकि समय रहते चेता जा सके और समाज को लिंगात्मक असन्तुलन से उपजने वाली समस्याओं से निजात दिलाया जा सके। बेटी बचाओ–बेटी पढाओ का नारा तभी सफल होगा जब हर व्यक्ति की सोच बदलेगी। बेटी नहीं होगी तो बहु कहाँ से लाओगे।
– जगमोहन ठाकन