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इंसाफ़ से महरूम अरुणा रामचंद्र शानबाग की दर्द-ए-दास्तान - Sabguru News
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इंसाफ़ से महरूम अरुणा रामचंद्र शानबाग की दर्द-ए-दास्तान

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इंसाफ़ से महरूम अरुणा रामचंद्र शानबाग की दर्द-ए-दास्तान
aruna shanbaug case facts and medical history
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नई दिल्ली । ‘’अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’’ कवि जयशंकर प्रसाद की कविता की यह चंद पंक्तियां, विश्व के लोगों को सोचने पर मज़बूर कर रही है।

सवाल भी उठने लगे हैं। क्या वाकई में देश-विदेश में प्यार और भाईचारा मौजूद है । क्या अपने सगे-संबंधी भी साथ छोड़ सकते हैं। क्या देश के नागरिक स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं । क्या क़ानून सच में अंधा होता है।
‘अरुणा’ यानी अरुणा रामचंद्र शानबाग कि लालिमा (कौमार्य), जो उसका सब कुछ था, छीन लिया गया, उसे बर्बाद कर दिया गया ।
22 नवंबर 1973 को अरुणा की लालिमा को विध्वंस करने वाला व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि उसी अस्पताल में डॉग रिसर्च लेबोरेट्री में तैनात वार्ड ब्वॉय सोहनलाल भरत वाल्मीकि था । मुंबई स्थित एक अस्पताल में पेशे से बतौर नर्स अरुणा का दोष सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना ही था कि वह अस्पताल में कुत्तों के भोजन के लिए आने वाले मांस को खाने से सोहनलाल को मना किया करती थीं।
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सोहनलाल ने इस टोका-टाकी से तंग आकर एक दिन मौका पाते ही अरुणा को दबोच लिया और उसके साथ अप्राकृतिक (एनल) मैथुन किया। इतना ही नहीं इस दौरान सोहनलाल ने अरुणा के गले को कुत्ते बांधने वाली जंजीर से कस कर दबा दिया। इस घटना की वजह से अरुणा की आंखों की रोशनी चली गई, शरीर को लकवा मार गया। परिणाम स्वरुप अरुणा खुद पर हुए इस यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोल पाई। सोहनलाल ने सबूत मिटाने के लिए उसका गला घोंट कर जान लेने की कोशिश भी की।

जब उसे लगा कि वो मर चुकी है तो छोड़ कर फ़रार हो गया। लेकिन अरुणा मरी नहीं थीं। बेहद प्रताड़ित किए जाने की वजह से वह अचेतावस्था में चली गईं थी । वह ज़िन्दगी के शेष समय भी अचेतावस्था में ही पड़ी रहीं। आख़िरकार करीब 42 साल तक मृतप्राय जीवन जीते हुए करीब 66 साल की उम्र में 18 मई 2015 को इस दर्द भरी रुमानी दुनिया से बिना इंसाफ़ मिले ही रुखसत हो गईं।
क़ानून की कमी कहें या इत्तेफाक अरुणा के जीवन की अक्षत लालिमा पर कालिख पोतने के बावजूद सोहनलाल पर दुष्कर्म का आरोप तक नहीं लगा । क्योंकि जब अरुणा की मेडिकल जांच की गई, तो उसमें वेजाइनल नहीं बल्कि ऐनल रेप की पुष्टि हुई, लेकिन अस्पताल प्रशासन अपनी साख बचाने के लिए इसकी रिपोर्ट तक दर्ज़ कराने को तैयार नहीं हुआ।
आख़िर में एक पुलिसकर्मी ने सोहनलाल के ख़िलाफ़ हत्या की कोशिश और लूट का मामला दर्ज़ कराया। इसी वजह से बलात्कार, यौन उत्पीड़न या कथित अप्राकृतिक यौन हमले जैसे जघन्य अपराधों के बावजूद सोहनलाल को सिर्फ़ 7 साल की सज़ा सुनाई गई। दोनों में सोहनलाल को सात-सात वर्ष की सजा सुनाई गई , पर न्यायाधीश ने दोनों सजाओं को एक साथ जारी रखा और मात्र 7 वर्ष में ही सोहनलाल को रिहा कर दिया गया।
सूत्रों के मुताबिक सोहनलाल भरत वाल्मिकी मूलत: उत्तर प्रदेश के गांव दादूपुर जिला सिकंदराबाद का रहने वाला है, जो सज़ा काटने के बाद दिल्ली चला गया, और अपना नाम बदलकर किसी अस्पताल में आज भी काम कर रहा है।
वहीं इस घटना के बाद जब अरुणा को अपनों की ख़ास ज़रूरत थी, तो किसी ने उसका साथ नहीं दिया। उसी अस्पताल में मौजूद डॉक्टर जिससे उनकी सगाई हुई थी, उसने भी चुप्पी साध ली और यहां तक की उसने भी पुलिस में कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई, आखिरकार सगाई भी टूट गई ।
अरुणा की बड़ी बहन, संबंधियों ने भी आर्थिक समस्याओं का हवाला देते हुए उसकी देख-रेख करने में असमर्थता ज़ाहिर की। अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक विगत 42 सालों में उसका कोई भी रिश्तेदार न तो उनसे मिलने आया और न ही किसी ने कोई खोज ख़बर ली। लेकिन अस्पताल की नर्सों ने कभी भी अरुणा का साथ नहीं छोड़ा, पिछले 42 वर्षों से उसकी सेवा में जी जान से लगी रहीं और ख़याल रखा।
1980 के दशक में अरुणा को अस्पताल से बाहर लाने की कोशिश भी कि गई। मगर अस्पताल में उनके सहकर्मियों ने इसका कड़ा विरोध किया। अरुणा को अस्पताल में ही रखे जाने को लेकर हड़ताल शुरू कर दी।
‘मरते हैं आरजू में मरने की। मौत आती है पर नहीं आती।।
अरुणा शानबाग़ की अचेतावस्था में काटे गये करीब 42 साल पर मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर सटिक बैठता है । वह अपने 66 साल की ज़िंदगी में करीब 42 साल हर रोज मरती रहीं। उसकी इस दुखद हालत को देखते हुए अस्पताल की पूर्व नर्स, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार पिंकी वीरानी ने दोषी को सज़ा दिलवाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रही।
पिंकी ने उच्चतम न्यायालय में इच्छा मृत्यु (यूथेनेसिया) की मांग को लेकर याचिका दायर की, लेकिन कोर्ट ने याचिका ख़ारिज़ कर दी । कोर्ट ने कहा कि पिंकी विरानी का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है, क्योंकि अरुणा की देख-रेख अस्पताल कर रहा है।
हालांकि अरुणा को जिंदा लाश में तब्दील कर देने वाले हमले के करीब 38 साल बाद यानी 24 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने पिंकी द्वारा अरुणा के लिए किए गए इच्छा मृत्यु (मर्सी डेथ) के आग्रह पर उसके स्वास्थ्य की जांच के लिए एक पैनल गठित किया ।
पिंकी ने 17 दिसंबर 2010 को अरुणा को इच्छा मृत्यु देने के लिए कोर्ट में गुहार लगाई थी। याचिका पर कोर्ट ने केईएम अस्पताल और महाराष्ट्र सरकार से शानबाग की मेडिकल कंडिशन की रिपोर्ट मंगाई , जिसके इच्छा मृत्यु के लिए उपयुक्त न लगने पर कोर्ट ने यह याचिका 7 मार्च 2011 को खारिज कर दी।
हालांकि कोर्ट ने अचेतावस्था की स्थिति में मरीजों को जीवनरक्षक प्रणाली से हटा कर ‘परोक्ष इच्छा मृत्यु’ (पैसिव यूथेनेशिया) की अनुमति दे दी, लेकिन जहरीले पदार्थ का इंजेक्शन देकर जीवन समाप्त करने के तरीके ‘प्रत्यक्ष इच्छा मृत्यु’ या ‘ऐक्टिव यूथेनेशिया’ को खारिज कर दिया। हालांकि इसके बाद कोर्ट ने कुछ कड़े दिशा-निर्देश तय किए जिनके तहत हाई कोर्ट की निगरानी व्यवस्था के माध्यम से ‘परोक्ष इच्छा मृत्यु’ कानूनी रूप ले सकता है।
पैसिव यूथेनेशिया क़ानून के अनुसार तीन परिस्थितियों में इस कानून का उपयोग किया जा सकता है। पहला, जब मरीज का ब्रेन डेड हो गया हो। दूसरा, जब मरीज न तो जीने की हालत में हो और न ही मरने (पीवीएस) की हालत में। तीसरा, जब मरीज काफी दिनों तक वेंटिलेटर पर हो। इन तीनों परिस्थितियों में से किसी भी एक स्थिति में यदि डॉक्टर, मरीज के अभिभावक या वह स्वयं पहले ही कह चुका हो, तो वे इस कानून का सहारा ले सकते हैं।
पिछले साल ही इस कानून को राज्यसभा ने मंजूरी दे दी थी और अब यह कानून बन चुका है। इस कानून के तहत मरीज के चल रहे इलाज को बंद कर दिया जाता है और उसे भोजन भी नहीं दिया जाता, ताकि वह जिंदा न रहे।
गौरतलब है कि कर्नाटक के हल्दीपुर की रहनेवाली अरुणा शानबाग का जन्म वर्ष 1948 में हुआ था। वह मुंबई के केईएम अस्पताल में बतौर नर्स के पद पर तैनात हुईं, लेकिन साल 1973 की घटना ने उसे ताउम्र अचेतावस्था में डाल दिया और वह तिल-तिल कर हर रोज मरती रहीं। वहीं उत्तर प्रदेश के हल्दीपुर की रहने वाली उसी अस्पताल की नर्स, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता पिंकी विरानी अरुणा की दोस्त थीं।
पिंकी विरानी ने अपनी दोस्त अरुणा की स्थिति को देखते हुए वर्ष 1998 में “अरुणाज स्टोरी” नामक किताब लिखीं। उनके लिए इच्छा मृत्यु की भी मांग की, जिसे आखिरकार कोर्ट ने भी माना। इस मुद्दे को लेकर वर्ष 2010 में संजय लीला भंसाली की ‘गुज़ारिश’ नामक फिल्म प्रदर्शित हुई। इसी सिलसिले में दत्तकुमार देसाई ने वर्ष 1994-95 में मराठी नाटक “अरुणाची” लिखा जिसका 2002 में विनय आप्टे के निर्देशन में मंचन किया गया।
पिंकी विरानी के मुताबिक यह सही है कि अरुणा के साथ जो कुछ हुआ वह न केवल उनके साथ, बल्कि पूरी मानवता के साथ घोर जघन्य अपराध था। लेकिन वह हमें ‘पैसिव यूथेनेशिया’ के रूप में एक बेहद अहम कानून जरूर दे गईं। ‘मेरा मानना है कि जिसकी बीमारी लाइलाज हो उन मरीजों को ‘राइट टू डेथ विद डिग्निटी’ दी जा सकती है। लेकिन इस तरह के हर मामले पर मेडिकल बोर्ड फैसला दें। स्विटजरलैंड आदि देशों में मर्सी डेथ की व्यवस्था है । हालांकि इस विषय पर दुनियाभर में बहस हो रही है।’

 

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