राजनीति में कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। कौन सा राजनेता किस प्रकार की भूमिका निभाएगा, यह सब वर्तमान राजनीति ही तय करती है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बिहार में जिस प्रकार का प्रदर्शन किया है, वह उनकी कथनी और करनी में भिन्नता को ही उजागर करता है।
लालू प्रसाद यादव ने चाहे जबरदस्ती या फिर अच्छे साथी के तौर पर केजरीवाल को गले मिलाया हो, लेकिन यह सर्वदा सत्य है कि संगत का प्रभाव हर किसी पर होता है। फिर अरविंद केजरीवाल इससे कैसे अछूते रह सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल भले ही लालू से गले मिलने की लाख सफाई दें, परंतु जिस प्रकार कोयले की दलाली में हाथ काले हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार की वर्तमान राजनीति की परिभाषा में केजरीवाल स्वयं उतरते जा रहे हैं। लालू प्रसाद यादव वर्तमान में एक अपराधी साबित हो चुके हैं, इसलिए उनका अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से समर्थन करना उनको बलिष्ठ बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा ही माना जाएगा।
बिहार की राजनीति में विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद हालांकि नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री के तौर पर विराजमान हो चुके हैं, लेकिन सरकार बनते समय बिहार के साथ पूरे देश ने जिस प्रकार के परिदृश्य का साक्षात्कार किया है, उससे पूरे देश के राजनीतिक विश्लेषकों को यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या यही राजनीति है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपना जो रूप प्रस्तुत किया, उससे वे कितना इत्तेफाक रखते होंगे यह तो वही जानें, लेकिन यह सत्य है कि अरविंद केजरीवाल ने अपना वास्तविक रूप ही दिखाया है। अरविंद केजरीवाल की नौटंकी से त्रस्त होकर उनकी ही पार्टी के कई दिग्गज नेता आज किनारे होते जा रहे हैं या फिर किनारे पर जाने की तैयारी कर रहे हैं।
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही बताया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल जिस प्रकार के कारनामे कर रहे हैं उससे ऐसा ही संदेश जा रहा है कि वह स्वयं करें केवल वही सही है। बाकी सब झूंठ। लोकनायक जयप्रकाश की भूमि ने केजरीवाल के एक और नाटक का साक्षात्कार किया है। इससे निश्चित रूप से बिहार को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है।
बिहार के चुनाव परिणाम ने जहां दुश्मनों को गले मिलवाया है वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नया अवतार भी दिखाई दिया। बिहार में भ्रष्टाचार के अपराधी के रूप में राजनीतिक निर्वासन झेल रहे लालूप्रसाद यादव के मंच पर जाकर केजरीवाल ने यह तो प्रमाणित कर ही दिया है कि वे भी येन केन प्रकारेण राजनीति में जमे रहना चाहते हैं।
बाद में भले ही उन्होंने अपनी सफाई दे दी, लेकिन केजरीवाल यह शायद भूल गए कि बिहार में जिस नीतीश कुमार के साथ वे सुर ताल का संगम दिखा रहे हैं, वे नीतीश कुमार राजनीतिक तौर पर लालू प्रसाद यादव से कमजोर ही साबित हुए हैं। ऐसे में अरविंद केजरीवाल अपने स्तर पर कुछ भी मायने निकालें, लेकिन उनकी भूमिका लालू को ही राजनीतिक ताकत प्रदान करने वाली है।
लोकतंत्र के इतिहास में यह सर्वदा सत्य है कि जिसके पास सख्या बल अधिक होता है, सत्ता उसी के हाथ में रहती है। आज अप्रत्यक्ष तौर पर बिहार में सत्ता का संचालन लालू के हाथ में ही कहा जाएगा। इस कारण यह साफ है कि अरविंद केजरीवाल ने एक भ्रष्टाचारी को ही पुष्ट किया है।
दिल्ली की राजनीति में धूमकेतु की तरह चमके अरविंद केजरीवाल का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह आज पूरा देश जानता है। उत्तर दायित्व से भागने के लिए केजरीवाल को हमेशा बहानों की तलाश रहती है।
केजरीवाल इस बात को अच्छी प्रकार से जानते हैं कि खुद की कमजोरी के लिए दूसरे को कैसे निशाना बनाया जाए। जो व्यक्ति केजरीवाल को भाजपा के इशारे पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे थे, आज वही व्यक्ति केजरीवाल के साथ गलबहियां करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
जो केजरीवाल का वास्तविक चरित्र को उजागर करता है। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भले ही केजरीवाल ने कांग्रेस नेता शीला दीक्षित को हराया, लेकिन आज उसी शीला दीक्षित पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही न करके उसे अप्रत्यक्ष रूप से बचाने का प्रयास किया जा रहा है। केजरीवाल की बातों पर जिसने भी भरोसा किया, वह आज प्रताड़ना झेल रहा है।
राजनीतिक रूप से विचार किया जाए तो बिहार हमेशा राजनीतिक क्रांति का केंद्र रहा है। लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन की उपज से निकले कई नेता आज भी देश की राजनीति की मुख्य धारा में हैं। बिहार चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आए राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव जेपी आंदोलन की फसल का उत्पाद माने जा सकते हैं।
लेकिन एक बात तो तय है कि जयप्रकाश जी ने देश में शुद्ध लोकतंत्र की ही वकालत की थी। उनके विचार में जातिवाद का लेश मात्र भी अंश नहीं था, लेकिन बिहार में चुनाव के दौरान जातिवाद के जहर का इतना समावेश हुआ कि लोकतंत्र के लिए जगह भी नहीं बची। ऐसे में यह भी कहना तर्कसंगत होगा होगा कि इस बार बिहार का चुनाव लोकतंत्र के मार्ग से भटकता हुआ दिखाई दिया।
देश की राजनीति में जेपी आंदोलन को सिंहासन को हिला देने वाला माना गया। इस क्रांतिकारी आंदोलन के चलते उस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हिला दिया था, और उनके खिलाफ ऐसा माहौल बना कि उन्हें चुनाव में पराजय का स्वाद चखना पड़ा।
बिहार की धरती को राजनीतिक क्रांति की धरती निरूपित किया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी, लेकिन आज बिहार में जिस प्रकार की राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ है, वह जेपी की मानसिकता से काफी भिन्न चरित्र दिखा रहा है।
लालू प्रसाद यादव ने केवल अपने परिवार को राजनीतिक शक्ति प्रदान करने के लिए इस बार के चुनाव में करो या मरो की नीति को अंगीकार किया। इससे उन्हें सफलता भी मिली और उन्होंने बिहार की सत्ता की चाबी अपने नौसिखिए ऐसे बालकों के हाथ में सौंप दी जो राजनीतिक रूप से तो अपरिपक्व हैं ही, साथ ही उन्हें देश दुनिया की उतनी समझ भी नहीं है जितनी एक प्रदेश के उपमुख्यमंत्री को होना चाहिए।
देश और समाज का सर्वाधिक क्रियाशील एवं गतिशील पहलू होता है ‘राजनीति’ जो हर तरीके से जाने-अनजाने में जीवन को प्रभावित करती है। कहते हैं, सामाजिक प्राणी होने के नाते कोई भी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में राजनीति से बेअसर नहीं रह सकता है।
महान दार्शनिक प्लूटो तो यहां तक कह गए हैं कि राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है। मैं प्लूटो की बातों से विरोध नहीं जता रहा, लेकिन जब आप राजनीति का हिस्सा बनने के लिए तैयार हों और ‘आगे कुआं-पीछे खाई’ जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो फिर क्या करेंगे।
बिहार की राजनीति का वर्तमान इसी प्रकार के भंवरजाल में दिखाई दे रहा है। कहते हैं कि जब नासमझ हाथों में किसी राज्य की सत्ता चली जाए तो हो सकता है उसका खामियाजा प्रबुद्ध वर्ग को भुगतना पड़े।
वर्तमान के वातावरण में बिहार की स्थिति बनी है उसमें समझने की आवश्यकता यह है कि क्या बिहार की राजनीतिक धरती इतनी कमजोर पड़ गयी है कि जिसमें लोकनायक जयप्रकाश की अवधारणा को विस्मृत कर दिया जाए।
क्या बिहार की धरती इतनी गीली हो गयी है कि अब दलदल का रुप लेने लगी है या इतनी दरारें आ चुकीं हैं कि धरती के अंदर की गहराई आसानी से नापी जा सकती है। आखिर बिहार को इस कगार पर लाकर किसने खड़ा किया ? आपसी कलह, फिर एकजुटता, राजनीतिक मर्यादाओं की हर सीमा का उल्लंघन तो कभी वर्चस्व की लड़ाई। इन सभी बातों ने बिहार की पुष्ट राजनीति को खोखला कर दिया है। अब सवाल यह उठने लगे हैं कि आखिर बिहार किस राह पर जा रहा है।
– सुरेश हिन्दुस्थानी