कहते है न कि जिम्मेदारी इंसान को सब कुछ सीखा देती है तो वहीं पेट इंसान से हर काम करवाता है। शायद यही वजह रहीं होगी कि बाग्लादेश कि मुसलिम समुदाय कि मोसम्मत जेस्मीन ने घर कि जिम्मेदारी को उठाने के लिए रिक्शेवाली बन सड़कों पर रिक्शा चलाया।
बांग्लादेश जैसे मुसलिम बहुसंख्या वाले देश, जिसे एशिया के सबसे पिछड़े समाजों में गिना जाता है, ऐसे देश में मोसम्मत समाज की दकियानूसी सोच की परवाह किए बिना एक नई सोच को गढ़ने की कोशिश कर रहीं हैं।
है परिवार कि जिम्मेदारी
मोसमम्त को रिक्शा चलाते हुए 5 साल हो गए इनके 3 बच्चे हैं। जिनकी पूरी जिम्मेदारी मोसम्मत पर ही है। अपने बच्चों को पालना पोषना और साथ ही पढ़ाई लिखाई सब अकेले संभाल रही हैं मोसम्मत। मोसम्मत का 45 वर्ष का पति किसी दूसरी औरत को लेकर भाग गया था।
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इसके बाद से उन पर बच्चों को पालने की पूरी जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने इससे पहले और भी कुछ कामों में हाथ आजमाया था। वो घरेलू नौकरानी के तौर पर काम कर रही थीं, पर उससे मिलने वाले पैसे उनके लिए कम पड़ते थे और उन्हें बच्चों की देख-भाल करने का समय नहीं मिल पता था। उन्होंने एक फैक्ट्री में भी काम किया, पर वहां मेहनत ज्यादा और पैसे बहुत कम दिए जाते थे।
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इसके बाद उन्होंने पड़ोसी का रिक्शा किराए पर लिया और उसे चलाना शुरू किया।
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अब कमाती है 500 रूपए
जैसा कि हमेशा से काम को भी जेंडर के आधार पर बांटा गया है कि ये काम केवल पुरूषों के लिए है औरतों के लिए नहीं। इसके बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी। आज वो दिन में 8 घंटे काम कर के हर दिन का 600 टका (500 रुपए) कमा लेती हैं। इसलिए शुरू-शुरू में उन्हें काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था, पर धीरे-धीरे हालात सामान्य होते चले गए। शुरू में जब लोग एक औरत को रिक्शा चलाते देखते थे, तो उन्हें बड़ा अटपटा लगता था। लोग उनके रिक्शे पर बैठने से हिचकिचाते थे।
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कोई उनसे कहता कि ये मर्दों का काम है, तो कोई उन्हें इस्लाम का हवाला देकर कहता कि उनका धर्म औरतों को इस तरह सड़कों पर घूमने की इजाजत नहीं देता।
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