जगदलपुर। पचहत्तर दिनों तक चलने वाला ऐतिहासिक बस्तर दशहरा मंगलवार को पाटजात्रा की रस्म अदायगी के साथ शुरू हो गया। इसके लिए परंपरानुसार बिलोरी जंगल से साल लकड़ी का गोला मंगवाया गया था। काष्ठ पूजा के बाद इसमें सात मांगुर मछलियों की बलि दी गई और लाई-चना अर्पित किया गया। इस लकड़ी से ही रथ बनाने में प्रयुक्त औजारों का बेंठ आदि बनाया जाएगा।
छत्तीसगढ़ का बस्तर दशहरा दुनिया में सबसे लंबे अवधि तक मनाया जाने वाला पर्व है। सहकार और समरसता की भावना के साथ 75 दिवसीय पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है जो क्वांर माह तक चलता है। इसमें सभी वर्ग, समुदाय और जाति-जनजातियों का योगदान महत्वपूर्ण होता है। इस पर्व में प्रत्येक बस्तरिया का माईजी के प्रति अगाध प्रेम व आस्था पर्व में झलकता है।
पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म के साथ होती है। इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करने के साथ विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी शहर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है।
झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के डेढ़-दो सौ ग्रामीण रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हुए दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करते हैं। इसमें लगने वाले कील और लोहे की पट्टियां भी पारंपरिक रूप से स्थानीय लोहार सीरासार भवन में तैयार करता है।
काछनगादी पूजा
रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिने काछनगादी पूजा विधान होती है। इसमें मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है जो बेल कांटों से तैयार झूले पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व की अनुमति देती है। इसके दूसरे दिन ग्राम आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठकर लोक कल्याण की कामना करता है।
यह आदिवासियों में योग साधना की सहज ज्ञान और माईजी के प्रति आस्था को प्रकट करता है। इस दौरान प्रतिदिन शाम को माईजी के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते रथ परिक्रमा की जाती है। रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है। रथ परिचालन में आधुनिक तकनीक और यंत्रों का उपयोग नहीं होता। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर है।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था का बेहतरीन उदाहरण
बस्तर दशहरा में संभाग के अलावा धमतरी और महासमुंद-रायपुर जिले के देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है। यह पर्व में सहकार के साथ एकता का भी प्रतीक है। वहीं पर्व के अंतिम पड़ाव में मुरिया दरबार लगता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याएं सुना और निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार जनजातीय परिवेश में भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे अच्छा उदाहरण है।
मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का समाधान राजपरिवार करता था अब यह जिम्मेदारी प्रशासनिक अधिकारी निभाते हैं। इसके बाद सभी परगना और गांव के देवी-देवताओं के लाट, बैरक, डोली की विदाई कुटुंबजात्रा के साथ ससम्मान की जाती है। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई की डोली व छत्र को दूसरे दिन नजराने व सम्मान के साथ विदा किया जाता है।
काछनदेवी और दशहरा
बस्तर दशहरा में काछन पूजा अनिवार्य रस्म है। पर्व व रथपरिचालन की अनुमति काछनदेवी देती है। जानकारों के मुताबिक 1725 ईस्वी में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब यहां हिंसक पशुओं का आतंक था और इनसे सुरक्षा के लिए कबीले का मुखिया जगतू माहरा तात्कालिक नरेश दलपत देव से भेंटकर जंगली पशुओं से अभयदान मांगा।
शिकार प्रेमी राजा इस इलाके में पहुंचे लोगों को राहत दी वहीं यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। इससे माहरा कबिला जहां राजभक्त हो गया वहीं राजा ने कबीले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है।
नौ दिनों की विशेष साधना
बस्तर दशहरा निर्विघ्न संपन्न कराने सहित अंचल की सुख-समृद्धि की कामना के साथ 9 दिनों की साधना में ग्राम बड़ेआमाबाल के योग पुरुष रहता है। मान्यताओं के अनुसार बरसों पहले आमाबाल परगना की हलबा जाति का कोई युवक निर्विघ्न दशहरा मनाने और लोगों को शुभकामना देने के लिए राजमहल के समीप योग साधना में बैठ गया था। तब से यह प्रथा चली आ रही है। जिसे राजपरिवार व प्रशासन की ओर से सम्मान स्वरूप भेंट दिया जाता है। वहीं 9 दिनों तक परिवार के सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है। हलबा समाज के सदस्य बताते हैं कि समुदाय के सदस्य वर्ष 1414 से दशहरा की सफलता और लोगों की सुख-समृद्धि की कामना के लिए जोगी बनता आ रहा है।
मावली परघाव
पर्व में शामिल होने दंतेवाड़ा से माईजी के छत्र-डोली अश्विन नवमी को शहर पहुंचती है। जियाडेरा में विश्राम के बाद शाम को कुटरुबाड़ा के समक्ष भव्यता के साथ स्वागत किया जाता है। आस्था और भक्तिभाव से पूर्ण इस दृश्य को देखने स्थानीय के साथ विदेशी पर्यटक भी घंटों इंतजार करते हैं। रात्र के चलते पर्व के दौरान दंतेश्वरी मंदिर, राममंदिर, सिहड्योढ़ी कुछ स्थान विशेष पर बकरे की जगह रखिया कुम्हड़ा की बलि दी जाती है।
निशाजात्रा विधान
पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व अन्य पशु-पक्षियों की बलि दी जाती है। लेकिन अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में दर्जनों बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है। रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। निशाजात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व है। इस परंपरा को कैमरे में कैद करने विदेशी पर्यटकों में भी उत्साह होता है।
नहीं होता रावण वध
दशहरा के मौके पर पूरे भारत में जहां रावण वध किया जाता है वहीं बस्तर में यह परंपरा नहीं है। दशहरा के मौके पर पूर्व कलेक्टर प्रवीरकृष्ण ने लालबाग मैदान पर रावण वध कार्यक्रम की शुरुआत करवाई थी, लेकिन यह एक ही बार हुआ। बस्तर के ग्रामीण अंचलों में रावण वध नहीं किया जाता है। अपितु बाहर से शासकीय कर्मचारियों किरंदुल-बचेली व उत्तर बस्तर के कुछ हिस्सों में रावध दहन कार्यक्रम का आयोजन करते हैं।संभाग में दंतेवाड़ा जिले के किरंदुल में करीब चार दशक से रावण वध का आयोजन किया जा रहा है।