बाराबंकी। समाजवादी पार्टी से बेटे को टिकट दिलाने के लिए बेनी ने सारे दांव चले लेकिन हर दांव उल्टा पड़ जाने के बाद उनके अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते पार्टी से एक बार फिर बागी होने की सम्भावना है।
पार्टी में सपा संरक्षक मुलायम के बाद अगर किसी को नेता माना जाता था तो वे थे बेनी वर्मा। 1974 के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव होगा जिसमें बेनी प्रसाद वर्मा या उनके घर का कोई सदस्य चुनाव मैदान में नहीं उतरा है।
करीब दो दशक तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और पांच बार लोकसभा के लिए चुने बेनी वर्मा की गिनती प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में होती है राज्य और केंद्र दोनों की सरकारों में वे काबीना मंत्री रहे।
जातियों में उलझी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी दूसरी पार्टी के पास कुर्मी लीडर के तौर पर बेनी की काट नहीं है। बाराबंकी से लेकर बहराइच और लखीमपुर तक के कुर्मी मुस्लिम और पिछड़ों के वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है।
मुलायम सिंह और बेनी प्रसाद की दोस्ती पुरानी है लेकिन इतनी गहरी दोस्ती होने के बाद भी बेनी के साथ वही हुआ जो सपा के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ हुआ। जैसे-जैसे पार्टी में अमर सिंह का कद बढ़ा बेनी उपेक्षितों की कतार में चले गए।
मुलायम के साथ उनकी निर्णायक लड़ाई 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले शुरू हुई। इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बहराइच सीट से वकार अहमद शाह को टिकट दिया जो सपा की सरकार में मंत्री थे। बेनी ने वक़ार को टिकट दिए जाने का खुला विरोध किया क्योंकि बेनी के मुताबिक शाह उनके एक कट्टर समर्थक राम भूलन वर्मा की हत्या में शामिल थे।
बेनी इससे पहले भी इसी मुद्दे को लेकर वकार शाह को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग कर चुके थे लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने ऐसा नहीं किया तब बेनी बाबू ने इसे कुर्मी स्वाभिमान का मुद्दा बनाते हुए पार्टी छोड़ दी और समाजवादी क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली।
बेनी के बेटे राकेश वर्मा सपा की सरकार में कारागार मंत्री थे। उन्होंने भी समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पिता की पार्टी से उन्हीं की कर्मभूमि मसौली सीट से चुनाव मैदान में उतरे लेकिन बग़ावत से बेनी को कोई फायदा नहीं हुआ।
उक्त चुनाव में समाजवादी क्रांति दल को एक सीट भी नहीं मिली लेकिन उन्होंने सपा को नुकसान पंहुचाया। बेनी की वजह से ही बाराबंकी सीट पर लंबे समय बाद कांग्रेस का कब्जा हुआ और पीएल पुनिया सांसद बन गए। हालांकि बाद में बेनी कांग्रेस में शामिल हुए सांसद बने और मनमोहन सरकार में काबीना मंत्री भी लेकिन सरकार बदली और हालात भी।
बेनी बाबू गोंडा संसदीय सीट से चुनाव हार गए तो बाराबंकी से पुनिया भी हारे। ज़िले के दोनों नेता अपनी संसदीय सीट गंवाने के बाद राज्यसभा सीट पर दांत लगाये बैठे थे लेकिन इस बार बेनी बाबू चूक गए और इस बार पूर्व आईएएस डा. पीएल पुनिया ने बाज़ी मार ली और प्रदेश से कांग्रेस ने अपने खाते की सीट बेनी को न देकर पुनिया को दे दी।
राजनीति में सब कुछ जायज़ है यह तब साबित हुआ जब बेनी ने अचानक पलटवार करते हुए सपा में वापसी कर ली और सांसदी भी ले ली। मौजूदा समय में बेनी वर्मा अपने बेटे और पूर्व मंत्री राकेश वर्मा के भविष्य लेकर चिंतित ज़रूर हैं लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ यही मानते हैं कि बेनी अपने दम पर चुनावों की तस्वीर बदलने का दम रखते हैं।
वे अखिलेश से नाराज़ हैं चूंकि अखिलेश ने उनके मुकाबले ज़िले के दूसरे नेता को तरजीह दी है। आगामी चुनावों में इसका असर भी देखने को मिलेगा। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के साथ राजनीति का ककहरा सीखने वाले बेनी वर्मा ने सबसे पहले गन्ना किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए बुढ़वल केन यूनियन से शुरू की।
1974 में पहली बार चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांतिदल से दरियाबाद विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। 1977 में मसौली विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेसी दिग्गज नेता मोहसिना किदवई को हराया। 1980 में मसौली से चुनाव लड़े पर हार का सामना करना पड़ा।
1985 में लोकदल से फिर चुनाव जीते। 1989 और 1991 में बेनी वर्मा जनता दल के टिकट पर जीते। 1993 में मुलायम सिंह के साथ समाजवादी पार्टी में मसौली जीत हासिल की। बेनी प्रसाद की तूती जिले में ही नहीं प्रदेश व खासकर कुर्मी और मुसलमानों वर्ग में बोलती है।
उतार चढ़ाव भरी राजनीति के बीच वह 2016 में फिर सपा में लौट आए। राज्यसभा सदस्य बने। इस दौरान बेटे को अरविंद सिंह गोप के खिलाफ रामनगर से टिकट दिलाना चाहते थे पर सफल नहीं हुए। राकेश को भाजपा से लड़ाने की पूरी तैयारी की पर ऐन वक्त पर बात बिगड़ गई।
मामला कुछ भी हो पर जिले ही नहीं प्रदेश में अपनी अलग पहचान बनाने वाले बेनी वर्मा के लिए 2017 का चुनाव ऐसा होगा जिसमें वह दूसरे की हार जीत की गणित भले फिट करें पर सीधे तौर पर यह पहला मौका होगा जब इस परिवार का कोई सदस्य चुनाव मैदान में नहीं उतरा है।