जून माह में वांशिग्टन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात के बाद जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में पहली बार चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबोर- नया नाम बेल्ट एण्ड रोड इनिशिएटिव-बीआरआई) को लेकर भारत की चिंताओं का समर्थन किया था।
अब अमरीका ने यह साबित कर दिया है कि वह समर्थन सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी की राजकीय यात्रा को देखते हुए नहीं था, बल्कि यह ट्रंप प्रशासन की सोची-समझी कूटनीति का हिस्सा था। यही वजह है कि अमेरिका के रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने सेना से जुड़ी सीनेट की रक्षा समिति के सामने यह बयान दिया है कि चीन की ओबोर परियोजना एक विवादित भौगोलिक स्थान गिलगित-बाल्टिस्तान से गुजर रही है, जिसको लेकर अमरीका चिंतिति है।
इस बयान का चीन ने कड़ा विरोध किया है और पाकिस्तान में भी इस पर जबरदस्त हंगामा मचा हुआ है। पाकिस्तान में तो इस बात पर बहस छिड़ गई है कि इस बयान से अमरीका ने यह साफ कर दिया है कि उसकी कश्मीर नीति भारत के पक्ष में बदल रही है। अमरीका ने परोक्ष तौर पर गिलगित बाल्टिस्तान के विवादित होने के भारत के दावे का समर्थन किया है। दूसरी तरफ भारत का मानना है कि यह पूरी तरह से वैश्विक कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर भारत के रुख का समर्थन है।
अमरीकी रक्षा मंत्री ने सीनेट की जिस समिति के सामने यह बयान दिया है कि वह बेहद महत्वपूर्ण है। यह बयान बताता है कि भारत के साथ द्विपक्षीय वर्ताओं में अमरीका ने इस पूरे मुद्दे पर जो रुख अपनाया था उसे वह आंतरिक तौर पर भी स्वीकार करता है। चीन ने इसी साल जून माह में बड़ी कूटनीतिक चाल चलते हुए बीजिंग में वन बेल्ट एंड वन रोड फोरम (ओबीओआर) का सम्मेलन आयोजित किया था।
इसकी शुरूआत करते हुए राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि सभी देशों को एक-दूसरे की संप्रभुता, गरिमा और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए। चीन की कथनी और करनी का यह दोगलेपन का वह चिंताजनक पहलू है, जो भारत समेत अनेक देशों के लिए खतरनाक है। इस चर्चा में साठ से अधिक देश हिस्सा लिया था। ओबीओआर परियोजना पर चीन 80 अरब की लगात से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का निर्माण में लगा है। भारत इस निर्माण को अपनी संप्रभुता पर हमला मानता है।
क्योंकि गलियारे का बड़ा हिस्सा पाक अधिकृत कश्मीर से गुजर रहा है, जो कि वास्तव में भारत का हिस्सा है। चीन ने सब कुछ जानते हुए इस आर्थिक गलियारे का निर्माण कर भारत की संप्रभुता को आघात पहुंचाया था। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2013 में कजाकिस्तान और इंडोनेशिया की यात्राओं के दौरान सिल्क रोड़ आर्थिक गलियारा और 21वीं सदी के मैरी टाइम सिल्क रोड़ बनाने के प्रस्ताव रखे थे।
इन प्रस्तावों के तहत तीन महाद्वीपों के 65 देशों को सड़क, रेल और समुद्री मागों से जोड़ने की योजना है। इन योजनाओं पर अब तक चीन 60 अरब डालर खर्च हो चुका है। इस योजना को साकार रूप में बदलने का वर्तमान समय को एक सुनहरा अवसर मानकर चल रहा था। क्योंकि अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप देश को संरक्षणवाद की ओर ले जा रहे हैं। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर आकर आर्थिक उदारवाद से पीछा छुड़ाने के संकेत दे दिए हैं।
जर्मनी में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद उभरता दिखाई दे रहा है। गोया चीन भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में खाली हुए स्थान को भरने के लिए उतावला है। किंतु अब अमरीका की आपत्तियों ने चीन को परेशान कर दिया है। कालांतर में यह परेशानी और बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। दरअसल इस महीने के अंत में अमरीका के विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन भारत दौरे पर आ रहे हैं, इस दौरान उनकी विदेश मंत्री सुशमा स्वराज से मुलाकात होगी।
इस मुलाकात में ओबोर भी एक प्रमुख मुद्दा होगा। इसकी वजह यह है कि अमरीका ओबोर के माध्ययम से मध्य पूर्व या केंद्रीय एशियाई देशों में चीन की बढ़ती पहुंच को पसंद नहीं कर रहा है। चीन जिस तरह से अपने साम्राज्य विस्तार में लगा है, उसे देखकर शायद अब अमरीका की नींद उड़ रही हैं। क्योंकि चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है, जो गाय का मुखौटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणियों का शिकार करने का काम करता है।
इसी का नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। चीन की यह दोगलाई कूटनीति भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता बन गई है। चीन की आक्रामकता इस समय कई देशों के लिए संकट का सबब बन रही है। इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है।
नतीजतन, चीन अंतरराष्ट्रीय नियम, कानून, पारदर्शिता और अनेक देषों की संप्रभुताओं को किनारे रखकर वैश्विक हितों पर कुठाराघात करने में लगा है। श्रीलंका में चीन की आर्थिक मदद से हम्बंटोटा बंदरगाह बन रहा था, लेकिन चीन ने काम पूरा नहीं किया। इस वजह से श्रीलंका आठ अरब डालर कर्ज के शिकंजे में आ गया है। अफ्रीकी देशों में भी ऐसी कई परियोजनाएं अधूरी पड़ी है, जिनमें चीन ने पूंजी निवेश किया था।
इन देशों में पर्यावरण की तो बड़ी मात्रा में हानि हुई ही, जो लोग पहले से ही वंचित थे, उन्हें और संकट में डाल दिया गया। लाओस और म्यांमार ने कुछ साझा परियोजना पर फिर से विचार करने के लिए आग्रह किया है। चीन द्वारा बेलग्रेड और बुडापेस्ट के बीच रेल मार्ग बनाया जा रहा है। इसमें बड़े पैमाने पर हुई शिकायत की जांच यूरोपीय संघ कर रहा है। यही हश्र कालांतर में पाकिस्तान का भी हो सकता है ?
क्योंकि चीन के साथ पाकिस्तान जो आर्थिक गलियारा बना रहा है, वह इसी ‘वन बेल्ट, वन रोड’ का हिस्सा है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया था। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डालर का पूंजी निवेश किया है। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधियां सामाजिक दृष्टि से चीन के लिए हितकारी हैं।
यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की उंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है।
यह सड़क सामारिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरूणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था। जबकि गिलगित-बल्तिस्तान के लोग इस पूरी परियोजना को शक की निगाह से देख रहे हैं। डोकलाम क्षेत्र में सड़क का निर्माण कर चीन, भूटान की संप्रभुता को हानि पहुंचाना चाहता है। 1999 में चीन ने मालदीव के मराओ द्वीप को गोपनीय ढ़ंग से लीज पर ले लीया था।
चीन इसका उपयोग निगरानी अड्डे के रूप में गुपचुप करता रहा। वर्ष 2001 में चीन के प्रधानमंत्री झू रांन्गजी ने मालदीव की यात्रा की तब दुनिया इस जानकारी से वाकिफ हुई कि चीन ने मराओ द्वीप लीज पर ले रखा है और वह इसका इस्तेमाल निगरानी अड्डे के रूप में कर रहा है। बाग्ंलादेश के चटगांव बंदरगाह के विस्तार के लिए चीन करीब 46675 करोड़ रूपए खर्च कर रहा है। इस बंदरगाह से बांग्लादेश का 90 प्रतिषत व्यापार होता है।
यहां चीनी युद्धपोतों की मौजदूगी भी बनी रहती है। भारत की कंपनी ने म्यांमार में बंदरगाह का निर्माण किया था, लेकिन इसका फायदा चीन उठा रहा है। चीन यहां पर एक तेल और गैस पाइपलाइन बिछा रहा है,जो सितवे गैस क्षेत्र से चीन तक तेल व गैस पहुंचाने का काम करेगी। ओबीओआर के तहत छह आर्थिक गलियारे, अंतरराष्ट्रीय रेलवे लाइन, सड़क और जल मार्ग विकसित किए जाने हैं। चीन ने इनमें 14.5 अरब डालर पूंजी निवेष की घोशणा की है।
इसके साथ ही एशियन इनफ्रास्टे्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक से भी पूंजी निवेश कराया जाएगा। इस बैंक में सबसे ज्यादा पूंजी चीन की लगी है। इन विकास कार्यों के संदर्भ में चीन तमाम देशों को स्वप्न दिखा रहा है कि यदि ये कार्य पूरे हो जाएंगे तो एशिया से लेकर यूरोप तक बिना किसी बाधा के व्यापार शुरू हो जाएगा। इस व्यापार के बहाने चीन कई देशों की संप्रभुता पर भी चोट कर सकता है। इसी आशंका के चलते अमरीका ने भारत के रुख का समर्थन किया है।
: प्रमोद भार्गव