स्वास्तिक शर्मा
लोकसभा २०१४ में ५४ पर सिमटी कांग्रेस को अभी ग्राफ के और नीचे गिरने का इंतजार है। संगठन में फेरबदल की सियासी अटकलों के बीच संकेत मिल रहे हैं कि एक बार चार राज्यों में आसन्न विधानसभा के नतीजों को भी आने दिया जाए। उसके बाद ही पार्टी नए सिरे से अपने कायाकल्प की प्रक्रिया शुरू करेगी। इस बीच जहां जितना जरूरी है उतने बदलाव तक ही सीमित रहने के संकेत देशभर में दे दिए गए हैं।….
लोकसभा २०१४ का ट्रेलर कांग्रेस को इससे पहले हुए विधानसभा चुनावों में ही देखने को मिल गया था जब उत्तराखंड को छोड़ दूसरे बड़े रायों से पार्टी का लगभग सफाया हो गया था। दिल्ली विधानसभा के चुनावों में तो १५ साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज शीला दीक्षित अपनी सीट भी नहीं बचा पाई थीं। उसके बाद से ही माना जा रहा था कि पार्टी आलाकमान संगठन में कोई बड़ा बदलाव कर लोकसभा चुनावों के लिए कार्यकर्ताओं को संदेश देगा।
देश की नब्ज समझने का दावा करने वाले कांग्रेस नेता देशभर में पार्टी के खिलाफ चल रही लहर को पकड़ पाने में बुरी तरह नाकामयाब रहे। इसका नतीजा अपेक्षित था और वैसा ही आया भी। उसके बाद से ही संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग उठने लगी। लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस पहली बार ऐसे दौर से गुजरी जब कार्यकर्ताओं ने सीो नेतृव पर अंगुली उठाई और राहुल गांधी पर निशाने साधे। इनमें वे कांग्रेस नेता भी शामिल हैं जो अब तक राहुल गांधी को देश का बेहतरीन नेता बताकर उनके खिलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। पार्टी के कई बड़े नेताओं ने तो राहुल गांधी को लेकर जो प्रतिक्रिया दी उससे गैरकांग्रेसी लोगों को भी यह समझने में मुश्किल आई कि बयान राहुल के समर्थन में है या विरोध में।
अपने करीब एक दशक से अिाक पुराने राजनीतिक सफर में राहुल गांधी संगठन के भीतर अपनी टीम तैयार नहीं कर पाए हैं। सोनिया गांधी की टीम का ‘बीÓ पार्ट राहुल की टीम के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। इन दिनों सोनिया और राहुल के नजदीकी नेताओं में नेहरू परिवार के वफादार सिपाहियों की संख्या अंगुली पर भी नहीं बची। जो नेता सोनिया और राहुल गांधी के करीब हैं उनमें अधिकांश बड़े नाम वे हैं जो पूर्व प्रधानमंत्री और दिवंगत कांग्रेस नेता नरसिम्हाराव के समय उनकी किचन केबिनेट का हिस्सा हुआ करते थे। तिवारी कांग्रेस के रूप में गांधी परिवार के वफादारों ने नरसिम्हाराव कांग्रेस से किनारा किया था, उनमें से कई किनारे लगा दिए गए।
लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद से ही पार्टी के भीतर उन राज्यों के मुख्यमंत्री हटाने की मुहिम सी चली जहां कांग्रेस को बड़ी हार झेलनी पड़ी थी। तलवार महाराष्ट्र, हरियाणा और उत्तराखंड के मुख्यमंिायों पर लटकी लेकिन ऐन मौके पर सभी को अभयदान मिल गया। इनमें महाराष्ट्र और हरियाणा में पार्टी ने आसन विधानसभा चुनाव भी अपने मंत्रियों के नेतृव में ही लडऩे का निर्णय किया है। पार्टी की इस कवायद के पीछे बुर्जुआ नेतृव को एक बार ठिकाने लगाने की राहुल गांधी की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस संगठन में अभी कई बदलाव होने हैं। एआईसीसी की नई सूची प्रतीक्षारत है और कई राज्यों में नेतृव परिवर्तन होना है। पार्टी आलाकमान के नजदीकी सूत्रों से जो संकेत मिल रहे हैं, उसके मुताबिक हरियाणा, महाराट्र, झारखड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के बाद संगठन में बड़ा फेरबदल दिखाई देगा। इन चुनावों में यह भी साफ हो जाएगा कि पार्टी जमीनी स्तर पर कहां खड़ी है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ कहां है। साथ ही पार्टी के भीतर बड़बोले नेताओं के बोल पर भी लगाम लग जाएगी।
आलाकमान ने भी मान लिया है कि मोदी सरकार पूर्ण बहुमत की सरकार है और उसके खिलाफ अभी कोई मुहिम चलाना आमघाती कदम हो सकता है। ऐसे में सरकार को गलतियां करने का मौका दिया जाए। संगठन की नई टीम अभी उतार दी गई तो लोगों के बीच जाने के लिए पार्टी के पास फिलहाल कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। दिसम्बर-जनवरी में संगठन की नई टीम सामने आएगी, उस वत तक मोदी सरकार की कुछ नाकामियां भी उजागर होंगी। उस समय नई टीम लोगों के बीच जाकर बेहतर तरीके से केंद्र सरकार को घेर सकेगी। उस वत राहुल गांधी को भी कोई बड़ी और सकारामक जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। पार्टी के नए चेहरों को समझने के लिए जनवरी तक का इंतजार बुरा नहीं है।