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निर्देशक नहीं पार्श्वगायक बनना चाहते थे राज खोसला - Sabguru News
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निर्देशक नहीं पार्श्वगायक बनना चाहते थे राज खोसला

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निर्देशक नहीं पार्श्वगायक बनना चाहते थे राज खोसला
death anniversary : Instead of director Raj Khosla wanted to become playback singer
death anniversary : Instead of director Raj Khosla wanted to become playback singer
death anniversary : Instead of director Raj Khosla wanted to become playback singer

मुंबई। बॉलीवुड में अपनी निर्देशित फिल्मों से दर्शको को मंत्रमुग्ध करने वाले राज खोसला फिल्म निर्देशक नही पार्श्वगायक बनने की हसरत रखते थे।

31 मई 1925 को पंजाब के लुधियाना शहर मे जन्में राज खोसला का बचपन से ही रूझान गीत संगीत की ओर था। वह फिल्मी दुनिया में पार्श्वगायक बनना चाहते थे। आकाशवाणी में बतौर उद्घोषक और पार्श्वगायक का काम करने के बाद राज खोसला 19 वर्ष की उम्र में पार्श्वगायक की तमन्ना लिए मुंबई आ गए।

मुंबई आने के बाद राज खोसला ने रंजीत स्टूडियों में अपना स्वर परीक्षण कराया और इस कसौटी पर वह खरे भी उतरे लेकिन रंजीत स्टूडियों के मालिक सरदार चंदू लाल ने उन्हें बतौर पार्श्वगायक अपनी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया।

उन दिनों रंजीत स्टूडियो की स्थिति ठीक नहीं थी और सरदार चंदूलाल को नए पार्श्वगायक की अपेक्षा मुकेश पर ज्यादा भरोसा था अत: उन्होंने अपनी फिल्म में मुकेश को ही पार्श्वगायन करने का मौका देना उचित समझा।

इस बीच राज खोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे 1उन्ही दिनों उनके पारिवारिक मित्र और अभिनेता देवानंद ने राज खोसला को अपनी फिल्म बाजी में गुरूदत्त के सहायक निर्देशक के तौर पर नियुक्त कर लिया।

वर्ष 1954 में राज खोसला को स्वतंत्र निर्देशक के तौर पर फिल्म मिलाप को निर्देशित करने का मौका मिला। देवानंद और गीताबाली अभिनीत फिल्म मिलाप की सफलता के बाद बतौर निर्देशक राज खोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए।

वर्ष 1956 में राज खोसला ने सी.आई.डी फिल्म निर्देशित की। जब फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सिल्वर जुबली पूरी की, तब गुरूदत्त इससे काफी खुश हुए।

उन्होंने राज खोसला को एक नई कार भेंट की और कहा कि यह कार आपकी है ..इसमें दिलचस्प बात यह है कि गुरूदत्त ने कार के सारे कागजात भी राज खोसला के नाम से ही बनवाए थे।

सी.आई.डी की सफलता के बाद गुरूदत्त ने राज खोसला को अपनी एक अन्य फिल्म के निर्देशन की भी जिमेवारी सौंपनी चाही लेकिन राज खोसला ने उन्हें यह कह कर इंकार कर दिया कि ..एक बड़े पेड़ के नीच भला दूसरा पेड़ कैसे पनप सकता है। इस पर गुरूदत्त ने राज खोसला से कहा.. गुरूदत्त फिल्मस पर जितना मेरा अधिकार है उतना तुहारा भी है।

वर्ष 1958 में राज खोसला ने नवकेतन बैनर तले निर्मित फिल्म सोलहवां साल निर्देशित की। देवानंद और वहीदा रहमान अभिनीत इस फिल्म को सेंसर का वयस्क प्रमाण पत्र मिलने के कारण फिल्म को देखने ज्यादा दर्शक नहीं आ सके और अच्छी पटकथा और निर्देशन के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं दिखा सकी।

इसके बाद राज खोसला को नवकेतन के बैनर तले ही निर्मित फिल्म काला पानी को निर्देशित करने का मौका मिला। यह बात कितनी दिलचस्प है कि जिस देवानंद की बदौलत राज खोसला को फिल्म इंडस्ट्री में काम करने का मौका मिला था उन्हीं की वजह से देवानंद को अपने फिल्मी करियर का बतौर अभिनेता पहला फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ।

वर्ष 1960 में राज खोसला ने निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और बंबई का बाबू का निर्माण किया। फिल्म के जरिये राज खोसला ने अभिनेत्री सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर पेश किया। हांलाकि फिल्म दर्शकों के बीच सराही गई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसे अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई। फिल्म की असफलता से राज खोसला आर्थिक तंगी में फंस गए।

इसके बाद राज खोसला को फिल्मालय की एस.मुखर्जी निर्मित एक मुसाफिर एक हसीना निर्देशित करने का मौका मिला। फिल्म की कहानी एक ऐसे फौजी अफसर की जिंदगी पर आधारित थी जिसकी याददाश्त चली जाती है। फिल्म के निर्माण के समय एस.मुखर्जी ने राज खोसला को यह राय दी कि फिल्म की कहानी फ्लैशबैक से शुरू की जाए।

एस. मुखर्जी की इस बात से राज खोसला सहमत नहीं थे। बाद में वर्ष 1962 में जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो आरंभ में उसे दर्शकों का अपेक्षित प्यार नहीं मिला और राज खोसला के कहने पर एस.मुखर्जी ने फिल्म का संपादन कराया और जब फिल्म को दुबारा प्रदर्शित किया तो फिल्म पर बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई।

वर्ष 1964 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म प्रदर्शित हुई। वह कौन थी फिल्म के निर्माण के समय मनोज कुमार और अभिनेत्री के रूप में निमी का चयन किया गया था लेकिन राज खोसला ने निमी की जगह साधना का चयन किया। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस फिल्म में साधना की रहस्यमयी मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गए। साथ ही फिल्म की सफलता के बाद राज खोसला का निर्णय सही साबित हुआ।

वर्ष 1967 में राज खोसला ने फिल्म अनिता का निर्माण किया जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह नकार दी गई जिससे उन्हें गहरा सदमा पहुंचा और उन्हें आर्थिक क्षति हुई। इससे राज खोसला टूट से गए। बाद में अपनी मां के कहने पर उन्होंने वर्ष 1969 में फिल्म चिराग का निर्माण किया जो सुपरहिट रही।

वर्ष 1971 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म प्रदर्शित हुई मेरा गांव मेरा देश इस फिल्म में विनोद खन्ना खलनायक की भूमिका में थे। फिल्म की कहानी उन दिनों एक अखबार में छपी कहानी पर आधारित थी।

वर्ष 1978 में राज खोसला ने लीक से हटकर फिल्में बनाने का काम करना शुरू कर दिया और नूतन और विजय आनंद को लेकर मैं तुलसी तेरे आंगन की का निर्माण किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म दर्शकों के बीच काफी सराही गई।

वर्ष 1980 में प्रदर्शित फिल्म दोस्ताना राज खोसला के सिने करियर की अंतिम सुपरहिट फिल्म थी। फिल्म में अमिताभ बच्चन, शत्रुध्न सिन्हा और जीनत अमान ने मुख्य भूमिका निभाई थी।

अस्सी के दशक में राजखोसला की फिल्में व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं रही। इन फिल्मों में दासी, तेरी मांग सितारों से भर दूं, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन और माटी मांगे खून शामिल है। हालांकि वर्ष 1984 में प्रदर्शित फिल्म सन्नी ने बॉक्स ऑफिस पर औसत व्यापार किया। वर्ष 1989 में प्रदर्शित फिल्म नकाब राज खोसला के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई।

अपने दमदार निर्देशन से लगभग चार दशक तक सिने प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन करने वाले निर्माता-निर्देशक राज खोसला नौ जून 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।