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कैंसर के खतरे के बावजूद पेट की खातिर बना रहे गुलाल - Sabguru News
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कैंसर के खतरे के बावजूद पेट की खातिर बना रहे गुलाल

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कैंसर के खतरे के बावजूद पेट की खातिर बना रहे गुलाल

Despite the risk of cancer of gulal maker

कानपुर। वैसे तो होली बिना गुलाल अधूरी है, लेकिन इसे बनाते समय मजदूरों की सेहत को होने वाला नुकसान इसे बनाने वालों का रंग फीका कर रहा है।

कानपुर के ग्रामीण इलाकों में मजदूर बिना किसी सेफ्टी किट के गुलाल तैयार कर रहे हैं। इसे बनाने के विधि उन्हें स्किन से लेकर कान व नाक तक की बीमारी दे रही है। वहीं कैंसर का भी खतरा उनके ऊपर मंडरा रहा है।

डॉक्टर बताते हैं कि हानिकारक केमिकल्स के साथ काम करते वक्त मजदूरों को स्किन डर्मेटाइटिस नाम की बीमारी का खतरा रहता है। जो गुलाल के साथ शरीर में चिपक जाने से इसे बनाने वालों की स्किन में जलन और खुजली पैदा करता है और स्किन की ऊपरी सतह पूरी तरह से खराब हो जाती है और व्यक्ति को बीमारी में ग्रसित कर देती है।

रंग या गुलाल आंखों में चला जाए तो आंखों से पानी आने लगता है और वह लाल हो जाती है। जिससे कभी-कभी रेटिना तक के खराब होने की संभावना बनी रहती है। अगर गुलाल या रंग कान में चला जाए तो कान का पर्दा खराब हो जाता है।

जिसके चलते कान से मवाद आने लगता है। सिर में गुलाल या रंग ज्यादा मात्रा में चले जाने से चक्कर आने लगते हैं, उल्टियां होने लगती है। ज्यादा देर तक गुलाल के स्किन से चिपके रहने से कैंसर का खतरा भी रहता है।

खतरे के कारण

चलनी से छानने से लेकर गुलाल में सेंट मिलाने और फिर उसे भरने के कार्य तक मजदूर को मुंह, नाक या कान ढकने का कोई साधन नहीं दिया जाता। जिससे बनाने के दौरान गुलाल सांस के जरिये मजदूरों के शरीर में जाता है। इसके उड़ते कण कान, नाक के जरिए शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।

मजदूर सुरेन्द्र के मुताबिक लगभग आठ घंटे तक गुलाल बनाने का काम चलता है। काम खत्म होने के बाद कभी उन्हें सांस लेने में परेशानी, कान दर्द या फिर कोई और बीमारी हो जाता है। मजदूर के मुताबिक दो महीने की कमाई तो हो जाती है, लेकिन उसका एक चैथाई हिस्सा दवाईयों पर खर्च भी हो जाता है।

इनके इस्तेमाल से बनाता है गुलाल

स्किन स्पेशलिस्ट डॉ हेमंत मोहन बताते है कि होली के रंग और गुलाल में कैमिकल्स का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। गुलाल बनाने में आरारोट के साथ लेड और डोलामाइट पाउडर मिलाया जाता है। पर्पल कलर के लिए पोटैशियम परा मैंग्नेट, गुलाबी के लिए पोटैशियम मैग्नेट, हरे रंग के लिए क्यूप्रस सल्फेट और नीला रंग बनाने के लिए लेड कार्बाइड का इस्तेमाल होता है।

ग्रामीण इलाकों में होता है तैयार

जनपद के चकेरी, नौबस्ता आदि इलाकों में बड़े पैमाने पर गुलाल बनाए जाने का काम किया जाता है। यशोदानगर ग्रामीण इलाके के गोपाल नगर के साथ कई ऐसे गांव है जहां इन दिनों होली के लिए अबीर और गुलाल बनाने का काम तेजी से चल रहा है। जगह-जगह लाल, हरे, बैंगनी, पीले और गुलाबी गुलाल बड़े पैमाने पर तैयार कर शहर के साथ बाहर बाजारों में भेजे जाते हैं।

गुलाल का काम करने वाले प्रमोद पांडे का कहना है कि गुलाल बनाने का काम जनवरी माह से शुरू किया जाता है। पूरा काम होली से दो दिन पहले तक चलता है। उन्होेंने बताया कि गुलाल बनाने के लिए वह दिसंबर माह से सामग्री इकठ्ठा करने लगते है।

इस तरह तैयार होता है गुलाल

गुलाल बनाने में आरारोट के अलग-अलग ढेर बनाकर उनमें कच्चा रंग पानी की मदद से मिलाया जाता है। फिर उसे करीब 4-5 घंटे तक धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस कच्चे माल को मशीन में डालकर उसे अच्छी तरह मिलाया जाता है। मशीन से निकलने के बाद उसे एक बार फिर फैलाकर सुखने के लिए 1-2 दिन छोड़ दिया जाता है।

आखिर में खुशबू के लिए सेंट डालते है, फिर उसे मजदूर भाई खूब अच्छी तरह से मिलाते है। इसके बाद इसे महिलाएं चलनियों से चालती है। गुलाल को बोर में भरने का काम पुरुष मजदूर करते हैं।

कारोबार से जुड़े प्रमोद के मुताबिक एक दिन में करीब 40-50 बोरी गुलाल तैयार कर लिया जाता है। इसके बाद इसकी सप्लाई शहर के होलसेल विक्रेताओं को कर दी जाती है, जहां से इसके 100 ग्राम से लेकर पांच किलो तक के पैकेट तैयार कर फुटकर मार्केट में भेजा जाता है।

खेलते समय बरते सावधानी

बच्चे जब रंग या गुलाल से खेलें तो बड़ों को पास में ही रहना चाहिए। अगर रंग या गुलाल से खुजली होने लगे तो ठंडे पानी से धो लेना चाहिए। एलर्जी हो तो वहां रगड़े न। उस जगह पर क्रीम या कोकोनट ऑइल लगाएं। उसके बाद भी अगर एलर्जी काम ना हो तो किसी डाक्टर से दिखाकर ही दवा लें। मगर सबसे ज्यादा जरुरी है कि रंग या गुलाल खेलने के पहले अपने शरीर में नारियल तेल या क्रीम जरूर लगाएं।