सूखे केले के पत्ते पर आसन लगाकर बैठकर कमल गटटे की माला से जप प्रारंभ किया जाए जप के समय सरसों के तेल का दीपक जलते रहना चाहिए जिस व्यक्ति को जप करना हो उसे लाल या पीला वस्त्र पहनकर 21 दिन तक ब्रह्मश्चर्य का पालन करना चाहिए।
प्रथम दिन 1000 जप करें द्वितीय दिन से अंतिम 21वें दिन तक दो-दो हजार मंत्र के जाप करें जप काल में प्रतिदिन केले का पूजन करें। भोग के रूप में पीले पेडे का प्रयोग करना चाहिए जप के अंतिम दिन हवन तर्पण कर 21 ब्राम्हणों को भोजन कराना चाहिए।
मंत्र
कात्यायनी महामाये, महा योगिन्य अधिश्वरी ।
नन्द गोप सुतां देवी पतिम् में कुरूते नम: ।।
मां का स्मरण – मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूं। उनके श्री अंगों की आभा प्रभातकाल के सूर्य के समान है और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है। वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रों से युक्त है। उनके मुख पर मुस्कान की छटा छायी रहती है और हाथों में वरद् अंकुश, पाश एवं अभय-मुद्रा शोभा पाते हैें।
ऋषि कहते हैं – देवी द्वारा वहां महादैत्याधिपति शुम्भ के मारे जाने पर, इन्द्र आदि देवता अग्निदेव को सम्मुख करके उन ‘कात्यायनी’ देवी की स्तुति करने लगे। उस समय अभिष्ट की प्राप्ति होने से उनके मुखमंडल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएं भी जगमगा उठी थी।
देवता बाले शरणागत की पीडा दूर करने वाली देवि! हम पर प्रसन्न रहे। संपूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न रहो। विश्वेश्वरी! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो। तुम इस जगत का एक मात्र आधार हो, क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। देवि! तुम्हारा पराक्रम सर्वोच्च है। तुम्हीं जल में स्थित होकर संपूर्ण जगत को तृप्त करती हो। तुम अनन्त बल संपन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्व की कारण भूता ‘परा’ माया हो।
देवि! तुमने इस समस्त जगत को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो। देवि! संपूर्ण विद्याएं तुम्हारे ही भिन्न भिन्न स्वरूप हैं। जगत में जितनी स्त्रियां हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। जगदम्ब! एक मात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परावाणी हो।
बुद्घि रूप में सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है। नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने में समर्थ मंगलमयी हो। कात्यायनी! यह तीन नेत्रों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख्य सब भयों से हमारी रक्षा करे तुम्हे नमस्कार है। हे भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाला अत्यंत भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाए।
तुम्हें नमस्कार है। देवि की त्रिगुणमयी स्वरूप का आकलन करते हुए मार्कन्डेय ऋषि कहते हैं कि – महालक्ष्मी ही प्रकृति का आरिकारण है। वे ही इस दृश्य और अदृश्य विश्व में व्याप्त हैं।
महालक्ष्मी जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुण रूपी उपाधि के द्वारा एक उत्कृष्ट रूप धारण किया हैं वह एक नारी के रूप में प्रकट हुआ जिसके शरीर की कांति निखरे हुए काजल की भांति काले रंग की थी। उन तामसीदेवी जो स्त्रियों में श्रेष्ठ है महालक्ष्मी से कहा कि माताजी! आपको नमस्कार है।
मुझे मेरा कर्म बताइए। तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूं और जो तुम्हारे कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूं। महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा काल रात्रि तथा दुरत्यया ये तुम्हारे नाम हैं जो कर्मों के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों द्वारा तुम्हारे कर्मों को जानकर जो उनका पाठ करता है वह सुख भोगता है महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यंत शुद्घ सत्वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौर वर्ण का था।
वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अंकुश वीणा तथा पुस्तक धारण किए हुए थी। महालक्ष्मी ने उन्हें भी नाम प्रदान किए महा विद्या महावाणी, भारती वाक सरस्वती, आर्या, ब्राम्हनी कामधेनु वेदगर्भा और धीश्वरी ये तुम्हारे नाम होंगे।
महालक्ष्मी ने महाकाली और महा सरस्वती से कहा देवियों! तुम अपने दोनों अपने अपने गुणों के योग्य स्त्री पुरूष के जोडे उत्पन्न करो। उन दोनों से यह कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री पुरूष का एक जोड़ा उत्पन्न किया जिसमें एक स्त्री थी दूसरा पुरूष था। महालक्ष्मी एक को ब्रम्हा तथा दूसरी स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यदि नाम से पुकारा।
इसके बाद महाकाली और महालक्ष्मी ने भी एक एक जोडा उत्पन्न किया। विष्णु, कृष्ण, ऋषिकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए। स्त्री में उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा और शिवा इस प्रकार सरस्वती ब्रम्हा के लिए रूद के लिए गौरी तथा भगवान वासुदेव को लक्ष्मी दे दी गई।
इस प्रकार सरस्वती के साथ मिलकर ब्रम्हाजी ने ब्रम्हाण्ड को उत्पन्न किया भगवान रूद ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया। भगवान विष्णु ने लक्ष्मी के साथ मिलकर जगत का पालन पोषण किया। प्रलय काल में गौरी के साथ मिलकर रूद्र ने जगत का संहार किया।
इस प्रकार महालक्ष्मी ही सभी सत्वों की अधीश्वरी है। वे ही संसार के जोडे उत्पन्न करती है। अस्तु।
स्त्रोत : डॉ. राधेश्याम शर्मा ज्योतिषाचार्य