काम ओर क्रोध को भस्म करने वाला तथा हर्ष और उल्लास को बढाने वाला होता है फाल्गुन मास। माघी पूर्णिमा से ही फाल्गुन मास की शुरुआत हो जाती है तथा धार्मिक मान्यता के अनुसार होली का डांडा रोप दिया जाता है। होली के आठ दिन पुर्व होलाष्टक प्रारंभ हो जाते हैं ओर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली का दहन होता।
फाल्गुन मास आते ही शीत ऋतु का असर कम हो जाता है तथा हवाएं शरीर को सुकून देने लगती है और मन में अनजानी मस्ती छाने लगती है। दिल ओर दिमाग से काम और क्रोध की भावना खत्म होने लगती है।
दिल अनजाने व मस्तीले प्रेम की ओर बढता है। नफरत प्यार में बदलने लग जाती है। बच्चे, वृद्ध, नारी और नर, क्या मित्र और क्या दुश्मन सभी मिलकर प्रकृति के आनंद का लुफ्त उठाते हैं।
फाल्गुन मास आते ही कृष्ण कन्हैया की बड़ी याद आने लगती है। वृन्दावन में कान्हा की बड़ी धमाल, गोपियों के साथ नाच गान और रास लीला तथा अपने सखाओं के साथ बरसाने जाकर राधा को जबरदस्ती रंग गुलाल लगाना। एक दूसरे पर हास्य रस की टिप्पणिया करना, छेड़खानी कर अठखेलिया करना। यह सब कुछ बातें फाल्गुन मास के आते ही कृष्ण की याद दिलाने लग जाती है।
फाल्गुन उत्सव की शुरुआत आदिकाल से ही चली आ रही है। द्वापर युग में कृष्ण ने इस उत्सव का लुफ्त उठाने के लिए सभी को प्रेरित किया ताकि विभिन्नता में एकता की आवाज सुनाई दे।
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि राजन फाल्गुन मास में अपने राज्य की जनता को स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान करना चाहिए ताकि हर अच्छे व बुरे विचार सामने आ जाएं जिससे राज्य की कइ तरह की समस्या का समाधान निकल आए। विचारों से किसी की पहचान ना हो इसलिए रंग गुलाल लगा कर अपना हुलिया बदल लें।
फाल्गुन उत्सव में अनाप शनाप शोर मचाकर, नाच गाने करके प्रकृति के सारे वातावरण की ऊर्जा का विकेन्द्रीकरण कर चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण बनाया जाता था क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि इस मास मे प्रकृति की ऊर्जा नीचे से ऊपर की ओर चलती है अर्थात सूर्य का उत्तरायण हो रहा है।
अतः नाच गाने से मानव के शरीर की ऊर्जा भी प्रकृति के साथ नीचे से ऊपर की ओर चले ओर मानव शरीर में पंचमहाभूतों का अनुकूल संतुलन बना रहे वह भी बिना दिमाग पर जोर दिए।
फाल्गुन उत्सव, एक धार्मिक कथा के कारण ही प्रचलन मे आया। श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजन ढोंढा नाम की एक राक्षसी ने शिवजी की कठोर तपस्या कर किसी से भी नहीं मरने तथा न ही डरने का वरदान मांगा। शिवजी ने कहा केवल “तुम्हे उन्मत्त बालको से भय होगा”।
इस वरदान के कारण ही वह राक्षसी रोज बालको व प्रजा को पीड़ा देती थी। युधिष्ठिर इससे बचने के लिए सभी प्रजा को निडर होकर क्रीडा करनी चाहिए ओर नाचना, गाना तथा हंसना चाहिए।
लकडियां, सूखे पत्ते, उपले इकट्ठे कर उसमे आग लगाकर, हंसकर तालियां बजानी चाहिए। जलती हुई आग की ढेरी के तीन परिक्रमा कर बच्चे, बूढ़े सभी आनन्द पूर्वक विनोदपूर्ण वार्तावार्तालाप करें तो उस राक्षसी से भय खत्म हो जाता है।
भविष्य पुराण की इस मान्यता को विज्ञान भले ही अन्धविश्वास माने लेकिन धर्म व संस्कृति में यह सदा जीवित रहेगी।
सौजन्य : भंवरलाल