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कानपुरियों के लिए होली से ज्यादा खास है गंगा मेला - Sabguru News
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कानपुरियों के लिए होली से ज्यादा खास है गंगा मेला

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कानपुरियों के लिए होली से ज्यादा खास है  गंगा मेला
kanpur people celebrate ganga mela after holi festival
kanpur people celebrate ganga mela after holi festival
kanpur people celebrate ganga mela after holi festival

कानपुर। होली के कुछ दिनों बाद कानपुर में होने वाले गंगा मेला की अपनी ही खासियत है। यह कानपुर का मशहूर त्यौहार है जिसकी रौनक देखते ही बनती है। पूरे शहर में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस त्यौहार पर समस्त कानपुरवासी गंगा किनारे एकत्र होते हैं और पूजा अर्चना करते हैं उसके बाद सिलसिला शुरू होता है रंग खेलने का।

वर्षों पुरानी है गंगा मेला की परम्परा

यह बात उस समय की है जब अंग्रेजों का शासन था और कानपुर क्रांतिकारियों की कर्मस्थली हुआ करता था। चन्द्रशेखर आजाद व अन्य क्रान्तिकारी यहाँ अपना अज्ञातवास काटने आते थे। शहर के तमाम प्रबुद्ध लोग राजनीतिक चेतना की अलख जगाने में लगे हुए थे। गणेश शंकर विद्यार्थी भी यहां अक्सर बैठकें करते थे।

’झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ के रचयिता श्यामलाल गुप्ता पार्षद के साथ तमाम व्यापारी और उद्योगपति भी क्रान्तिकारियों की भरपूर मदद करते और पनाह भी देते थे। इस कारण अंग्रेजों की नजर क्रांतिकारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं व शुभचिंतकों पर डटी रहती थी। जहां कहीं आठ-दस व्यापारियों व संभ्रान्त नागरिकों की बैठक होती पुलिस वहां आ धमकती।

एक साथ एकत्र हुए सभी सम्‍मानित लोग

यह बात सन् 1925 की है, होली का दिन था। रात को होली जलाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। व्यापारियों, साहित्यकारों व प्रबुद्ध नागरिकों की एक बैठक बुलाई गई जिसमें शहर के आठ बड़े गणमान्य व्यक्ति जो कि ‘हटिया बाजार’ से संबद्ध थे जिनमें गुलाब चंद सेठ, बुद्धुलाल महरोत्रा, हामिद खां, जागेश्वर त्रिवेदी, बालकृष्ण शर्मा (नवीन), रघुवर दयाल, श्यामलाल गुप्ता (पार्षद) और पं मुंशीराम शर्मा (सोमजी) होलिका दहन की तैयारी में शामिल थे।

अंग्रेजी हुकूमत को जब इस बात की जानकारी हुई तो तुरंत हरकत में आ गई, आखिरकार शहर के इतने बड़े नाम एकसाथ एकत्र क्यों हो रहे हैं। पुलिस पहुंची और सभी को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप लगाकर सरसैया घाट के पास वाली जेल में डाल दिया गया और त्योहार बीत जाने के आठ दिन बाद छोड़ा गया।

उस दिन ‘अनुराधा नक्षत्र’ भी था। शहर के लोगों ने बाजार व प्रतिष्ठान तैयारियों के मद्देनजर बंद कर रखे थे और उनकी अगवानी के लिए जेल के बाहर हजारों की संख्या में व्यापारी समुदाय मौजूद था।

अलग रंग होता है कानपुर का

जेल से रिहा होने के बाद इन सबको सरसैया घाट स्नाने के लिए ले जाया गया। उस दिन सरसैया घाट के तट पर गुलाल लगाकर खेली गई। तभी से होलिका दहन से लेकर किसी भी दिन पड़ने वाले ‘अनुराधा नक्षत्र’ की तिथि तक कानपुर में होली खेली जाती है। अनुराधा नक्षत्र के दिन कानपुर का रंग कुछ और ही दिखाई देता है।

धर्म, जाति, वर्ग, अमीर-गरीब की दीवारें गिर जाती हैं और दोपहर तक पूरा शहर होली में सराबोर हो जाता है। इसके उपरांत आज भी शाम के समय सरसैया घाट के तट पर ही उन आजादी के मतवालों की याद को जिंदा रखते हुए शहरवासी होली गंगा मेला मिलन समारोह का वृहद आयोजन करते हैं।

पूरा शहर होता है शामिल

इस होली की अगुवाई कालांतर में सेठ गुलाबचंद किया करते थे और अब उनके बाद वह कमान उनके पुत्र 78 वर्षीय सेठ मूलचंद (मुल्लू बाबू) ने यह बागडोर संभाल रखी है। प्रत्येक वर्ष हटिया बाजार ही मेले की तिथि को घोषित करता है और मेले में पूरा शहर शामिल होता है।

शासन, प्रशासन, व्यापारी और प्रबुद्ध वर्ग के साथ सामाजिक संगठन एवं आम शहरी भी मेले में अपनी भागीदारी निभाते हैं। यह एक ऐसा लोकोत्सव है जिसमें सही मायने में पूरा शहर शामिल होता था। अफसोस की बात है कि आजकल लोग इस परम्परा के पीछे के इतिहास को भूलते जा रहे हैं।