जयपुर। राजस्थान बीजेपी में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाडी के बीच चल रहा शीत युद्ध पूरे परवान पर है। पार्टी आलाकमान की ओर से दिए गए अनुशासनहीनता के नोटिस का एक और जवाब तिवाडी ने सार्वजनिक करते हुए पार्टी नेताओं को भी कटघरे में खडा कर दिया है। तिवाडी ने आलाकमान को भेजे खुले पत्र में चुनौती देते हुए कहा है कि अब वे अपने कदम पीछे खींचने वाले नहीं है। वे पार्टी हित में राजे का विरोध करते रहे हैं और करते रहेंगे।
आलाकमान को पीछे पत्र का मूल सार इस प्रकार है
प्रिय श्री गणेशीलाल जी,
आपने जवाब मांगा था। एक प्रश्न का जवाब तो दे ही चुका हूं। इस पत्र के माध्यम से बाक़ी दो का और भेज रहा हूं।
योगिराज भर्तृहरि नें नीतिशतक में लिखा है
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥
नीति में तथाकथित निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा। लक्ष्मी आए या इच्छानुसार चली जाये। आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के पथ से अपने कदम नहीं हटाते।
यह मेरे जीवन का ध्येयवाक्य है। जीवन में सदैव मेरा प्रयास रहा है कि, जितनी भी मेरी समझ है, न्याय के पथ पर चलूँ और चाहे कितने भी झंझावात आएँ न्यायके पथ पर से डिगूं नहीं। मेरे 50 वर्ष के सार्वजनिक जीवन की तपस्या को आपने अपने कठघरे में खड़ा किया है।
वैसे तो आजकल, सर्व-दल समभाव के इस युग में जब पार्टियों और विचारधाराओं का अंतर ही समाप्त होता जा रहा है, जब सबके दरवाज़े सब तरफ़ खुले हैं, इस प्रकार के नोटिस को कोई गम्भीरता से नहीं लेता। लेकिन मैंने जीवन भर ध्येयनिष्ठा से काम किया है, राजनीति को भी विचारधारा को आगे बढ़ाने का एक मिशन मान कर काम किया है, इसलिए मैंने इस नोटिस को बहुत गम्भीरता के साथ लिया है। इसलिए मैं इसका समुचित जवाब देना भी आवश्यक समझता हूं।
आपने कहा कि मैं पार्टी के ख़िलाफ़ गतिविधियां और बयानबाज़ी कर रहा हूं। मैं इस आक्षेप को सिरे से नकारता हूं। लेकिन राजस्थान में जो वास्तव में अनुशासनहीन है, जिन्हें पार्टी में देश भर में अनुशासनहीनता की महारानी भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनसे सम्बंधित कुछ तथ्य आपके सामने रख कर मांग करता हूं कि राजस्थान की मुख्यमंत्री पर पार्टी अनुशासनहीनता की कार्रवाई करे।
वैसे तो ये मुख्यमंत्री लगभग हर हफ़्ते ही अनुशासनहीनता करती हैं। इनका पूरा कार्यव्यवहार ही संगठन, विचारधारा, कार्यकर्ताओं, स्वतंत्र मीडिया, और जनता की तौहीन करने का है। लेकिन कुछ बड़े किस्से आपके ध्यान में ला दूं। साल 2014 में मोदीजी के प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह की गरिमा को धूमिल किए जाने का मुख्यमंत्री का प्रयास
अनुशासनहीनता के नोटिस पर घनश्याम तिवाडी का आलाकमान को तल्ख जवाब
भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी का अपनी ही सरकार पर आरोप
बीजेपी से रूठे घनश्याम तिवाडी ने दिखाई ताकत, पार्टी नेतृत्व पर बरसे
मोदीजी के शपथग्रहण समारोह के समय, जिसे हम अखंडभारत कहते हैं, उसके कई राष्ट्राध्यक्ष उपस्थित थे। 2014 के चुनावों में भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई थी। पार्टी का प्रत्येक कार्यकर्ता उस समय गर्व महसूस कर रहा था। पार्टी के लोगों का जनसंघ के समय का देखा हुआ स्वप्न पूरा होने जा रहा था। ऐसे ही समय के लिए मेरे जैसे हज़ारों कार्यकर्ताओं नें देश भर में दिन-रात एक कर चार दशकों तक काम किया था।
आप ही बताइए — क्या आपका सीना भी उस दिन गर्व से नहीं फूला था? ऐसे ऐतिहासिक दिन पर अपने एक तुच्छ निजी स्वार्थ के कारण मुख्यमंत्री ने राजस्थान के सांसदों को बीकानेर हाउस में ले जा कर बैठा लिया। राजस्थान में हर हफ़्ते की जाने वाली अपनी नौटंकी इन्होंने वहाँ भी प्रारम्भ कर दी। सांसदों पर दबाव डाल कर उन्हें प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में जाने से रोका।
राजस्थान से कोई भी मंत्री बनने के लिए तैयार न हो, इसके लिए सांसदों को धमकाया तक गया। केंद्रीय नेतृत्व ने किसी तरह व्यवस्था कर श्रीमान निहालचंद को मंत्री बनाया। इस घटनाक्रम की मुझसे बेहतर जानकारी केंद्र के लोगों को होगी, उनसे ज़रा पूछ लीजिए कि और क्या-क्या हुआ था।
उस ऐतिहासिक शपथग्रहण समारोह की छवि को धूमिल करने के प्रयास के बाद भी ये रुकी नहीं। प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल की छवि को देश भर में ख़राब करने के लिए इन्होंने निहालचंद के ख़िलाफ़ एक पुराने मुक़द्दमे को राजस्थान में चालू करवा दिया। देश भर के न्यूज़ चैनल्स पर इस बाबत ख़बरें आने लगीं। अंत में स्वयं प्रधानमंत्री को निहालचंद को अपने पास बुला कर क्लीनचिट और अभयदान देना पड़ा।
इसी के साथ इस प्रकार के सार्वजनिक बयान इन्होंने दिए कि दिल्ली में स्थित बीकानेर हाउस में प्रधानमंत्री के कार्यालय (PMO) से भी बेहतर राजस्थान के मुख्यमंत्री का कार्यालय (CMO) बनाएंगी। अब इसका क्या तुक है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री का CMO दिल्ली प्रदेश में बने?
राजस्थान में इन्होंने प्रधानमंत्री को इंगित करते हुए सार्वजनिक रूप से भाषण दिए कि अगर कोई यह सोचता है कि चुनावों में यह अपूर्व सफलता किसी एक आदमी की वजह से मिली है, तो उसे दुबारा सोचना चाहिए।
मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह के समय की गई धृष्टता केवल मोदीजी और पार्टी की मर्यादा के ही नहीं विदेशों से आए राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी के कारण देश तक के सम्मान के ख़िलाफ़ आचरण था।
राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह से पूछ लीजिए, केंद्र के अन्य सभी वरिष्ठ नेताओं से पूछ लीजिए — इस प्रकार का मुख्यमंत्री का यह कृत्य पार्टी के कौन से अनुशासन की श्रेणी में आता है? क्या केंद्र को उसी समय इस मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी? मैं पूछना चाहता हूं कि आपने इस पर तब क्या कार्रवाई की? मुझ पर तो आप जैसी मर्ज़ी आए अनुशासन की कार्रवाई कर लेना पर इस पत्र के माध्यम से राजस्थान के मूल भाजपा के कार्यकर्ता और संघ के लोग मुख्यमंत्री पर अनुशासन की कार्रवाई की आपसे मांग कर रहे हैं।
जब ललित मोदी कांड सामने आया तब फिर आपको एक अवसर मिला था। पूरे देश में पार्टी की छिछालेदार हुई। तथ्यों के साथ मनी-लांड्रिंग के गम्भीर आरोप लगे। कुछ लोगों द्वारा यहां तक कहा गया कि लंदन की अदालत में हस्ताक्षर करके दिया गया इनका शपथ-पत्र देशद्रोह की श्रेणी में आता है। लेकिन इन पर आपने कोई कार्रवाई नहीं की। क्यों?
अनुशासन की तरह क्या भ्रष्टाचार और देशभक्ति के भी अब दो पैमाने बन गए हैं? राजस्थान के कार्यकर्ता जानना चाहते हैं कि आख़िर वह कौन सी मजबूरी है कि इतना सब होने के बावजूद भी आप कोई कार्रवाई राजस्थान की मुख्यमंत्री पर नहीं कर रहे?
2012: कटारियाजी के साथ हुए विवाद में अनुशासनहीनता की महारानी ने मीडिया के सामने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़े की घोषणा की और समर्थकों के इस्तीफ़े दिलवाए।
मई 2012 में कटारिया ने अपनी एक छोटी सी यात्रा की बात क्या कर दी इस अनुशासनहीनता की महारानी ने पार्टी की बैठक से बाहर आ कर सारे मीडिया के सामने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़े की घोषणा कर दी। ख़ुद के समर्थन में प्रदेश भाजपा के नेताओं से इस्तीफ़े दिलवा दिए। ये पार्टी का अनुशासन है? आपको यह सब दिखाई नहीं दे रहा था? न दिखा हो तो कोई बात नहीं, अब देख लीजिए और कार्रवाई कीजिए। क्या ये पर्याप्त कारण नहीं है? और अगर ये कारण पर्याप्त नहीं हैं तो फिर और कौन से कारण अनुशासनहीनता की श्रेणी में आते हैं।
2008 में इन्होंने पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्णय के ख़िलाफ़ काम किया, सार्वजनिक रूप से पार्टी के नेताओं की तौहीन की। ख़ुद के पक्ष में पार्टी के लोगों के इस्तीफ़े दिलवाए। इसके बावजूद पार्टी ने इन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से नवाजा। उस समय पार्टी से इस्तीफ़े देने वाले आज इनकी कैबिनेट तथा आपकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की शोभा बढ़ा रहे हैं।
2008 में पार्टी इसी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में चुनावों में गयी जिसमें करारी हार का सामना करना पड़ा था। चुनावों में हुई इस पराजय के बाद राजनाथसिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष के कार्यकाल के समय पार्लियामेंट्री बोर्ड ने इन्हें प्रतिपक्ष के नेता पद से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा। इन्होंने पार्लियामेंट्री बोर्ड की बात को न केवल नहीं माना बल्कि सार्वजनिक रूप से उसके निर्णय के ख़िलाफ़ काम प्रारम्भ कर दिया।
इनसे इस्तीफ़ा मांगा गया लेकिन इन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया। जब पार्टी द्वारा दबाव डाला गया तो बात को घुमाने के लिए शर्त रख दी कि पहले तत्समय के प्रदेश अध्यक्ष श्रीमान ओमप्रकाश माथुर को हटाया जाए। ओमप्रकाश माथुर ने पार्टी के कहने पर त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद भी इन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया।
पार्टी ने फिर दबाव बनाया तो इन्होंने एक नई शर्त रख दी कि पार्टी के प्रदेश संगठन महामंत्री प्रकाशचंद (जो संघ के प्रचारक हैं) को हटाया जाए तब वे इस्तीफ़ा देंगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मेरठ में हुई बैठक में प्रकाशचंद को भाजपा से वापस बुला लिया गया। इसके बावजूद इन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया बल्कि घोर अनुशासनहीनता करते हुए दिल्ली में विधायकों की परेड कराने की घोषणा कर दी।
उस समय केंद्र से मुझे सुबह फ़ोन करके कहा गया कि विधायकों को इनके साथ जाने से रोकिए केंद्रीय नेतृत्व आज इनको पार्टी से निकालने का निर्णय करेगा। रात को 11 बजे मेरे पास पुनः केंद्र से संदेश आया कि विधायकों से अब बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है, वंकैया नायडू इनसे माह के अंत तक पार्लियामेंट्री बोर्ड के पूर्व के निर्णय के अनुसार प्रतिपक्ष के नेता पद से इस्तीफ़ा ले लेंगे।
महीने के आख़िर तक भी जब इन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया तो सुषमा स्वराज को इनसे इस्तीफ़ा लेने की ज़िम्मेदारी दी गई। उनके कहने से भी इन्होंने अपना इस्तीफ़ा नहीं दिया। बल्कि इसके विपरीत पार्लियामेंट्री बोर्ड के निर्णय को धत्ता बताते हुए और केंद्रीय नेताओं की अवमानना करते हुए दिल्ली में विधायकों की परेड कराई। जो विधायक उस समय पार्टी के ख़िलाफ़ इस प्रकार की गम्भीर अनुशासनहीनता करके इनके साथ थे वे आज सभी इनके मंत्रिमंडल में मंत्री हैं।
इस परेड के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि जब तक राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष हैं तब तक मैं इस्तीफ़ा नहीं दूंगी। बाद में जब नितिन गड़करी अध्यक्ष बने तो इन्होंने इस समझौते के साथ प्रतिपक्ष के नेता पद से इस्तीफ़ा दिया कि राजस्थान में पार्टी प्रतिपक्ष के नेता पद का स्थान ख़ाली रखेगी।
उस समय उपनेता प्रतिपक्ष होने के कारण 15 माह तक मैं कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष के रूप में विधानसभा में काम करता रहा। सड़कों पर पार्टी के लिए लड़ाई लड़ता रहा। और 15 माह पश्चात केंद्र द्वारा इन्हें वही पद प्रदान कर दिया गया जिसका इस्तीफ़ा लिया गया था। इन्हें राजस्थान में पुनः नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया।
यह घोर अनुशासनहीनता के लिए इन्हें पार्टी के द्वारा दिया गया पुरस्कार था। गडकरी जब अध्यक्ष पद से हटे तो जाते-जाते उन्होंने इन्हें पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। राजनाथ सिंह ने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष के अंतिम निर्णय को बदलना उचित नहीं समझा। इस प्रकार दूसरे राज्यों से आए कुछ केंद्रीय नेताओं को इन्होंने बड़े ही तरीक़े से मैनेज किया (आप तो समझते है हैं कि इनका यह मैनजमेंट किस प्रकार का है) और पार्टी अनुशासन के सारे पैमाने तोड़ कर ये राजस्थान की पुनः अध्यक्ष बन कर आ गई।
हम लोग यहां पार्टी के लिए काम करते रहे, सड़कों पर उतर-उतर कर आंदोलन करते रहे। ये इस्तीफ़ा देने के बाद लंदन में आराम फ़रमाती रहीं और फिर जब चुनावों का समय नज़दीक आया तो सारी मर्यादाओं के विपरीत आचरण करने के बावजूद यहां के अध्यक्ष पद से नवाज़ दी गईं। आप ही बताइए पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड की खुल्ली अवहेलना, केंद्रीय नेताओं को धत्ता बता कर रखना, पूरी पार्टी को गिरवी रख लेना ये सब कौन से अनुशासन की श्रेणी में आते हैं? और मुझे किस आधार पर आपने नोटिस दिया है?
आप मुझे कह रहे हैं कि मैं एक समानांतर दल खड़ा करने का प्रयास कर रहा हूं? 2012 मैं समानांतर दल खड़ा करने का प्रयास इस अनुशासनहीनता की महारानी ने किया था। राष्ट्रीय समाचार पत्रों में इस बाबत ख़बरें छपीं। संलग्न करके भेज रहा हूं जरा अवलोकन कर लीजिए। जहाँ तक मेरे काम का प्रश्न है दीनदयाल स्मृति संस्थान 28 वर्ष पहले की रजिस्टर्ड संस्था है। हम दीनदयालजी का ही यहां काम कर रहे हैं और करते रहेंगे। किसी से पूछ कर काम चालू नहीं किया था किसी के दबाव में बंद नहीं होगा।
सम्भव है पार्टी और विचार के प्रति मेरी निष्ठा और समर्पण के बारे में आपको ध्यान न हो। पार्टी और विचार तो बड़ी बात है मैंने अपने वरिष्ठ नेताओं के केवल सुझावमात्र पर मुझे केंद्र द्वारा दी गई राज्यसभा की टिकट छोड़ दी थी, राजस्थान में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ दिया था तथा 1977 में 28-29 वर्ष की आयु में मिली विधान सभा की टिकट छोड़ दी थी।
राज्यसभा की मिली हुई टिकट मैंने अपने से बड़ों के केवल एक बार कहने मात्र से छोड़ दी थी। मुरलीमनोहर जोशी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के समय मुझे पार्टी ने राज्यसभा का प्रत्याशी बनाने का निर्णय लिया था। इसकी सार्वजनिक घोषणा हो गई थी और नामांकन के दिन मैं टीका लगा कर घर से फ़ार्म भरने के लिए विधानसभा के लिए निकल भी गया था।
मुझे संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक और स्व. भैरोंसिंह शेखावत ने कहा कि तुम्हारी राजस्थान में आवश्यकता है, तुम ये टिकट छोड़ दो। मैंने एक बार भी प्रश्न नहीं किया और मेरे हाथ में रखी हुई राज्यसभा की टिकट मैंने अपने से बड़ों के कहने के कारण छोड़ दी। इस टिकट पर शिवचरण सिंह गुर्जर राज्यसभा में गए। इसके साक्षी डा. मुरली मनोहर जोशी हैं जो तत्समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। आप उनसे जानकारी कर सकते हैं।
राजस्थान का पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ा
प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष के चुनाव थे। मेरे साथ पूर्ण बहुमत था। तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे तथा तत्कालीन संगठन महामंत्री गोविंदाचार्य ने मुझे पार्टी के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष के लिए नामित किया था और मैंने नामांकन दाख़िल भी कर दिया था। मुझे संघ कार्यालय बुला कर स्व. लक्ष्मणसिंह जी तथा हस्तिमलजी नें कहा कि आपके साथ पूरा बहुमत है लेकिन प्रदेश में अध्यक्ष के चुनाव होंगे तो उसका अच्छा संदेश जनता में नहीं जाएगा।
पार्टी हित में आप अपना नाम वापस ले लें। चार माह के लिए भंवर लाल शर्मा को अध्यक्ष बनाते हैं उसके बाद आपको मनोनीत कर देंगे। मैंने संघ के वरिष्ठ लोगों की बात स्वीकार करके अपना नामांकन वापस ले लिया। गोविंदाचार्य इसके साक्षी हैं। मुझे कहे जाने के बावजूद भी कभी अध्यक्ष नहीं बनाया गया।
1977 में सीकर से मिली विधायक की पार्टी टिकट छोड़ दी
1977 में जनता लहर में मुझे विधायक का चुनाव लड़ने के लिए पार्टी द्वारा टिकट दी गई थी। संघ के तत्समय प्रांत प्रचारक स्व. सोहनसिंह के नाम पर तत्कालीन ज़िला प्रचारक के कहने पर मैंने अपनी टिकट वापस कर दी। 1977 की जनता लहर में मिली हुई टिकट वापस करने वाला मैं एकमात्र व्यक्ति था।
क्या यह मेरी भूल रही कि राजनीति में अपने से बड़ों की बात को मैंने सम्मान दिया और निष्ठापूर्वक जीवन जिया? कि पार्टी और विचारधारा के हित को सदैव स्वयं के हित के आगे रख कर काम किया? देर से ही सही, मैं अपना सबक़ अब ले रहा हूं।
आपातकाल में मेरा जीवन तक दांव पर लग गया था
पार्टी और विचार के लिए आपातकाल में मैंने अपना जीवन तक दांव पर लगा दिया था। जिस बेरहमी के साथ मुझे पुलिस द्वारा मारा गया और यातनाएं दी गईं, मुझे पुलिस वालों नें टोर्चर किया और फिर मरा हुआ समझ कर ट्रेन के एक खाली डिब्बे में फेंक गए। उसके ख़िलाफ पूरे भारत में स्व. जयप्रकाश नारायण सहित जेलों में बंद नेताओं नें जेल में 2 दिन का अनशन किया। भाजपा के सांसद गुमानमल लोढ़ा ने इसका विवरण अपनी पुस्तक “हे पार्थ, प्रण पालन करो” में किया है, ज़रा पढ़ लीजिए।
अपने जीवन को दांव पर लगाने की बात छोड़िए, मैं आपसे पूछता हूं कि इस अनुशासनहीनता की महारानी, जिसके प्रभाव में आपने मुझे नोटिस भेजा है, उस से आप क्या ऐसी कोई आशा कर सकते हैं कि वह कोई छोटी सी भी चीज अपने वरिष्ठ लोगों के कहने पर त्याग दे?
इस अनुशासनहीनता की महारानी की राजस्थान में जीत के बारे में अगर कोई ग़लतफ़हमी हो तो वह भी स्पष्ट कर लीजिए। दोनों बार जब यह जीती है तो ख़ुद के काम से नहीं जीती, दूसरे के विरोध की लहर पर जीती है। 2003 में तत्समय की कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ राजस्थान में असंतोष था।
उस असंतोष की लहर और इनका राजस्थान में नया चेहरा होना, साथ ही भाजपा के कार्यकर्ताओं और सहयोगी संगठनों के द्वारा जमीनी स्तर पर लगातार किया गया काम इनकी जीत का कारण बना। 2013 में दूसरी बार जब ये जीतीं तब केंद्र की UPA सरकार के ख़िलाफ़ देश भर का वातावरण और मोदी-लहर का मुख्य रूप से प्रभाव रहा। यह तो आपको भी ध्यान ही होगा।
इनके ख़ुद के चेहरे को आगे रख कर जब 2008 में चुनाव लड़ा गया तब पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा था। दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद इनका चेहरा अब न केवल पुराना पड़ गया है बल्कि अच्छी तरह से जनता के सामने भी आ गया है। केंद्रीय स्तर पर आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर आपको जो भी निर्णय लेना हो सोच समझकर लेना।
पार्टी और प्रदेश के हित की बात आपके सामने रख रहा हूं। राजस्थान का बच्चा-बच्चा जो बात कह रहा है वह आपके सामने रख रहा हूं। एक अक्सर आपके सामने है कि आप पार्टी और प्रदेश की जनता के हित को सामने रख कर निर्णय लें। मेरी बात को रामदूत हनुमान की बात मानकर आप अपने ध्यान में ले आना कि राजस्थान में सीतामैया अब बहुत ज़्यादा समय तक अशोक-वाटिका में बंदी रहने वाली नहीं है।
जिन्होंने पार्टी के अनुशासन की सारी धज्जियां उड़ा दीं, पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को धत्ता बता कर काम किया, उनको तो आपने मुख्यमंत्री पद का पुरस्कार दे रखा है! उनके मंत्रिमंडल में वे लोग सुशोभित हो रखे हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री के पक्ष में पार्टी से त्यागपत्र देकर सार्वजनिक रूप से पार्टी को ठेंगा दिखाया।
आपकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के वे लोग सदस्य बने हुए हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से पार्टी से इनके पक्ष में इस्तीफ़े दिए। और वे लोग जो अपमान के घूँट पीकर भी पार्टी और प्रदेश के कार्यकर्ताओं और जनता के हितों की बात कर रहे हैं वे आपके गुनहगार हैं।
मेरा दोष शायद यह है कि मैं संघ के एक कार्यकर्ता के घर में जन्मा हूं और ये एक राजपरिवार में। इसीलिए तो इसकी मिज़ाजपुर्सी के लिए राजस्थान के संघ के चार प्रचारकों तक को अपमानित किया गया।
मैं तो फिर भी भाजपा में हूं इसलिए अपने साथ हुए इस अपमान और अन्याय को समझ सकता हूं। लेकिन इस मुख्यमंत्री के कारण राजस्थान के उन प्रचारकों तक को कदम-कदम पर अपमानित किया गया जो अपना घर-बार-परिवार सब छोड़ कर संघ के माध्यम से मातृभूमि की सेवा में जुटे! यह बात मुझे बिलकुल भी समझ में नहीं आती।
एक भ्रष्ट और निकृष्ट व्यक्ति के सत्ता-मद के पोषण और ऐशो-आराम के लिए जब संघ के उन लोगों को ही सलीब पर चढ़ा दिया गया जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए दान कर दिया था तो फिर इस व्यवस्था से किसी प्रकार की कोई आशा रखना व्यर्थ है।
ख़ैर ये सब बातें तो अपनी जगह है, राजस्थान की जनता को ये तो बता दीजिए की यह खेल मजबूरी का है या मिलीभगत का? मजबूरी का है तो ऐसी कौन सी मजबूरी है? और अगर मिलीभगत का है तो इसमें कौन-कौन शामिल हैं? वे कौन लोग हैं जिनके लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री को सोने-के-अंडे देने वाली मुर्ग़ी बन चुकी है? राजस्थान की जनता और कार्यकर्ता बड़ी बेसब्री से इस जानकारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
यह तो आपके भी ध्यान में है ही कि राजस्थान में चोर-चोर मौसेरे भाई-बहनों का एक गुट बन गया है। ये लोग मिलकर खाते हैं। एक दूसरे के ग़लत काम को छिपाने में तथा पार्टी पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए एक दूसरे का साथ देते हैं। यहां यह भी चर्चा है की इनके कुछ सहयोगी दिल्ली में भी बैठे हैं जिनके इनके साथ खाने-खिलाने के सम्बंध हैं। वे वहां पर इनकी लॉबिंग करते रहते हैं।
आप तो दिल्ली में ही बैठे हैं, उन सभी के नाम भी आपको पता ही होंगे। वे किसी से छिपे नहीं हैं। अब मैं इनकी लूट में सहयोगी नहीं हूं तो मैं अनुशासनहीन हूं! समझ में नहीं आता कि इस प्रकार की जिनकी सोच है उनके प्रति तरस का भाव रखूं या रोष।
राजस्थान को लगता है बहुत कमज़ोर समझ लिया गया है। हमारी शांतिप्रियता को कमज़ोरी मान लिया गया है। यहां का कार्यकर्ता हुल्लड़बाज़ी नहीं करता, संजीदगी से काम करता है, इसको सामन्तवादी दमनचक्र के सामने झुकना मान लिया गया है। समय आने दीजिए राजस्थान दिखा देगा कि उसकी धरती वीरों से ख़ाली नहीं हुई है।
मैं आपके द्वारा भेजे गए नोटिस के तीन आक्षेपों को सिरे से नकारता हूं। जैसा मैंने पूर्व में कहा है कि मेरी शिकायत के वे कागज जो परनामीजी ने आपको भेजे हैं उनकी एक प्रति अगर आप मुझे उपलब्ध करा दें तो उन्हें देख कर मैं और भी बेहतर जवाब आपको दे पाउंगा। तब तक आप अपने स्तर पर मेरे द्वारा भेजे गए प्रमाण देख लें और इन तथ्यों की आगे पुष्टि आप पार्टी के चार पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों डा. मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, पार्टी के केंद्रीय नेता अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, तथा संगठन महामंत्री रामलालजी से कर लें।
आपसे एक बात और कहता हूं — मेरे विरुद्ध जो काग़ज़ आपको भेजे गए हैं उन्हें, और मेरे द्वारा अनुशासनहीनता की महारानी से सम्बंधित जो तथ्य आपको भेजे गए हैं उन्हें इन दोनों को एक टेबिल पर अपने सामने साथ रख लें। जहां तक यह प्रश्न है कि राजस्थान में कौन अनुशासनहीन है, आपके सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
जहां तक न्याय का सम्बन्ध है तो लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता ही है। जनता ही जनार्दन है। राजस्थान की जनता ये सब अपनी आंखों से देख रही है, महसूस कर रही है। समय पर जनता फ़ैसला भी सुनाएगी, यक़ीनन ये बात दूर तलक जाएगी।
उम्मीद करे किससे ये “गुनहगार” तुम्हारा
हाकिम भी और काज़ी भी लगता है
उनके हाथों में सिमटा हुआ है बेचारा
दिक्कत बहुत है तुम्हें ज़मीरवालों से
समय आने दो हम भी देखेंगे इनकार तुम्हारा
धन्यवाद