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सरकार, संसद और संविधान सब राजनीतिक तानाशाही के शिकार? - Sabguru News
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सरकार, संसद और संविधान सब राजनीतिक तानाशाही के शिकार?

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सरकार, संसद और संविधान सब राजनीतिक तानाशाही के शिकार?
Government, parliament and indian constitution all of political dictatorship?
Government, parliament and indian constitution all of political dictatorship?
Government, parliament and indian constitution all of political dictatorship?

भारत का संविधान जिसमें 22 खण्ड 444 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियां है विश्व का सबसे बड़ा संविधान है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सरकार का नियमन करता है।

26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत यह संविधान 1 अगस्त 2015 तक 100 बार संशोधित हो चुका है। जनमानस चर्चा के दौरान अनेकों बार जिज्ञासा प्रकट करता है कि मूलतः संविधान में कहीं पर भी दलीय सरकार पद्धति है नहीं परन्तु संसद सदैव ही र्सावजनिक हित की अपेक्षा दलीय निष्ठा में उलझ कर अपनी सर्थकता से अलग सी प्रतीत होती है।

भारतीय संविधान में कहीं पर भी कोई उपबन्ध राजनैतिक दल या विचार धारा की प्रमुखता स्थापित करने वाला नहीं है और नहीं सरकार संचालन हेतु किसी राजनैतिक दल को कोई आधार प्रदान किया गया है।

भारत की लोकसभा 530 से अनाधिक प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने हुये तथा 20 से अनाधिक सदस्य जो संघ राज्य क्षेत्र के प्रतिनिधि होंगे से मिलकर बनेगी तथा राज्य सभा राष्ट्रपति द्वारा नामित बारह सदस्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के विधान सभा सदस्यों द्वारा निर्वाचित दो सौ अड़तीस से अनाधिक सदस्यों की होगी।

राज्य सभा कभी भी बिघटित नहीं होगी परन्तु उसके यथा संभव एक तिहाई सदस्य प्रत्येक द्वितीय वर्ष सदस्यता से निवृत होते रहेंगे। लोकसभा की अवधि पांच वर्ष की होगी। परन्तु इसका विघटन समय से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा किया जा सकता है और आपातकाल की उद्घोषणा के चलते एक बार में इसकी अवधि एक वर्ष से अनाधिक बढ़ाई जा सकती है।

संसद के प्रमुख कार्यो में संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्रीय सूची तथा समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाना, संघीय राजस्व तथा व्यय का नियंत्रण करना, मंत्रि परिषद को सरकारी कार्य संचालन हेतु शक्तियां प्रदान करना, मंत्रिपरिषद तथा सरकार के कार्यो की समीक्षा, मंत्रालयों की अधिकृत सूचनाएं प्राप्त करना, संविधान में परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन करना, राष्ट्रपति तथा न्यायाधीशों के प्रति महाअभियोग चलाना, सरकार के दृष्टिकोण से भिन्न विचार भी संसद सदस्यों से प्राप्त करना तथा राष्ट्रपति एवम् उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मंडल का अंग होना आदि है।

स्ंविधान का अनुच्छेद 77 स्पष्ट करता है कि भारत सरकार की समस्त कार्यपालिका की कारवाई राष्ट्रपति के नाम से की हुई कहीं जायगी। भारत सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और वह मंत्रियों को उनके कार्यो के आवंटन हेतु नियम निर्धारित करेंगे। अनुच्छेद 74 प्रावधनित करता है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका शीर्ष प्रधानमंत्री होगा।

अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाहपर करेगा। इस अनुच्छेद के अनुसार गैर सांसद भी मंत्री और प्रधानमंत्री हो सकता है।

अनुच्छेद 105 संसद सदस्यों को संसद में तथा संसदीय समिति में बोलने तथा मत प्रदान करने की सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 100 के अनुसार संसद के सभी प्रश्नों का विनिश्चय बहुमत के आधार पर होगा।

संविधान का 107 अनुच्छेद 108, 109 तथा 117 अनुच्छेदों के प्रावधानों के अधीन रहते हुए यह व्यवस्था करता है कि समस्त विधेयक चाहे बिना संशोधन के अथवा संशोधन के साथ दोनों सदनों की सहमति से पारित होगें अन्यथा नहीं। अनुच्छेद 122 के प्रावधानों के अनुसार संसद की कोई कार्यवाही प्रश्नगत् नहीं हो सकेगी।

उपरोक्त प्रावधानों से पूरी तरह से स्पष्ट है कि संसद का संचालन एवं उसके कार्यो का प्रति पालन किसी एक राजनीतिक दल अथवा दलों के समूह की अवधारण से परे निर्वाचित तथा चयनित सांसदों के विचार एवम् मतों के आधार पर होगा। किसी भी विधेयक तथा प्रस्ताव का विनिश्चय कोरम के अधीन उपस्थित सदस्यों के बहुमत से होगा। यही लोकतांत्रिक पद्धति हमारे संविधान की श्रेष्ठ सुन्दरता है।

संविधान अंगीकार करते समय इस संवैधानिक श्रेष्ठता की पवित्रता बनाए रखने हेतु भारतीय लोकतंन्त्र को पेशेवर राजनीतिज्ञों के र्वचस्व से बचाने के लिए अनेक बहुमूल्य सुझाव आए थे परन्तु उनको नकार दिया गया फलतः राजनीतिक भ्रष्टाचार पनपने लगा और संसद की सार्थकता जनमानस को अनाकर्षित करने लगी। उसके दुष्परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण शासन व्यवस्था नौकरशाही और पेशेवर राजनीतिज्ञों के चंगुल मे फंस गई।

हम संविधान की मूल भवना के विपरीत एक राजनीतिक तानाशाही के मार्ग पर चल पड़े और सरकार बनाने बिगाड़ने के खेल में दलीय प्रतिबद्धता पद तथा धन के लालच में फंस गई फलतः दल-बदल की प्रक्रिया शुरू हो गई।

राष्ट्रपति भी रोज-रोज की कलह को रोकने के लिए संविधान की भावना के विपरीत अपनी शक्ति का उपयोग राजनीतिक दलों के समूह के प्रस्तावों पर करने लगे। इसके परिणाम स्वरूप भारत अनेकों बार संसद के विघटन का त्रास झेलने के साथ लोकतंत्र के इस अवमूल्यन का भी साक्षी बना कि नियुक्ति प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री के रूप में कभी संसद का मुंह भी नहीं देखा।

करेला ऊपर से नीम चढ़ा

1985 के बावनवें संविधान संशोधन (1985) ने तो संविधान की मूल भावना को तिरोहित करते हुए राजनीतिक दल के नेताओं की तानाशाही सांसदों पर लाद दी और लोकतंत्र का संचालन दलीय तानाशाही पद्धति पर होने लगा। जिसके दुष्परिणाम संसद में स्पष्ट है।

संविधान संशोधन से प्रतिस्थापित दसवीं सूची की धारा 2 ने राजनीतिक तानाशाही को असीमित शक्ति प्रदान कर दी कि कोई सांसद अपने दल के प्राधिकारी के निर्देश के विरूद्ध मत देता है या मत देने से मना करता है तो उसे अपनी संसद सदस्यता खोनी पड़ेगी।

आम नागरिक यह भी कहता है कि जब संसद सदस्य के विचार और मत का कोई मूल्य राजनैतिक दल की व्हिप के समक्ष कोई महत्व नहीं रखता और सार्थक तर्क भी किसी को दलीय हित के ऊपर देश हित या सार्वजनिक हितों पर अपने दल की सोंच के दायरे से बाहर नहीं जाने देगा तो फिर संसद में चर्चा की क्या जरूरत है?

जन मानस इस राजनीतिक परिदृश्य को देखकर सवाल करता है कि भारत के राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र पूर्णतः तिराहित है और कोई भी कानून उनको लोकतांत्रिक बने रहने हेतु नियंत्रित नहीं कर रहा है और उस दल का प्राधिकारी जनता के चुने प्रतिनिधि को बाध्य करता है कि वह केवल एक सोंच पर ही कायम रहे चाहे देश और उसकी जनता जिये या मरे। राष्ट्र का स्वाभिमान और संप्रभुता अक्षुण्ण रहे या अवमूल्यित हो। निर्वाचित सांसद की सोंच अथवा जनता की अपेक्षा कोई मायने नहीं रखती।

जनता यह भी सोंच कर निराश होती है कि संसद का सदस्य बने रहने की चाह इतनी प्रबल है कि वह मूल मानवीय सिद्धान्तों को ही नष्ट कर रही है। संविधान का निर्माण लोक तंन्त्र की इस मूल भावना पर किया गया था कि जनता की सरकार-जनता के द्वारा जनता के लिए। परन्तु हो गया जनता की सरकार-जनता के द्वारा-नेताओं के लिए।

बावनवें संशोधन की वार्षिकी 1 मार्च पर हम सोचे कि नेताओं ने संविधान को लागू करने तथा उसे संशोधित करने में जो विद्रूपता की है उसका प्रायश्चित और परिष्कार कैसे हो और संविधान को सही रूप में लागू करवाने हेतु हमें क्या करना पडे़गा।

धर्म प्रकाश गुप्त

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