मण्डी। हिमाचल की राजनीति में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले मंडी जिला से आज तक कोई भी मुख्यमंत्री नहीं बन सका। प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला मंडी दमदार दावेदारी के बावजूद भी हर बार मंडी जिला सीएम की दौड़ में पिछड़ता चला गया।
कांगड़ा के बाद मंडी में सबसे ज्यादा दस विधान सभा सीटें होने पर भी मंडी की त्रासदी रही है कि बार-बार मुख्यमंत्री का नारा बुलंद होने के बावजूद भी ऐन मौके पर मुख्यमंत्री की कुर्सी दूर छिटक गई। ऐसा लगता है कि तमाम संभावनाओं के बावजूद भी मंडी के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी जैसे शापित हो गई है।
हिमाचल की राजनीति के तीन महत्वपूर्ण ध्रुवों शिमला, मंडी और कांगड़ा में से शिमला और कांगड़ा से तो मुख्यमंत्री बनने के अवसर मिल गए। मगर हिमाचल की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले मंडी जिला के हिस्से में निराशा के सिवाय कुछ नहीं आया। इसके पीछे मंडी के राजनीतिज्ञों के अहम का टकराव और आपसी गुटबंदी जिम्मेदार रही है। जिसके चलते मुख्यमंत्री के दावेदारों की राह में अपने ही रोड़ा बनकर खड़े हो गए।
वो चाहे टैरिटोरियल काउंसिल के अध्यक्ष और प्रदेश के पहले वित्त मंत्री ठाकुर कर्म सिंह हो चाहे संचार क्रांति के संवाहक पं. सुखराम अथवा सोनिया गांधी की कृपा से लगातार दो बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे कौल सिंह ठाकुर हो अपनों का साथ न मिलने से सीएम की कुर्सी दूर छिटक गई।
यह अलग बात है कि अगर मंडी के ही राजनीतिज्ञों ने एकजुटता दिखाई होती तो डा. परमार के बजाय मंडी से ठा. कर्म सिंह प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में अपना नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज करवा चुके होते। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी शिमला संसदीय क्षेत्र को रास आती है। जबकि भाजपा के लिए कांगड़ा और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र सीएम के दावेदार बनकर उभरते हैं। मगर मंडी की त्रासदी यह है कि केंद्रीय स्थल पर होने के चलते बार-बार कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के लिए सत्ता संतुलन बनाता रहा है।
हालांकि, ठाकुर कर्म सिंह के पक्ष में उस समय शिमला, हमीरपुर और कांगड़ा क्षेत्र के विधायक भी थे। मगर ऐन वक्त पर ठा. कर्म सिंह ने डा. परमार का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित कर दिया। इस बारे में डा. परमार के मंत्रीमंडल में लोनिवि और परिवहन मंत्री रहे पं. गौरी प्रसाद का कहना है कि डा. परमार ने ठा. कर्म सिंह को टेरिटोरियल कांउसिल का अध्यक्ष बनाया था। उसका कर्ज उतारने के लिए ठा. कर्म सिंह ने डा. परमार का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था।
वहीं राजनीतिक जानकारों का मानना है कि डा. परमार ने ठा.कर्म सिंह का रास्ता रोकने के लिए पं.सुखराम को उनके समकक्ष खड़ा कर दिया था। कर्म सिंह और सुखराम के बीच टकराव मंडी की राजनीति का हिस्सा बन गया था। जिसका खमियाजा पं. सुखराम को 1993 में भुगतना पड़ा था। जब केंद्रीय संचार मंत्री के नाते सुखराम 22 विधायकों का समर्थन लेकर सीएम की दावेदारी ठोंक बैठे।
मगर मंडी के ही विधायकों कौल सिंह, रंगीला राम राव, शेर सिंह, टेक चंद डोगरा आदि ने बगावत कर वीरभद्र का समर्थन कर दिया। जिसके चलते सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। 1993 का यह प्रकरण कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए खुलेआम टकराव था। उस समय वीरभद्र सिंह ने अपने समर्थकों के दम पर हाई कमान को भी झुका दिया था। इसका बदला सुखराम ने 1998 में हिविंका का गठन कर वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाकर प्रेम कुमार धूमल को पहली बार न केवल मुख्यमंत्री बनाया। बल्कि गठबंधन की राजनीति का भी प्रदेश में सूत्रपात किया।
हालांकि, 2012 में फिर मंडी से कौल सिंह ठाकुर मुख्यमंत्री की दावेदारी जताने लगे थे। मगर वीरभद्र सिंह ने 1993 के तेवर दिखाकर कौल सिंह को चुनाव से पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया और स्वयं इस पद पर काबिज हो गए। इस बार भी कांग्रेस की ओर से वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री का चेहरा है। तो भाजपा में जेपी नड्डा और पीके धूमल के बीच इस पद को लेकर कशमकश जारी है। मंडी संसदीय क्षेत्र एक बार फिर इस दौड़ से बाहर है।