सबगुरु न्यूज। त्यौहारों की संस्कृति प्रारंभ में लघु संस्कृति के स्तर पर शुरू होती हैं और सभ्यता के विकास की कहानी के साथ साथ वह एक वृहत् संस्कृति के रूप मे मनाई जाने लग जाती है। शनैः शनैः यह बड़े त्यौहारों का रूप धारण कर लेती है।
जनसंख्या का विस्तार गांव से शहरों का निर्माण कर रोजगार को खेती बाड़ी तक ही नहीं रखता, नवीन धंधे बढ जाते हैं और लधु संस्कृति, त्यौहार का रूप धारण कर लेती हैं। उसको मानने के तौर तरीके बदल जाते हैं तथा कई नईं बातें और धारणाएं इन त्यौहारों के साथ जुड़ जातीं हैं।
धन तेरस भी लघु संस्कृति का विस्तार हैं और कई नईं बातें और धारणा, विश्वास, आस्था व उपासना इसके साथ जुड़ गई और धन तेरस व दीपावली के रूप मे मनायी जाने लगी।
अति प्राचीन काल में खेती बाड़ी ही जीविका का मुख्य आधार रही। फ़सल कटने के बाद सारे धान्यों से घर भर जाता था तथा वस्तु विनियम व मुद्रा विनियम के माध्यम से सारी आर्थिक व्यवस्था हल हो जाती थीं।
इस खुशी में लोग पशुओं को भी श्रम से मुक्त कर देते थे तथा अपने घरों की गोबर व मिट्टी से लिपाई कर रंगोली बनाते तथा खेती की शक्ति देवी को नवीन अन्न व अन्न से बनाए पकवानों से पूजकर “दिवारी नृत्य’ कर खुशियां मनाते थे।
जब मुद्रा विनियम ने जन्म ले लिया तब कृषि उत्पादों के मूल्यों को नए मिट्टी के घडों में भर कर शकुन के लिए इन्हें भी श्रम के मूल्यों के रूप में भूमि की शक्ति देवी के साथ पूजते थे। यही सब परम्पराएं सर्वत्र बड़ी संस्कृति के रूप में लक्ष्मी व दीपावली के रूप में मनायी जाने लगी।
खेत से मिट्टी लाकर लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता था जिस पर नई फ़सल के पकवानों को अर्पण किया जाता था। यही खेतों की मिट्टी आगे जा कर लक्ष्मी जी की मूर्ति के रूप मे पूजी जाने लगी। आज भी यह परम्परा कहीं कहीं देखी जाती हैं।
अति प्राचीन संस्कृति मे प्रकृति की शक्तियों को ही पूजा जाता था। जहां परमात्मा का असली स्वरूप यही था। उसके बाद सभ्यता ओर संस्कृति ने कई नवीन मान्यताओं को स्थापित कर दिया और धन तेरस व दीपावली का स्वरूप शनैः शनैः बदलता गया।
संत जन कहते हैं कि हे मानव ये मिट्टी ही तमाम जन का पालन पोषण करती हैं और हमें धारण कर आधार प्रदान करतीं हैं, इसलिए यही साक्षात लक्ष्मी हैं, इसे दिल से प्रणाम कर तेरा जीवन सफ़ल हो जाएगा।
सौजन्य : भंवरलाल