वहां जम के लाठियां चलीं। जमकर अपनी-अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते लोगों ने एक दूसरे को लहूलुहान कर दिया और आस्था की नगरी रक्त रंजित हो गई। यह महाभारत का युद्ध स्थल न था वरन श्रीकृष्ण की बनाईं द्वारका नगरी थीं।
यह सारा घटनाक्रम श्रीकृष्ण व बलराम की उपस्थिति में ही हो गया। श्रीकृष्ण के पुत्रों के बीच अपने-अपने अधिकारों कों लेकर बैर हो गया और वे एक दूजे को ही मारने मरने के लिए उतारू हो गए। सब कुछ श्रीकृष्ण बैबसी से देखते रहे।
श्रीकृष्ण इस घटनाक्रम को देख मुस्कुराए ओर सोचने लगे कि वास्तव में इस संसार में अपार दुख हैं, काश मैं अवतार न लेता तो जमीनी हकीकत महसूस नहीं कर पाता। मैं तो केवल स्वर्ग नगरी से केवल मूक दृष्टा ही बना रहता।
अपनी संसारिक लाठी पुत्रों को यूं लड़ते देख वे इस दुनिया से साक्षात रूप से ओझल होते होते कुछ संदेश छोड़ गए।
मैं, स्वयं मायापति इस संसार की माया में उलझ गया और मेरी पत्नी सत्य भामा के कहने पर संतान प्राप्ति के लिए भगवान शिव शंकर की सपत्नि के साथ श्रावण मास में उपासना करने बैठ गया। श्रीकृष्ण को यूं अपनी उपासना करते देख शिव एकदम प्रकट हो कर बोले हें सृष्टि के पालन हार अपनी इच्छा बताएं।
श्रीकृष्ण ने संतान प्राप्ति का वरदान मांगा तो भोले नाथ समझ गए कि इस धरती पर जन्म लेकर मायापति स्वयं माया में उलझ गए हैं। भोले नाथ बोले हे कृष्ण आप की सभी पत्नियों के दस दस संतान होगी। यह कह कर वरदानी शिव अदृश्य हो गए।
परमात्मा रूपी कृष्ण कहते हैं कि मैने इस सृष्टि की रचना की। अपने प्राकृतिक न्याय सिद्धांत के तहत सभी को आवश्यकता की सभी वस्तुएं प्रकृति में ही उपलब्ध करवा दीं। संसार के प्राणियों ने अपने ज्ञान, लोकाचार व लोक संस्कृति को लोभ-लालच में आकर तथा अपने – अपने अनुसार बनाकर समाज का विखंडन कर दिया। इंसान आपसी विश्वास व सहयोग को खो बैठा।
परमात्मा रूपी लाठी के टुकड़े टुकड़े कर लोग स्वयं बेसहारा होकर मुझे हर जगह जगह ढूंढते हैं कथाओं में, उपदेशों में, भजनों में, ज्ञान में, शास्त्रों में लेकिन खुद के भीतर में झांक कर नहीं देखते हैं कि मै तो आत्मा बन उसी में बैठा हूं।
संत जन कहते हैं कि तू झूठे नकली लकड़ी के सहारे मत जी मेरे नाम की लकड़ी को पकड़ और इस संसार की माया में उलझ मत।
सौजन्य : भंवरलाल