यथार्थ तो सदैव मिथ्या की परछाईयों में जीता है। हम अपने आप को जब यथार्थ मानने की भूल करते हैं तो जीवन का अंतिम दिन, यथार्थ को मिथ्या में बदलने का चमत्कार करता है। यह चमत्कार भले ही कोई ग्रहण न करे तो भी काल उसे मौत का तोहफा देकर अनिवार्य रूप से सत्य का भान करा देता है।
पीठ हमेशा धोखा देने और धोखा खाने के ही विधाता ने बनाई है ताकि दिल में कपट और बगल में छुरी रखकर कोई भी व्यक्ति अपना मनमाना व्यवहार कर थोड़ा खुश हो सके।
अविद्या तथा अज्ञान का लठैत बन व्यक्ति जब अंहकार में पडकर अंधेरे में लठ चलाता है और साजिश के फूलबांटता है तब प्रकृति उसे उपहार में घृणा की रेवड़ी देकर उसके दिल और दिमाग़ में ज़हर पैदा कर देती है।
इस ज़हर की दलाली का व्यापार कर वह एक झूठे साम्राज्य का निर्माण करता है तथा अपनी पीढ़ी को उसमें धकेल देता है साथ ही आने वाली पीढ़ियों को यथार्थ के झूठे गलियारे में भटकने को मजबूर कर देता है। श्रेष्ठ विश्लेषक बनने की अज्ञानी चादर को ओढकर कर विषहीन सांप की तरह फुफकार के झाड़े लगा कर, शमशान के मुर्दे को भगवान बना अपने को लोभ की मैली चादर ओढा कर राज़ी होता है।
यथार्थ रूपी मिथ्या की परछाईयों जब बढ़ती जाती हैं तब शाम की दुल्हन अंधेरे में प्रवेश कर उन परछाईयों का अंत कर देती है। जमीनी हकीकत की यही कहानी होती है जहां हर कोई ज्ञान और उपदेश, आदर्श का पिटारा लेकर दूसरों को बांटता फिरता है और ख़ुद अंहकार में रहकर अंधकार में डाल देता है। इतिहास के पन्ने में बंद साहित्य कार अपनी मृत तस्वीर सें झांक कर देखता है तो मुस्कुरा कर रह जाता है।
वर्तमान को कलयुग मानकर हम अपने आप को सतयुगी समझने का दावा पेशकर हम अपने अन्दर के मानव को ग़लत दिशा में धकेल देते हैं और वर्तमान राम को रावण समझ बैठते हैं जबकि रावण तो अपने अन्दर बैठी एक ग़लत सोच हैं जो समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, अर्थ, कला और मानवता को कलंकित कर उसके टुकड़े करतीं हैं। संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपने अन्दर बैठे उस रावण को बाहर निकाल तुझे सर्वत्र राम हीं राम दिखेंगे।
सौजन्य : भंवरलाल