शून्य से जन्म लेकर हम अंकों की दुनिया में पलने लग जाते हैं और अंकों के मायाजाल में खोकर अंकों की उस रहस्यमयी दुनिया से अपने भाग्य को बचवाते हैं।
इन अंकों में दम नजर आता न देख कर कार्डो की हसीन दुनिया सें अपना भविष्य ढूंढते हैं। इन से भी पार पाता न देख हम आकाश की दुनिया के चमकीले नक्षत्रों में जाकर खो जाते हैं और व्याख्या भेद में डूब गुमराह हो जाते हैं।
अनुभव के टोटकों के सहारे हम घर संसार को सजा कर उसमें भाग्य संवारने वाले आईने लगवा कर दिल को तसल्ली देने का नाकाम प्रयास करते हुए काल के गाल में जाकर फिर शून्य में तब्दील हो जाते हैं।
शून्य और अंकों में पड़ा जीवन हर क्षण आजाद तो हर क्षण गुलाम बन जाता है। सकारात्मकता का प्रभाव पड़ते ही हम आजाद और निराशा की छाया पडते ही हम अपने आप को गुलाम होने का परिचय देने लग जाते हैं।
आशा व निराशा की इस आपाधापी के बीच हम समझ नहीं पाते हैं कि हम कब गुलाम थे और कब आजाद। अपने अनुकूल समय को हम आजाद और प्रतिकूल समय को गुलाम समझ कर बगावत की उस आग में कूद जाते हैं और सदा अपने अनुसार ही काम होते रहे यह सोच अनसुलझी गुत्थियां में उलझ कर विद्रोह कर बैठते हैं और सदा आजाद रहने के तराने गाने लग जाते हैं।
इस तरह हम आजाद तो हो जाते हैं लेकिन सत्य, अहिंसा और त्याग की आंखों में आंसू आ जाते हैं। ऐसे में हम अघोषित गुलामी से पीड़ित हो जाते हैं। दूसरों की सत्ता को हम गुलामी व अपनी सत्ता को आजादी मान बैठते हैं।
हम दूसरों की सत्ता को हटा कर आजाद हो सकते हैं लेकिन अपनों की सत्ता की गुलामी में फंस जाते हैं।
अपनों द्वारा दी गई आजादी में गुलामी को देख हम कुंठित होकर हम विरोध करते हैं तो हम फिर विद्रोह के आरोप में फंस जाते हैं। आजादी में गुलामी का खेल सदा से चला आ रहा है और शायद चलता भी रहेगा।
जीवन एक जंगल हैं और उसमें हम सभी आजाद हैं, जब जीवन रूपी जंगल में घृणा, लोभ धोखा, कपट की चिन्गारी घुस जाती हैं तो जंगल में आग लगने के प्रमाण की पुष्टि होने लग जाती हैं और हम सब गुलाम हो जातें है तब शून्य की सत्यता का भान होते ही हम आजादी व गुलामी को भूल जाते हैं।
आजाद जंगल में जब तेज हवाएं चलती हैं तो वह जंगल की लकड़ी को आपस रगड़ा देतीं है ओर आग की चिन्गारी को पैदा कर धीरे धीरे धीरे आग को सुलगा देती है। संत जन कहते हैं कि अपनों का अपने ही शोषण करने लग जाते हैं तो आजादी में भी गुलामी आ जाती है। इसलिए बाध्यता पूर्ण व्यवस्था के स्थान पर प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों के अनुरूप व्यवस्था ही खुलापन है।
सौजन्य : भंवरलाल