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कर्म के सागर में डूबा भाग्य का पारस

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कर्म के सागर में डूबा भाग्य का पारस

सबगुरु न्यूज। एक बादशाह अपने महल की छत पर खडा होकर रात की बासी रोटियां नीचे फेंक रहा था। नीचे कुत्ते व अन्य पशुओं में छीना झपटी मची हुई थी। उन पशुओं के पास ही एक संत खड़ा था वह यह सब कुछ देख रहा था।

इतने में महल की छत पर एक चील आई और झपट्टा मारा तथा राजा के हाथ से रोटी छीन ले गई। इसी झटके के दौरान राजा की पगड़ी गिर कर सड़क पर फेंकी रोटियों के पास पहुंच गई। संत राजा की पगड़ी उठाने लगा तो राजा ने कहा ठहरो। पहले तुम तुम्हारी जाति ओर धर्म बताओ।

संत बोला, राजन मेरी जाति मानव और मानवता मेरा धर्म है। राजा बोला ये कहां से आई। संत बोले ये प्रकृति के उपहार हैं। राजा बोला और बाक़ी सब? राजन, बाकि सब आपकी व्यवस्था है जो समाज व संस्कृति पर थोपा हुआ कलंक है और विखंडित होने का उपहार है। यह सुनकर राजा को गुस्सा आया और बोला मै तुम्हें मौत के घाट उतार दूंगा।

संत बोले, राजन पहले तुम पगड़ी को संभालो क्योंकि तुम्हारा राज अब जाने वाला है। इतने में संत ने हाथ ऊपर किया और तुरंत पडोसी राज्य की सेना ने महल को घेर लिया। सैनिक महल में घुसकर राजा को कैद करने छत पर पहुंचे। राजा ठीक उसी जगह से नीचे कूदा जहां से वह बासी रोटियां नीचे फेंक रहा था। राजा नीचे पडी रोटियों पर गिरा और उसके पांव टूट गए। वह रोटियों के पास पडा रहा।

संत बोले राजन अब तुम इन रोटियों की जात व धर्म पूछना और हां मुनासिब समझो और भूख सताने लगे तो तो खा लेना। यह कह कर संत चले गए।

राजा ने रोटियां फेंकने का कर्म किया और कर्म की कामधेनु ने भाग्य बनकर राजा को नीचे गिराया। वक्त के पहले ही सब कुछ उससे छीन लिया और कर्म रूपी उस पारस पत्थर को लोहा बना दिया। इसी कर्म की कामधेनु ने भाग्य को अपाहिज कर दूसरे राजा का कब्जा करा दिया और प्रकृति ने यह हाल देख पारस पत्थर की जगह बासी रोटियों को खिला दिया। परमात्मा के प्रेम का दीवाना संत अब मस्ताना हो गया।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपने अन्दर बैठे उस महामानव की बात सुन नहीं तो तेरा अंहकार व दुर्योधन बाली भाषा तेरे पतन काम करेगी।

सौजन्य : भंवरलाल