सबगुरु न्यूज। राजा जनक कहते हैं कि हे शुकदेव मुनि यह निश्चित है कि एक ओर मैं गृहस्थ में रहकर संसार के सभी सुखों का भोग करता हूं तो दूसरी ओर मैं पूर्ण निष्ठा से अपने कर्तव्यों का पालन करता हूं। जितनी आसक्ति मेरी संसार में हैं ठीक उसी तरह जन सेवा और जन कल्याण में मेरी निष्ठा है। इसलिए ना तो मुझे जंगलों में जाकर वैराग्य लेने की जरूरत पड़ती है और न ही मायाजाल में फंसने की।
कर्म रूपी परमात्मा का मैं उपासक हूं इसलिए मुझे माला फेरने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर भी हे मुनि तुम बैराग लेना चाहते हो और वन में तपस्या करना चाहते हो तो भी तुम्हें वहा खाने की पीने की और जंगली जानवरों से बचने की आसक्ति रहेगी और निश्चित तौर पर आप उसे पूरा करेंगे।
जब जंगल में जाकर भी तुम इस आसक्ति से मुक्त नहीं रह पा सकोगे तो फिर वैराग्य एक छलावा ही होगा। इसलिए आप घर जाओ और अपने पिता के कहे अनुसार विवाह कर लो। राजा जनक की बात मानकर मुनि अपने घर चले गए और विवाह कर लिया।
संस्कृति जब नकारात्मक मूल्यों को ग्रहण कर लेती है तो वह मानव को ओछेपन, थुक्का फजीती, कुतर्क, अनावश्यक हस्तक्षेप, फिजूल टीका टिप्पणी के आभूषण पहना देती है। इसके साथ एक अदना सा जिन्दा भूत सृष्टि के सृजन करने वाले को आईना दिखाने लग जाता है और अपनी हीन संस्कृति का परिचय देता है। ऐसे मानव उस दल में होते हैं जहां एक जिन्दा व्यक्ति को अर्थी पर शव की तरह ले जाकर राम नाम सत्य की धुन गायी जा रही है।
अर्थी पर बांधा जिन्दा व्यक्ति बार बार चिल्लाता है कि मैं मरा नहीं हूं जिन्दा हूं पर कोई सुनता ही नहीं है। इतने में एक राहगीर वहां से गुजरता है और ये सब हाल देख बोलता है कि अरे भाई ये मरा नहीं है अभी जिन्दा है। तब सारे लोग कहते हैं कि ये मर चुका है जिन्दा व्यक्ति नहीं है ये तो भूत है, इसलिए बार बार कह रहा है कि मैं मरा नहीं हूं और जिन्दा हूं।
उस राहगीर ने अर्थी में बंधे जिन्दा व्यक्ति को कहा कि हे जिन्दा शव, जब ये सैकड़ों व्यक्ति कह रहे हैं कि तुम मर चुके तो मैं तुम्हे जिन्दा कैसे कह दूं।
संत जन कहते हैं कि जब संस्कृति में इस तरह का अवसाद आ जाता है तब ऐसा लगता है कि ये सब अपने अपने नशे में डूबे हैं और सभी को अर्थ, राज, बल, छल कला में से कोई ना कोई नशा है और ये सब पी कर गिर रहे हैं। इसलिए हे मानव तू सब को पीना छोड़ और हरि के नाम का प्याला पी ताकि तू पीने के बाद भी नहीं गिरेगा।
सौजन्य : भंवरलाल