सबगुरु न्यूज। कितना सुन्दर भाव है इन पंक्तियों में जहां परमात्मा का निवास संत जनों में माना गया है क्योंकि संत जन स्वयं का नहीं जगत का कल्याण करने के लिए उत्पन्न हुए हैं। विश्व की हर सभ्यता और संस्कृति का मुख्य आधार ही जन सेवा एवं कल्याण है।
वर्षो से आज तक यह विचार-धारा जीवित है। विश्व की कोई भी संस्कृति, धर्म, दर्शन, समाज ओर समुदाय और व्यक्तियों में आज तक संतों के प्रति वही आदर भाव है तथा संत जन धर्म और दर्शन को एक नई सोच प्रदान कर जन कल्याण में महति भूमिका अदा करते हैं। त्याग तपस्या शांत चित व क़ोई भी प्राणी को न सता कर उन्हें सन्मार्ग पर लाने के लिए निरन्तर परिवर्तन शील रहते हैं और साक्षात परमात्मा की तरह अपनी भूमिका निभाते रहते हैं।
काल चक्र आगे बढ़ता गया हर संस्कृति के मूल्य प्रभावित होते रहें। विश्व में पनपती नई विचारधाराओं ने प्राचीन संस्कृति के मूल्यों में हस्तक्षेप किया और जो विश्व में हर जगह भले ही हर जगह वही धर्म दर्शन हो लेकिन जमीनी धरातल पर सर्वत्र चार्वाक दर्शन की महक आतीं हैं जहां केवल खाओ पीओ ओर सोचो मत, जो भी करना है अपने स्वार्थ के लिए वह कर डालो। येन केन प्रकारेण जैसे भी हो अपना अस्तित्व जमा लो।
भविष्य में अस्तित्व को बनाए रखने के लिए प्रचार व बाजारीकरण कर दो और असफल भी हो गए तो क्या। भविष्य में हम सब मर जाएंगे। बस दुनिया में बढती यही सोच सर्वत्र समस्या नहीं होने पर भी उसे प्रचारित करा सभी से सहानुभूति बटोर ली जाती हैं। उत्तर की समस्या आए तो दक्षिण में नई मनगढ़ंत समस्या डाल दो ओर पूर्व में आ रहीं हैं तो पश्चिम में ध्यान बांट दो और यदि सभी जगह समस्या आ रही है तो विदेशी समस्या मे सब का ध्यान घुमा दो।
चार्वाक दर्शन की महक आतीं हैं, आज विश्व के धरातल पर जहा लाखों लोग हर दिन शरण लेते रहते हैं और रोज भूख ओर बीमारी से मर जाते हैं। विश्व स्तर पर आंतकवाद छाया हुआ है फिर भी तानाशाह अपनी-अपनी शान में कोई एक दूसरे से कम नहीं आक रहा है।
बदलते मूल्यों ने लोभवश बाजारीकरण के संतों को ला दिया और मूल संत ये सब देखकर इसलिए मोन है कि बस कलयुग चल रहा है ऐसे ही होगा। संत मौन धारण कर संसार के लिए जप तप कर रहे हैं और बाजारीकरण वाले संत सर्वत्र लोभ के मंच पर खडे होकर संतों पर असंत होने का इल्जाम लगा कर ऐशो आराम से जी रहे हैं।
फिर भी इस दुनिया में वास्तविक संत मानव कल्याण में लगे हुए हैं इसलिए यह माना जाता है कि परमात्मा के भाव संत मे झलकते है। संत जन कहते हैं कि हे मानव तू भी मन को वास्तविक रूप से संत बना, संत होने का बाजारीकरण मत कर तुझे खूब आनंद आएगा।
सौजन्य : भंवरलाल