सबगुरु न्यूज। व्यक्ति और समाज पर जब नकारात्मक मूल्य भारी पडने लगते हैं तो उस समय भौतिक ओर अभौतिक संस्कृति भी आतंकित हो जाती हैं तथा वह अपना मूल गुण धर्म बदलने लगती है। यह बदलते मूल्यों की संस्कृति अपने कर्म चयन के अनुसार ही भूमिका निभाते हुए कर्म फल को भी उसी अनुसार प्रभावित कर देती है। कर्म फल जब प्रभावित होता है तो उसमें अभौतिक संस्कृति के गुणों की झलक बहुत कम दिखाई देती है, सारे गुण भौतिक संस्कृति के ही होते हैं।
बदलता हुआ यह सांस्कृतिक विलम्बन समाज में संघर्ष पैदा कर देता हैं और समाज में मूल्य, व्यवहार, प्रतिमान आचार, विचार, आस्था, धर्म और विश्वास यह सब अपने अस्तित्व खोने लगते हैं। एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जहां व्यक्ति व समाज खुद को सर्वेसर्वा घोषित कर देता हैं। इस समाज में न तो अपनापन होता है और न ही हम की भावना। यही सामाजिक विचलन समाज को बदल देता है और अभौतिक संस्कृति की आस्था विश्वास कुचल दी जाती हैं।
नकारात्मक मूल्यों की ये संस्कृति अपने साथ आतंकित मूल्यों को लेकर एक नहीं अनेक रावणों, कंसों और भारी दुर्योधनो को जन्म देती हैं। एक भारी अहंकार सर्वत्र गूंजने लगता है, अंत में यह सभी आपस मे टकराते हुए खत्म हो जाते हैं। आतंकित संस्कृति का यह कर्म फल विकास को विनाश की ओर ले जाता है और सब कुछ चौपट हो जाता है। नकारात्मक मूल्यों की बस यही हार हो जाती हैं।
यहीं कृष्ण रूपी शक्ति का उदय होता है जो संशय में पडे अर्जुन को एक ऐसे सत्य की ओर ले जाती है, उसके ह्रदय में ज्ञान की ज्योति जला कर उसे सकारात्मक कर्म के चयन का ज्ञान सिखलाती है। व्यक्ति और समाज को एकजुट कर नकारात्मक मूल्यों की संस्कृति को खत्म करतीं हैं और एक ऐसे समाज का निर्माण करती हैं जहां मानव में हम की भावना पैदा होती है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव तू सकारात्मक सोच से ही कर्म कर ताकि मूल्य, व्यव्हार, प्रतिमान, आचार विचार, आस्था, धर्म, विश्वास सभी आसानी से तेरे कर्म फल को आतंकित नहीं होने देंगे और समाज विनाश से विकास की ओर बढ जाएगा।
सौजन्य : भंवरलाल