सबगुरु न्यूज। जिन्दगी का यह सफर तब ओर सुहाना बन जाता है जब हम घृणा और नफ़रत की आंधियां को चीरते हुए आगे बढ़ जाते हैं। यानी “हम” की भावना को स्वीकार कर लेते हैं जहां “मैं” का निवास नहीं होता है वहीं पर प्रेम का चिराग जल जाता है। इसी चिराग का उजाला सदा के लिए अमर हो जाता है। उसके बाद फिर कभी कोई भेदभाव नहीं जन्मता है और प्राणी विकास के मार्ग पर आगे बढ़ता ही चला जाता है।
एक प्रेमी युगल जब प्रेम की राह पर निकल पड़ते हैं तो वे दो जिस्म होते हुए भी एक जान हो जाते हैं। उनका आत्म मिलन परमात्मा की इबादत बन जातीं हैं और उसकी वह अवस्था ही एक परम योगी का कुंडली जागरण हो। परम योगी के योग की भी पराकाष्ठा भी यही प्रेम रस है जिसका भोग करके योगी एक परम योगी बन जाता है और योग की पराकाष्ठा पर बडी आसानी से पहुंच जाता है।
प्रेम रस के भोग के बिना योगी एक व्यायामकर्ता ही बना रहता है जो शरीर को स्वस्थ कर सकता है लेकिन मन को स्वस्थ नहीं कर सकता, इस कारण अस्वस्थ मन फिर कई मनोरोगों को उत्पन्न कर देता है और ज्ञान के उजाले मौन धारण कर लेते हैं।
सामाजिक रिश्तों की अमरता के लिए प्रेम का चिराग वह ऊजाला फैलाता है जहां मानव का मूल्य स्वीकारा जाता है और खुशियों की शहनाईयां सातों स्वर को बजाकर सभी को आत्म विभोर कर देती हैं। हम विकास की ऊचाई पर पहुंच जाते है। यही सम्बंध ज्ञान, कर्म और भक्ति में लीन होकर लोभ, लालच और अहंकार को परास्त कर देते हैं। हमारे कर्तव्य का चयन हमें निष्काम कर्म का फल प्रेम रूपी चिराग के रूप में मिल जाता है और एक अमर ऊजाला फैलाता हुआ प्रकृति और पुरूष की शरण मेंं ले जाता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव, जब सर्वत्र प्रेम का चिराग जल जाता है तब ही परमात्मा हमें विकास के रूप में दिखता है अन्यथा प्रेम के चिराग बिना हम उस अहंकार की ओर बढ़ जाते है और हम स्वयं को ही कर्ता, उपदेशक ओर एक मात्र कल्याण कर्ता के रूप में पूजवाने का नाकाम प्रयास करतें हैं।
इसलिए हे मानव तू सदा ही प्रेम के चिराग जला, तेरा यह चयन तुझे अमर ऊजाले की तरह प्रकाशित कर देगा और सभी उस ऊजाले के साथ आगे बढ़ जाएंगे।
सौजन्य : भंवरलाल