बड़ी अंहकार के साथ वो सूखी और अकड़दार लकड़ियां मुर्दे को चिता में लेटाकर उसे दबा देतीं हैं और मुस्कुरा कर मुर्दे को कहतीं हैं कि आज मैं तुझे जलाकर राख बना दूंगी। बड़ी जोश में हवा के साथ मिलकर वो आग की लपटें मुर्दे को जलाने लगती हैं।
मुर्दे को जलाकर लकड़ियां राख बना देतीं हैं तब धीरे से मुर्दा मुसकराते हुए कहता है कि हे लकड़ी अब सुन, अब तू मुझे जलाने से राख नहीं, मेरी भस्म कहलाएगी।
हे लकड़ी अब तक तू अहंकारी के हाथ में रहीं, उसे लठैत ओर ख़ुद लाठी कहलाती रहीं, कालचक्र ने जब दीमक तुझे भेंट किए तब तुझे सड़ी मिट्टी समझ कर घर से निकाल दी गई। लठैत फिर नया लठ ढूंढ़ने लगा। तब बुढापे ने उसे घेर लिया और लठ से वो लठैत नहीं वृद्ध कहलाया।
व्यक्ति जब अंहकार रूपी लाठी लेकर निकलता है तब बुद्धि और मन विपथगामी व्यवहार कर सच को कुचल देता है। असत्य, झूठ कपट का प्रचार प्रसार कर अहंकारी को बल प्रदान कर देता है ओर बालू मिट्टी में बिना नींव के महल खड़ा कर देता है।
बालू मिट्टी की दीमक सत्य बन कर, उस महल को धराशायी कर देतीं हैं तब झूठ कपट और असत्य उसमें दफ़न हो जाते हैं। अपने ही कपट के महल को अपने सामने गिरते देख, उस अहंकारी को सत्य का भान हो जाता है और तब तक काल चक्र उसे सोचने का मौका नहीं देता और अपने साथ ले जाता है।
संत जन कहते हैं कि प्राणी अपने झूठे अहंकार रूपी ज्ञान के लठ से तू लोक कल्याण नहीं अपने आप को ही अंधकार के गलियारे में डाल रहा है और तेरे शरीर में बैठी आत्मा पर अज्ञान का पर्दा डाल रहा है। अब भी चेतन हो जा और कल्याण के मार्ग पर चल, सच में तू आनंद को पाएगा।
सौजन्य : भंवरलाल