
अंहकार का दानव जब खुली तलवार लेकर घूमता है तो उस वक्त वह परमात्मा से भी बड़ा बन सृष्टि का परम शक्तिशाली होने का झूठा अहसास दुनिया को कराने के लिए खेल रचता है।
इस खेल में उसके समर्थक भी अपनी बेसुरी तूतिया बजा अंहकार के के गीत को विस्तार देने लग जाते हैं जैसे जंगल का भेडिया गलती से शहर की गलियो में घुस जाता है ओर शहर के कुत्ते उस भेड़िये को चारों तरफ से घेर भोंकने लग जाते हैं।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि अंहकारियों ने पुरूष ही नहीं वरन एक अबला को भी नहीं बख्शा।उस अबला को हर तरह से यातनाएं दी गईं यहां कि उसको देशद्रोही करार देकर मृत्यु दण्ड दिया गया।
लेकिन वह फिर भी ईशवर भक्ति मे खोकर अमर हो गई। ईश्वर ने अपनी इस परम भक्त शिरोमणि मीरा की भी कठिन परीक्षा ली। दैत्य संस्कृति में जन्मे भक्त प्रहलाद ओर बलि ने उच्चतम संस्कृति को भी पीछे छोड दिया।
बालक ध्रुव, बाल्मीकि, हनुमान व नरसी भक्तों सरीखे कई भक्तों की परमात्मा ने बड़ी कठिन परीक्षा ली, वे सब अपनी परीक्षा में सफल रहे। प्राचीन कथाओं में राजा मोरध्वज का नाम भी बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। मोरध्वज भी भगवान विष्णुजी के परम भक्त थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि भगवान् मेरे घर आकर भोजन करें।
भगवान एक दिन राजा के घर आ गए, तब राजा ने कहा कि प्रभु मेरी इच्छा है कि आप मेरे यहां भोजन करें। विष्णुजी ने कहा मैं तैयार हूं लेकिन मेरी जो भी खाने की इच्छा होगी वह वस्तु ही तुम्हें मुझे खिलानी होगी। राजा ने विष्णुजी को वचन दे दिया।
परमात्मा ने कठिन परीक्षा ली राजा की ओर कहा कि तुम दोनों पति-पत्नी लोहे के आरे से अपने पुत्र को काटकर मुझे अर्पण करो और हां, दोनों की आंखों में एक भी आंसू आ गया तो हम तुम्हारा भोजन ग्रहण नहीं करेंगे।
राजा और रानी भगवान् के सामने ही अपने वचन की पालना करने लगे और अंत में रानी के आंखों से अश्रु धारा बह गई। यह नजारा देख भगवान ने कहा कि रानी आपकी आंखों मे आंसू क्यो। तब रानी ने धैर्य रख कहा कि प्रभु यह प्रेम के आंसू है क्योंकि आप अब हमारे यहा भोजन करेंगे।
भगवान् विष्णु को दया आ गई, राजा मोरध्वज के पुत्र को वापस जिन्दा कर दिया। भक्ति की पराकाष्ठा ही ज्ञान के मार्ग को उदय करती है। भक्ति ही जन्म मृत्यु के बन्धन को काटकर भव सागर से पार लगाती है।
सौजन्य : भंवरलाल