जिस समय सारा देश स्वाधीनता दिवस का जश्न मना रहा था, उस वक्त श्रीनगर में ड्यूटी दे रहे सीआरपीएफ के जवानों पर आतंकियों ने हमला बोला। ये अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे। भीषण मुठभेड़ में बल के कमांडो प्रमोद कुमार शहीद हो गए।
शहीद होने से पहले पटना के बख्तियारपुर से संबंध रखने वाले प्रमोद कुमार ने अपने साथियों के साथ मिलकर कई आतंकियों को मौत के मुंह सुला दिया। यानी मातृभूमि की रक्षा करते हुए एक और योद्धा ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। तो क्या अब प्रमोद कुमार के परिवारवालों के आंसू पोछेंगे मानवाधिकारों के रक्षक। संभावना क्षीण ही लगती है?
पंजाब में 80 और 90 के दशकों में जब सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई चालू की तो दिल्ली के सेमिनार सर्किट में मंडी हाऊस से लेकर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में घूमने वाले कथित मानवाधिकारवादियों ने हल्ला करना शुरू कर दिया था। ये कहने लगे कि पंजाब में मासूमों का कत्ल हो रहा है। सरकार मानवाधिकारों का हनन कर रही है।
पर जब आतंकी मासूमों को या पुलिसकर्मियों को मारते थे तब इनकी जुबानें सिल जाती थीं। अब फिर से वही राग अब कश्मीर में भी आलापा जा रहा है। सुरक्षा बल किसी मुठभेड़ में किसी आतंकी को मार गिराएं तो तुरंत मानवाधिकार का उल्लंघन हो जाता है। लेकिन, जब मुठभेड़ में कोई सुरक्षाकर्मी शहीद हो जाए तो ये चुप रहते हैं।
गोया मानवाधिकार सिर्फ दहशहतगर्दों का ही होता है! मानवाधिकारों के हनन को लेकर कश्मीर में तैनात सुरक्षा बल तथाकथित मानवाधिकार संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं के निशाने पर रहे हैं। पर आज तक दुनिया के किसी मानवाधिकारवादी संगठन ने यह नहीं कहा कि सुरक्षाकर्मी भी मानव हैं। उनके भी मानवाधिकार हैं।
सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) या केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में शामिल होने से पहले और बाद में वे भी देश के आम नागरिक ही थे।
जम्मू-कश्मीर की ही बात करें, तो इस समय वहां सेना और बीएसएफ के अलावा सीआरपीएफ के हजारों जवान तैनात हैं। राज्य सरकार के प्रमुख व्यक्तियों, संस्थानों और स्थलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सीआरपीएफ पर है। इसके अलावा रोजमर्रा की कानून व्यस्था की ड्यूटी में स्थानीय पुलिस की मदद करना उसकी मुख्य जिम्मेदारी है।
करीब ढ़ाई दशक से अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में चल रहे जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सबसे ज्यादा कीमत स्थानीय कश्मीरी पंडितों ने चुकाई है। उसके बाद उन जवानों का नंबर आता है, जो केन्द्रीय अर्ध सैनिक बलों से जुड़े हैं।
कश्मीर घाटी में पिछले महीने जब से हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के हाथों मौत हुई है तब से बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। इसमें 515 सुरक्षाबलों के जवान भी जख्मी हो चुके हैं। सुरक्षाबलों के 29 ठिकाने जला दिए गए। इससे पहले आतंकी दर्जनों सुरक्षा बलों को मार चुके हैं।क्या इनके कोई मानवाधिकार नहीं हैं? क्या ये भारतीय नहीं हैं? क्या इनके परिवार नहीं होते?
सीआरपीएफ के डायरेक्टर जनरल के.दुर्गाप्रसाद ने हाल ही ये अहम सवाल उठाए। सवाल महत्वपूर्ण हैं। मानवाधिकारों के प्रवक्ता बनने वाले कथित लोगों को इन सवालों के जवाब देने होंगे। कश्मीर में पिछले सालों के दौरान कई बार यहां तक देखने में आ रहा है कि भरे बाजार से कोई औरत ड्यूटी पर तैनात जवान पर गर्म तेल फेंक गई या उसे गोली मार गई। कश्मीर में ये सब लगातार हो रहा है। पुलिस आरोपी को तलाशती है तो कोई सुराग नहीं देता।
क्यों? क्या जवान मनुष्य नहीं हैं और उसे सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है? क्या दिन-रात कठिन हालतों में ड्यूटी करने वाले और अपने परिवारों से महीनों अलग रहने वाले जवानों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं?
दुर्गा प्रसाद ने कहा कि उपद्रवी हमारे कैम्पों पर हमले कर रहे हैं। वे ग्रेनेड फेंक रहे हैं। ड्यूटी से लौटते जवानों पर गली से निकल पत्थर बरसा रहे। हमारे जवानों के भी सिर फूटे हैं, आंखें फूटी हैं, फ्रैक्चर हुए हैं। हम किसके खिलाफ मानवाधिकार के कोर्ट में जाएं? किसका नाम दें? हमारे जवान कहते हैं कि कश्मीरी हमारे अपने लोग हैं। हम उन पर फायर नहीं कर सकते।
लेकिन, जब हालात काबू के बाहर हो जाते हैं और सामने से एके-47 से गोली चलती है तो जवाब देना ही पड़ता है। पंजाब में आतंकवाद के काले दौर में पंजाब पुलिस के महानिदेशक केपीएस गिल भी तो यही कहते थे, जो अब दुर्गा प्रसाद कह रहे हैं।
दरअसल देश की मानवाधिकार बिरादरी से जनता का विश्वास उठ गया है। ये उस तीस्ता सीतलवाड़ के लिए खड़ी होती है, जो साल 2002 के गुजरात दंगों के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की कथित तौर पर लड़ाई लड़ रही हैं और जो अपने ‘सबरंग ट्रस्ट’ को मिले विदेशी चंदों का खुलेआम उपयोग मौज मस्ती के लिए करती हैं। उस धन का इस्तेमाल अपनी अय्याशी के लिए करती रही हैं।
इसके चलते गृह मंत्रालय ने उनके एनजीओ का विदेशी चंदा नियमन कानून एफसीआर लाइसेंस रद्द कर दिया है। इसके बावजूद तीस्ता और उनके पति जावेद देश के कथित मानवाधिकार गिरोह के खासमखास है। ये इनके हक में आंखें बंद करके खड़ी रहती है।
लेकिन बीती 15 अगस्त को घाटी में आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए कमांडर प्रमोद कुमार के हक में ये कभी नहीं बोलेगे। क्यों? क्या देशद्रोहियों को कुचलना मानवाधिकार का हनन माना जाए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने-पिलाने वाले जालसाजी और घोटाले के आरोप झेल रही तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद को लेकर जार-जार आंसू बहाते हैं।
फिल्मकार आनंद पटवर्धन इन दोनों पति-पत्नी के पक्ष में खुलकर सामने आने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। कहते हैं, इनको सरकार घेरने की कोशिश कर रही है। क्या बात है? पर अपने को जनधड़कन का फिल्मकार बताने वाले पटवर्धन साहब ये भूल जाते हैं कि तीस्ता पर कितने गंभीर आरोप हैं। इस बिरादरी में गांधी जी के परपौत्र तुषार गांधी भी शामिल हैं।
वो तीस्ता-जावेद की सुरक्षा को लेकर भी परेशान रहते हैं। लेकिन ये तब अज्ञातवास में चले जाते हैं जब आतंकियों से लड़ने वालों पर कशमीर घाटी में पत्थर बरसाए जाने लगते हैं। कायदे से इन्हें अपनी दूकान कश्मीर घाटी में खोलनी चाहिए। कब इन्हें दिन में तारे नजर आएंगे। बात यहीं पर ही समाप्त नहीं होती।
आपको याद होगा कि इसी मानवाधिकारवादी गिरोह ने संसद हमले के गुनहगार अफजल की फांसी की सजा को उम्र कैद में तब्दील करवाने के लिए दिन-रात एक कर दी थी। ये उसकी जेएनयू में बरसी मनाती है। और वहां पर तो ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और घोर भारत विरोधी नारे भी लगाते है। इसी गैंग ने मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन को फांसी हो या नहीं हो, इस सवाल पर वास्तव में देश को बांटने की कोशिश की थी।
इन्होंने देश के जाने-माने लोगों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर याकूब मेमन को फांसी की सजा से बचाने की अपील की थी। हालांकि, ये बात समझ से परे है कि मेमन के लिए तो इन खासमखास लोगों के मन में सहानुभूति का भाव पैदा हो गया था, पर इन्होंने कभी उन तमाम सैकड़ों निर्दोश लोगों के बारे में बात नहीं की जो बेवजह मारे गए थे मुंबई बम धमाके में।
उनका क्या कसूर था? इस सवाल का जवाब आपको ये गिरोह कभी नहीं देगा।इस गिरोह की अहम सदस्यों में अरुंधति राय भी हैं। वो आजकल बेशर्मी से पाकिस्तान की भाषा बोल रही हैं। कह रही कश्मीर कभी भारत का अंग नहीं रहा।
कई मर्तबा जान लेवा हमलों का शिकार हो चुके मनिंदर सिंह बिट्टा सही कहते हैं कि क्या सिर्फ मारने वाले का ही मानवाधिकार है मरने वाले का कोई अधिकार नहीं है? याद नहीं आता कि आंध्र प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक में जो नक्सलियों ने नरसंहार किए, उन पर कभी दो आंसू मानवाधिकारवादियों ने बहाए।
कुछ साल पहले झारखंड के लातेहार में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के कुछ जवानों के शरीर में विस्फोटक लगाकर उड़ा दिया था। इस तरह की मौत पहले कभी नहीं सुनी थी। पर मजाल है कि अरुंधती राय या बाकी किसी किसी मानवाधिकारवादी ने उस कृत्य की निंदा की हो। क्या इन जवानों के माता-पिता, पत्नी या बच्चे नहीं थे ? क्या इनके कोई मानवाधिकार नहीं थे ?
: आर.के.सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)