नई दिल्ली। अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी ‘अमरीका फर्स्ट’ नीति का हवाला देकर पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकल गए, लेकिन पीछे छोड़ गये वे ढेरों सवाल जिन्होंने इस समझौते के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
पर्यावरण को बचाने की मुहीम में दुनिया के कई छोटे-बड़े देश अपनी जवाबदेही समझ रहे हैं लेकिन ट्रंप ने पर्यावरण पर अर्थव्यवस्था को तरजीह देकर इन प्रयासों को झटका दे दिया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि अमरीका के लिए इस समझौते से बाहर निकलना इतना आसान नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया में चार साल का समय लग जाएगा। वहीं, विशेषज्ञ पेरिस समझौते में भारत के कहीं अधिक खुलकर सामने आने और इसका नेतृत्व करने के दावे कर रहे हैं।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और जीवाश्म ईंधन की खपत को कम करने की बराक ओबामा की कोशिशों को नेस्तनाबूद करने का इरादा ट्रंप राष्ट्रपति बनने से पहले ही जता चुके थे, इसलिए ट्रंप के ऐलान के बाद ज्यादा हैरानी नहीं हुई। हुई तो सिर्फ चिंता, क्योंकि इस समझौते से अमरीका के बाहर निकलने का असर साफ तौर पर विकासशील देशों को मिलने वाली आर्थिक मदद पर पड़ेगा।
इस संबंध में पर्यावरणविद विक्रांत ने कहा कि पेरिस समझौते से अमरीका के बाहर निकलने का व्यापक असर देखने को मिलेगा। समझौते के नियमों के तहत अमरीका को कार्बन उत्सर्जन कम करने वाले विकासशील देशों को तीन अरब डॉलर की राशि देनी थी, जो अब नहीं मिलेगी।
वह कहते हैं कि इसका दूसरा सबसे बड़ा असर यह होगा कि चीन के बाद अमरीका सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है, ट्रंप ने कोयला खनन को बढ़ावा देने वाला आदेश भी जारी किया था। ऊपर से ट्रंप अपनी जलवायु नीति में बदलाव करने जा रहे हैं, जिससे हालात और बदतर ही होंगे।
पेरिस समझौते की रूपरेखा पर ओबामा के कार्यकाल से पहले से काम हो रहा था और अमरीका ने अपने हितों के अनुरूप इसे तैयार किया था।
सीएसई के उपमहानिदेशक चंद्रभूषण का कहना है कि पेरिस समझौता अमरीका ने अपने हितों को देखते हुए शुरू किया था और खुद यह निर्धारित किया था कि इस समझौते से जुड़ने वाले विकासशील देशों को विकसित देश अरबों डॉलर की आर्थिक मदद देंगे। लेकिन ट्रंप के फैसले के बाद शायद ही इस समझौते का कोई अस्तित्व रह गया है। इसका प्रारूप पूरी तरह से बदल गया है।
पर्यावरणविद विवेक चट्टोपाध्याय ने बताया कि अमरीका शुरू से अपने हितों के अनुरूप काम करता आया है और अब ट्रंप अरबों डॉलर बचाने के लिए भारत सरीखे देशों पर आरोप मढ़कर इससे निकलते बने।
विक्रांत कहते हैं कि पर्यावरण में कार्बन के उत्सर्जन में अमरीका की 21 फीसदी हिस्सेदारी है। ऐसे में अमरीका अपनी जवाबदेही से बच गया है। लेकिन यह भारत के लिए सही समय है कि वह इस समझौते की गंभीरता को बनाए रखे और अन्य देशों को इससे जोड़े रखे। कोई संदेह नहीं है कि इसमें भारत अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि पर्यावरण के संदर्भ में भारत और चीन एक ही पायदान पर खड़े हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि अमरीका को नैतिक आधार पर विकासशील देशों की आर्थिक मदद करनी चाहिए क्योंकि वह बड़े स्तर पर कार्बन उत्सर्जन कर रहा है।
चंद्रभूषण कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत वैश्विक तापमान को कम करने और पर्यावरण को बचाने को लेकर गंभीर है, ऐसे में भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुहिम का नेतृत्व कर सकता है और सुनिश्चित कर सकता है कि पेरिस समझौते का हश्र क्योटो समझौते जैसा नहीं हो।