गणेश चतुर्थी-गणेश भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं, वे सात्विक देवता हैं और विघ्नहर्ता हैं। वे न केवल भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली के कण-कण में व्याप्त है, बल्कि विदेशों में भी घर-कारों-कार्यालयों एवं उत्पाद केन्द्रों में विद्यमान हैं। हर तरफ गणेश ही गणेश छाए हुए हैं।
मनुष्य के दैनिक कार्यों में सफलता, सुख-समृद्धि की कामना, बुद्धि एवं ज्ञान के विकास एवं किसी भी मंगल कार्य को निर्विघ्न सम्पन्न करने हेतु गणेशजी को ही सर्वप्रथम पूजा जाता है, याद किया जाता है। प्रथम देव होने के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है, लोकनायक का चरित्र हैं। गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं, ऐसे सार्वभौमिक एवं सार्वदैशिक लोकप्रियता वाले देव का जन्मोत्सव भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सम्पूर्ण दुनिया में उमंग एवं हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
गणेशोत्सव हिन्दुओं का एक उत्सव है। महाराष्ट्र का गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रसिद्ध है। हजारों स्थानों पर भारतीय कला और संस्कृति की भिन्न-भिन्न गणेश-छवियों के दर्शन होते हैं। रात्रि में सर्वत्र रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। अंतिम दिन बड़ी धूमधाम से गणेश-प्रतिमाओं का विसर्जन नदी तटों, सरोवरों अथवा समुद्र में किया जाता है। दिन-प्रतिदिन गणेश चतुर्थी को अधिक से अधिक भव्यता से मनाने का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है।
फिर भी आम धारणा है, कि मुख्य रूप से उद्योग, सीवेज और शहरी ठोस कचरा मिलकर हमारी नदियों को प्रदूषित करते हैं। इसीलिए प्रदूषण के दूसरों स्त्रोत, कभी किसी बङे प्रदूषण विरोधी आंदोलन का निशाना नहीं बने। समाज ने खेती में प्रयोग होने वाले रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को नदी के लिए कभी बङा खतरा नहीं माना।
संस्कार व दूसरे धार्मिक कर्मकाण्डों में प्रयोग होने वाली सामग्रियों के कारण नदियों का कुछ नुकसान होने की बात का विरोध ही हुआ। देखने में यही लगता है, कि धूप, दीप, कपूर, सिंदूर, रोली-मोली, माला, माचिस की छोटी सी तीली, और पूजा के शेष अवशेष मिलकर भी क्या नुकसान करेंगे इतनी बङी नदी का।
इसी सोच के कारण हम अपनी आस्था को आगे रखते हैं और नदी की सेहत को पीछे। इसी सोच की बिना पर राष्ट्रीय हरित पंचाट द्वारा लगाई रोक के बावजूद, गत् वर्ष दिल्ली की यमुना में पहले विश्वकर्मा और फिर गणेश मूर्तियों का बेरोकटोक विसर्जन हुआ। पहले और अभी हाल में कई धर्माचार्यों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर लगाई रोक को उचित नहीं माना।
इसके पीछे कितना बवाल हुआ। मानने वालों ने इसे दलपरस्त राजनीति भी माना, जबकि जिस ‘इको ग्लोबल आर्गेनाइजेशन’ की याचिका पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाई है, स्वयं स्वामी चिदानंद सरस्वती मुनि और स्वामी आनंद गिरि जैसे धर्माचार्य उसके तथा उससे संबद्ध पत्रिका ‘ग्लोबल ग्रीन्स’ के संरक्षक हैं। जाहिर है, कि मूर्ति विसर्जन पर रोक को इन धर्माचार्यों का तो समर्थन प्राप्त है ही।
फतेहपुर, कानपुर और चित्रकूट के कई धर्माचार्य तो रोक से पहले ही इस विचार पर पहल के अगुवा रहे हैं। मुझे ताज्जुब है, कि आप में से कई धर्माचार्य रोक को अनुचित मानते हैं, वह भी इस तर्क के साथ कि गंगा जी में सैकङों नाले गिरते हैं; उन पर तो सरकार रोक लगा नहीं पाती; क्या सारी रोक गणेश जी के भक्तों के लिए ही है? मेरा निवेदन है, कि बेहतरी के लिए हम मुर्दा चीजों में भी बदलाव करते हैं; संस्कृति तो जीवंत होती है।
क्या बेहतरी के लिए बदलाव ही सांस्कृतिक विकास नहीं? क्या गंगा में मूर्ति विसर्जन पर रोक, गंगा को जीवंत बनाये रखने में सहयोगी नहीं; खासकर ऐसी मूर्तियों का जो प्लास्टर आफ पेरिस, प्लास्टिक और लैड आधारित नुकसानदायक रंग-रोगन से बनाई जाती हैं? क्या हमें तय नहीं करना चाहिए, कि मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की लालसा की पूर्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है, या नदियों में मूर्तियों का विसर्जन? आइये, तय करें।
आदेश उल्लेखनीय है, कि इको ग्लोबल आर्गेनाइजेशन (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था । हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना.. दोनो में मूर्ति विसर्जन पर वर्ष-2012 में ही रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे।
प्रशासन ने समय की कमी का रोना रोते हुए तीन वर्ष पूर्व यह छूट हासिल की थी, कि वह अगले वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था कर लेगा। दो वर्ष पूर्व स्थानीय खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कानून-व्यवस्था बिगङने का डर दिखाकर कोर्ट से फिर छूट हासिल कर ली। याद कीजिए कि कोर्ट ने स्पष्ट कहा था, कि वर्ष 2014 से गंगा-यमुना मे मूर्ति विसर्जन पर यह रोक पूरे उत्तर प्रदेश में लागू हो जाएगी।
इसके लिए उसने गंगा-यमुना प्रवाह मार्ग के जिलाधिकारियों को आवश्यक निर्देश व आवश्यक धन जारी करने का निर्देश भी उ.प्र. शासन को दे दिया गया था। गत् वर्ष प्रशासन ने कोशिश की, तो बनारस का बवाल हुआ । हालांकि यह रोक, देश में पहली नहीं थी। अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति की आपत्ति पर यह रोक महाराष्ट्र के नागपुर में भी लगाई गई थी।
इस दृष्टि यह रोक क्या अब और भी जरूरी नहीं हो गई है ? क्यों जरूरी यह रोक ? सच यह है, कि जब तक नदियों में खूब प्रवाह था; अविरलता थी; कचरे को खा जाने वाले जीवों बङी संख्या थी, तब तक नदियों में खुद का साफ कर लेने क्षमता थी। नदियां बिना इटीपी और एसटीपी कचरे को खुद साफ कर लेती थी। अब प्रवाह की मात्रा व अविरलता के अभाव में अब नदियां यह क्षमता खो बैठी हैं। अब नजारा बदल गया है। अतः हमें भी अब अपनी नजर और नजरिया बदलना होगा।
कैसे प्रदूषक नई सामग्री? ध्यान करने की बात है, कि परंपरागत तौर पर बनने वाली मूर्तियां मिट्टी, रूई, बांस की खप्पचियां, और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती थी। आज इनकी जगह प्लास्टर आफ पेरिस, लोहे की सलाखों, पालीस्टर कपङों, प्लास्टिक, सिंथेटिक पेंट और कई अन्य सजावटी-दिखावटी सामानों ने ले ली है। मूर्तियों की बढती संख्या और उन्हे ज्यादा से ज्यादा सुंदर दिखाने के लिहाज से ऐसा हुआ है। जल्दी सूखने की क्षमता के कारण प्लास्टिक आफ पेरिस इस्तेमाल बढा है।
प्लास्टर आफ पेरिस, जिप्सम को 300 डिग्री फारनेहाइट पर गर्म करके बनाया जाता है। बंजर भूमि का उपजाऊ बनाने में जिप्सम का प्रयोग बहुतायत में होने के कारण यह भ्रम स्वाभाविक है, कि जिप्सम लाभप्रद रसायन है, तो प्लास्टर आफ पेरिस नुकसानदेह कैसे हो सकता है। आई आई टी, मुंबई के सेंटर फार एन्वायमेंट सांइस एण्ड इंजीनियरिंग के प्रो श्याम असोलकर का अध्ययन बताता है, कि मिट्टी 45 मिनट के अंदर नदी के पानी में घुल जाती है।
आधिक पानी के संपर्क में आने पर प्लास्टर आफ पेरिस और सख्त हो जाता है। इस गुण के कारण इसे घुलने में महीनों लग जाते हैं। सिंथेटिक पेंट के साथ मिलकर इसका दुष्प्रभाव का कई गुना बढ जाता है। इसी बिना पर गुजरात सरकार ने 23 जनवरी, 2012 मे मूर्ति निर्माण में प्लास्टर आफ पेरिस और सिंथेटिक पेंट के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी।
हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायधिकरण ने रोक को राज्य सरकार का अधिकार न बताते हुए कानूनी कारणों से हटा दिया, पह सत्य यही है कि मूर्ति निर्माण की नई सामग्री खतरनाक है। दुष्प्रभाव प्रमाणित करते अध्ययन 2007 के एक अध्ययन ने भोपाल की ऊपरी झील में मूर्ति विसर्जन के बाद भारी धातु की सांद्रता में 750 प्रतिशत आधिक बढा हुआ पाया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बंगलुरु शहर रिपोर्ट ने धातु की सांद्रता 10 गुनी और तांबा की 200 से 300 गुना अधिक पाई।
ऐसे अलग-अलग हुए अध्ययनों में मूर्ति विसर्जन के बात संबंधित स्थान व स्त्रोत की जैविक-रासायानिक आक्सीजन मांग, सुचालकता, भारीपन के अलावा नाइट्रेट, क्रोमियम और सीसा का प्रतिशत बढा हुआ पाया गया। सीसा यानी सिंदूर, महाराष्ट्र का एक अध्ययन प्रमाण है, कि मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों के मरने की संख्या बढ जाती है। प्रदूषण के विष से मरी ऐसी मछलियों को खाने से लोगों के शरीर में खतरनाक बीमारियों का जन्म स्वाभाविक है।
नदी प्रदूषण के जो अन्य नुकसान हैं, सो अलग। गंगा की डाल्फिन दुनिया की उन प्रजातियों में है, जो स्वच्छ पानी में ही रहती हैं। अतः प्रदूषण से उनकी मौत का खतरा भी कम नहीं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने अपनी एक रिपोर्ट में पाया, कि देश के अन्य इलाकों की तुलना में उ. प्र., बिहार और प. बंगाल में नदियों के किनारे रहने वाले लोग ज्यादा आसानी से कैंसर की गिरफ्त में आ जाते हैं।
बढती मूर्तियां: बढता संकट उक्त अध्ययनों के साथ यदि इस आंकङे को जोङ दें कि अकेले गंगा में एक साल में कुल सात करोङ, 90 लाख लोगों ने स्नान किया। अकेले महाराष्ट्र में गत् वर्ष डेढ करोङ गणेश मूर्तियां का विसर्जन हुआ। ऐसे में बनने वाली मूर्तियों की संख्या, साल में दस करोङ का आंकङा छूती हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा और ताजिया: नदी में विसर्जन के ये चार मौके होते हैं।
भारतीयों के दुनिया भर में फैलने के साथ यह पर्व भी अब दुनियाभर में मनाये जाते हैं। आप चीन में भी दुर्गा पूजा का नजारा देख सकते हैं। जाहिर है, कि मूर्तियों की बढती संख्या, मूर्ति निर्माण के व्यावसायीकरण का यह एक बङा कारण है। इस कारण ही मूर्ति निर्माण का तरीका व इसका विसर्जन, आज नदियों, तालाबों और अंततः हमारे जी का जंजाल बन गए हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के मार्गदर्शी निर्देश इसी को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2010 में ही अलग-अलग प्रकार की जलसंरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी सिद्धांत जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक मूर्ति विसर्जन से पहले मूर्ति से उतारकर जैविक-अजैविक पदार्थों को अलग-अलग कर अलग-अलग ड्रमों में रखना। वस्त्रों का उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना तथा सिंथेटिक पेंट के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना शामिल है।
मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके। मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जलसंरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है।
कहा गया है, कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत् नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के मार्गदर्शी सिद्धांतों को लागू कराने के लिए जागृति की जिम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है। चेतावनी कायम है, हालांकि इन निर्देशों को सबसे पहले प. बंगाल ने अपनाया। तत्पश्चात् 2011 में महाराष्ट्र ने और 2012 में कर्नाटक ने भी इन्हे लागू किया।
अब उङीसा ने भी इस बाबत् निर्देश जारी किए हैं। महाराष्ट्र के कई नगर निगमों ने प्राकृतिक झील आदि में मूर्ति विसर्जन पर रोक भी लगाई है । यह रोक 100 फीसदी लागू भले ही न हो सके हों, लेकिन जागृति बढी है। कई इलाकों में मूर्तियों के भूसमाधि के भी उदाहरण सामने आये हैं । किंतु दुर्भाग्य है कि अन्य राज्यों ने इस पर अभी तक गौर नहीं किया है।
हर साल मूर्तियों की बढती संख्या एक गंभीर चेतावनी है । देश में पानी के प्रदूषण का बढता ग्राफ स्वयंमेव गंभीर चेतावनी है ही। क्या यह उत्तर प्रदेश के शासन, प्रशासन, समाज और धर्माचार्यों के चेतने का विषय नहीं है? क्या जरूरी नहीं है कि इस रोक का दायरा धीरे-धीरे बढाकर, सभी नदियों को शामिल करें? अंततः मिलती तो सभी गंगा में ही है। आस्था टूटने की बात बेमानी मालूम नहीं, नदी में विसर्जन को जरूरी बताने वाला कोई उल्लेख शास्त्रों में कहीं है भी या नहीं?
किंतु इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि भारतीय संस्कृति की आस्था, नदी के साथ मां जैसे व्यवहार व संस्कार में थी; तद्नुसार नदी में मल-मूत्र त्याग, मुंह धोना, दातुन-कुल्ला करना, माला फेंकना, कुश्ती लङना, बदन मलना, रतिक्रीङा करना, तेल मलकर या मैले बदन प्रवेश करना, पहने हुए वस्त्र छोङना व जल पर आघात करना पाप है।
‘गंगा रक्षा सूत्र’, गंगा किनारे झूठ बोलना, बकवाद करना तथा कुदृष्टि डालने को भी पाप मानता है। हमने ये संस्कार छोङ दिए; परिणामस्वरूप नदियों ने भी अपना व्यवहार छोङ दिया है। क्या यह सच नहीं कि मूतियों का विसर्जन नदियों में रोक देने से हमारी आस्था प्रभावित हो न हो, लेकिन नदियों की बीमार होने से हम बीमार, बेकार और लाचार जरूर हो जाएंगे।
क्या इस सच को नकार दें ? इस गणेश चतुर्थी से पहले एक संकल्प आइए, आने वाली गणेश चतुर्थी व नवमी से पूर्व ही संकल्पित हों। अपने संस्कार और नदी का व्यवहार वापस लौटाएं। निवेदन है, कि धर्माचार्य और नदी आस्था के मार्गदर्शक, बेहतरी का पथ प्रशस्त करें।
मूर्ति निर्माता, प्रदूषक सामग्री से परहेज करें और भक्तगण, प्रदूषक सामग्रीयुक्त मूर्तियों से। विसर्जनकर्ता, मूर्तियों का नदी विसर्जन करने की बजाय, विसर्जन से पूर्व एक नये पवित्र तालाब की रचना करें । उसमें विसर्जन करें। विसर्जन पश्चात् शेष सामग्री का उचित निष्पादन करें। भूमि विसर्जन, सर्वश्रेष्ठ विकल्प है ही। इससे नदी मां को बचाने में भी हमारा योगदान होगा और आस्था भी अक्षुण्ण रहेगी। क्या हम उम्मीद पूरी करेंगे?
अरुण तिवारी