साधु ओर सन्त जन बताते हैं कि हे प्राणी परमात्मा ने तुझे यह मानव योनि प्रदान की है तेरे शरीर मे जो माया रूपी सुन्दरी बैठकर ह्रदय रूपी चरखें को चला रही है और ना जाने ये सुन्दरी इस चरखे को चलाना कब बंद कर दे।
इससे पहले तू इस शरीर की सार्थकता सिद्ध कर। इस जगत मे लोक कल्याणकारी कार्य कर अपनी यादों का अमर ऊजाला छोड दे। तू जानता है कि ये शरीर चरखे के बंद होते ही खाक में विलीन हो जाएगा।
बचपन तूने खेल कर खो दिया और जवानी नींद भर कर सो लिया आगे बुढापा देख कर रोना न पडे इसलिए तू इस जगत मे आने का ऋण तो चुका दे।
शरीर में चरखा चलाती ये नश्वर मायारूपी सुन्दरी, तुझे तरह तरह से माया मे उलझा रही है। इस कारण तेरे मोह की रफ्तार बढती जा रही है और तू स्वयं ही मायावी बनता जा रहा है यह जानते हुए कि तेरा शरीर नश्वर है।
जब मोह माया के कारण तेरा उदेश्य पूरा-पूरा नहीं होता है तो लगातार तेरा क्रोध भी बढता ही जाता है और तू मानव संस्कृति के मूल्य को खत्म कर वाचाल बन क्रोध के कारण काल को निमंत्रण दे रहा है।
जो बीत गया वो इतिहास बन गया लेकिन बचा हुआ हर पल सार्थक करते हुए सच को स्वीकार कर औरर उस परमात्मा का ध्यान कर, तेरी आत्मा को भी परम आत्मा बना।
परम आत्मा मोह ओर माया मे रह कर भी जीव ओर जगत के कल्याण के लिए कार्य करती है और जब जीव ओर जगत की सेवा करेगा तो क्रोध स्वत: की काल कोठरी मे कैद हो जाएगा।
सती के देह त्याग के बाद शंकर जी बहुत दुखी होकर विलाप करने लगे और हिमाचल के पर्वत पर तपस्या करने लगे। शंकर के दर्शनार्थ पर्वत राज हिमालय रोज अपनी पुत्री पार्वती के साथ आते तथा शिव को प्रणाम करते थे।
पार्वती शिव से रोज सवाल करती थी। एक दिन शंकर जी ने हिमालय से कहा कि तुम्हारी पुत्री पार्वती को यहा मत लाया करो क्योंकि यह चंचल है तथा रोज दर्शन शास्त्र की बाते करती है।
यह सुनकर पार्वती ने ऐतराज किया कि नाथ पहले आप बताइए कि मुझे आप आने से क्यो रोक रहे हैं। शंकर जी ने कहा कि अब मैं किसी भी मोह ओर माया में नहीं फंसना चाहता क्योंकि इसके कारण ही क्रोध की उत्पत्ति होती है।
पार्वती बोली आप कभी भी मोह माया से नहीं बच सकते ओर ना ही क्रोध से। शंकर जी बोले वो कैसे। पार्वती बोली शंकर भोलेनाथ आप अभी कहा बैठकर तपस्या कर रहे हैं क्या ये यह संसार माया नहीं है। क्या आप तपस्या कर रहे हो यह मोह नहीं है।
आप मुझे यहां आने के लिए रोक रहे हैं क्या यह क्रोध नहीं है। पार्वती की बात सुनकर शंकर भगवान विस्मय मे पड गए। शंकर जी ने फिर पार्वती जी को रोज आने की आज्ञा दी।
वास्तव में मोह माया और क्रोध ही इस सृष्टि का मूल कारण है। अन्यथा सृष्टि का निर्माण ही नहीं होता। मानव को एक सीमा में रहकर ही मोह माया में रहना चाहिए अन्यथा क्रोध काल बन कर आएगा।
सौजन्य : भंवरलाल