भारत की संसद का निर्माण राज्यसभा, लोकसभा और राष्ट्रपति से मिलकर होता है। राज्यसभा को ऊपरी सदन और लोकसभा को निम्न सदन भी कहा जाता है। राज्यसभा के सदस्यों के द्वारा अपना कोई अध्यक्ष नही चुना जाता है, अपितु भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। वही राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है।
किन्हीं कारणों से यदि भारत के उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति के कार्यों का संपादन करना पड़ जाए तो उस अवधि में उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति की परिलब्धि और भत्ते आदि पाने का अधिकार होता है। इस अवधि में उसे उपराष्ट्रपति का वेतन नही मिलेगा।
हमारे देश की राज्यसभा को कुछ लोगों ने इस प्रकार प्रचारित किया है कि यह अंग्रेजों की ‘हाउस ऑफ लॉर्डस’ की नकल है। जबकि यह भ्रांत धारणा है। ब्रिटेन की ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ में वहां के राजकीय परिवार के लोगों को ही सम्मिलित किया जाता है, जो ‘लॉर्ड’ बनकर ब्रिटिश साम्राज्य के दिनों में बाहरी देशों में वायसराय या गवर्नर जनरल बनाकर भेजे जाया करते थे और इस प्रकार उनका सदुपयोग वहां का राजा या रानी अपने प्रति निष्ठावान के रूप में कर लिया करता था।
कई बार किसी विशेष कृपापात्र बाहरी व्यक्ति को लार्ड की उपाधि देकर भी उपनिवेशों का शासक बना दिया जाया करता था। इस प्रकार ब्रिटेन की ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ उपनिवेशवादी व्यवस्था की पोषक है। वहां इस सदन को सिगार पीने वालों का और गपशप मारने वालों का सदन भी कहा जाता है। कारण कि इस सदन के लोगों के पास कोई काम नही होता है। उनकी योग्यता केवल इतनी होती है कि वे राजकीय परिवार से होते हैं। इसीलिए उनके खर्चों को ब्रिटिश राजकोष झेलता है।
इधर भारत की राज्यसभा की स्थिति सर्वथा विपरीत है। इस सदन को प्राचीनकाल से ही भारत में राज्यसभा या राज्यपरिषद के नाम से जाना जाता रहा है। संसद को विधायिका का नाम भी हमने दिया है। विधायिका का अभिप्राय और उद्देश्य ‘नियम बनाकर सत्य की स्थापना करना’ होता है।
समाज में सत्य का प्रचार-प्रसार हो और लोग न्यायपूर्ण धर्म की नैतिक मर्यादाओं का पालन करने वाले हों, एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले न हों, ऐसी सुव्यवस्था प्रदान करना राज्यसभा या विधायिका का कार्य होता था। इसके लिए जनसेवी और विद्वान लोगों को चुना जाता था।
ये जनसेवी और विद्वान लोग अपने-अपने क्षेत्र के या अपने-अपने विषय के विद्वान होते थे और निष्पक्ष भाव से प्रेरित होकर राजा को राजकार्यों के निष्पादन में अपना परामर्श दिया करते थे। विधायिका का अभिप्राय जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि नियम बनाकर सत्य की स्थापना करना है-तो इससे स्पष्ट हो जाता है हमारे देश में प्राचीनकाल से ही नियम अर्थात कानून और सत्य अर्थात ऋत=न्यायपूर्ण व्यवस्था का राज्य था।
यदि हमारे साहित्य में ये शब्द आज भी हैं तो इनकी पड़ताल गहराई से करने और अपनी प्राचीन राज्य व्यवस्था को गहराई से समझने की आवश्यकता है। जब इस व्यवस्था में दुर्बलता आ गयी तो हमारा राष्ट्र भी दुर्बल हो गया।
हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी राज्यसभा का प्राविधान संविधान में केवल इसलिए रखा था कि इसमें देशधर्म के प्रति चिंतनशील लोगों को स्थान दिया जाएगा और उनके शुभ और उच्च चिंतन का लाभ वैसे ही लिया जाएगा जैसे प्राचीनकाल में राजा राजपरिषद के विद्वान लोगों के ज्ञान का लाभ प्राप्त किया करता था।
हमारी व्यवस्था पर विदेशी विद्वानों ने भी गहन चिंतन किया है। उन्होंने ऋत शब्द को पकड़ा और उस पर मनन किया। रॉथ ने ऋत शब्द के अर्थ करते हुए लिखा है कि इसे उचित, योग्य, नियमबद्घ, क्रमबद्घ, विधि, ईमानदार, सत्यनिष्ठा, न्याय, धर्मिष्ठ, योग्य दक्ष, सत्य, ठीक, धार्मिक सत्य, पूजिक, प्रणपूर्ण, निर्णय, पवित्र, परंपरा, कानून, दैवी कानून, क्रमानुसार, तर्कयुक्त, विश्वास योग्य के अर्थों में समझना चाहिए।
इसका अभिप्राय है कि एक विधायिका के सदस्य को (विधायक या सांसद को) समाज में इन्हीं गुणों की स्थापना के लिए कार्य करना चाहिए, तभी विधायिका का उद्देश्य सफल होता है और तभी एक विधायक या सांसद के चुने जाने का औचित्य समझ में आता है।
भारत से चूक हो गयी, इसने स्वतंत्रता प्राप्त करते ही लोगों का भारतीयकरण करने के स्थान पर ‘इंडियनाइजेशन’ करना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप जिन लुटेरों ने हमें लंबे काल तक लूटा, छला, ठगा और हमारा दमन किया हम उन्हीं को अपना आदर्श बनाकर चल दिये। इसका परिणाम ये आया है कि हमारी राज्यसभा की दुर्गति भी ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ जैसी हो गई है।
हमारे राज्यसभा सांसद किसी लॉर्ड से कम नहीं होते हैं। वास्तविक अर्थों में ये ‘लाट साब’ बन चुके हैं। राज्यसभा की गरिमा गिरा दी गयी है-उसे सिगार पीते-पीते शिकार करते जाने की शिकारगाह बना दिया गया है। लोकसभा से यदि कोई विधेयक राज्यसभा में जाता है तो उसके गुणदोष पर विचार करने से पूर्व ही इस सदन में राजनीति आरंभ हो जाती है।
विधेयक को एक ‘शिकार’ के रूप में लिया जाता है और यदि राज्यसभा में उन लोगों का या दलों का बहुमत है जिनको लोकसभा में बहुमत प्राप्त नही है, तो इस ‘शिकार’ को मारने की तैयारी कर ली जाती है। सब अपने-अपने धनुषवाण लेकर उठ खड़े होते हैं। इस ‘शिकार’ का मर जाना तो निश्चित है हमारे ‘लाट साब’ तो केवल इसलिए धनुष बाण संभालते हैं कि इसे मारने का श्रेय सर्वप्रथम कौन ले?
हमारी राज्यसभा की ऐसी प्रवृत्ति को देखकर तो नहीं लगता कि यह सदन अपनी उपयोगिता को स्थापित करने में या उसका सम्मान बनाये रखने में सफल रहा है। राज्यसभा का प्राविधान तो इसलिए किया गया था कि इसमें अनुभवी वयोवृद्घ, राष्ट्रनीति, कुशल, राजर्षि लोगों को स्थान दिया जाएगा। जिनके राजनीतिक और सामाजिक ज्ञान का लाभ प्राप्त करके उनके परामर्श को राष्ट्र के हित में ग्रहण किया जाएगा।
पर सत्तर वर्ष में ही हमने देखा कि राज्यसभा के पटल पर ‘बाबा साहेब’ के सपनों की हत्या कर दी गयी है। जो लोग बाबा साहेब के सपनों के भारत के निर्माण की बात करते हैं वे अनर्गल चर्चाओं में फंसे पड़े हैं उन्हें नही पता कि बाबा साहेब के सपनों का वध कहां हो गया है और किस सफेदपोश ने कर दिया है?
आज हमारी संसद के इस सदन में उन थके-हारे पराजित लोगों को भेजा जाता है जिन्हें हमारे देश की जनता लोकसभा चुनावों में ठेंगा दिखा चुकी होती है या उन लोगों को भेजा जाता है जो राज्यसभा में जाकर (राष्ट्रहितों से पूर्व) दलगत स्वार्थों के लिए लडऩे में कुशल हों। कितने ही उद्योगपति और धन्नासेठ, या समाज के ‘गन’ पति लोग गणपति बनने के लिए सौ-सौ करोड़ रूपया व्यय करने के लिए तैयार बैठे हैं।
इन लोगों ने राज्यसभा सांसद बनने को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। ये ‘स्टेट्स सिम्बल’ के लिए इतनी बड़ी धनराशि व्यय करना चाहते हैं। ऐसे धनपति, और ‘गन’ पति लोगों को ना तो संविधान की पता है ना ही देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बारीकियों की सही जानकारी है, उनमें से कई ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपने देश का राष्ट्रगान तक नही आता। इससे अधिक हृास राज्यसभा का और क्या होगा?
हृास की इस अवस्था को हमने इसलिए बनने दिया है कि हमने एक हृास को प्राप्त की गयी संस्था (ब्रिटेन की हाउस ऑफ लॉर्ड्स) की स्थानापन्न या नकल बनाकर अपनी राज्यसभा को लिया। इसलिए इस सदन में ‘लाट साब’ जा पहुंचे जो किसी अधिनायक से कम नही हैं, ये अधिनायक अपने लिए ‘जय हे’ कहलवाना चाहते हैं। यदि भारत ने अपने प्राचीन वैभव और राज्यव्यवस्था संबंधी सिद्घांतों की समीक्षा कर उन्हीं के अनुसार अपनी राज्यसभा की स्थापना की होती तो बात कुछ और ही होती। हमने ‘राज्यसभा’ के माध्यम से ही लोकतंत्र को विक्षिप्त कर लिया। शोक! महाशोक!
राकेश कुमार आर्य