पक्षी, जो घोतक है शांति के, जिनकी चहक मन को आनंदित करती है, जिनकी उढ़ान, प्रतीक का प्रगति का। यही पक्षी न जाने क्यों असम के दिमा हासो जिले की पहाड़ी घाटी में स्थित जतिंगा में आत्महत्या करते है। दुनिया भर में यह जगह पक्षियों के सुसाइड प्वाइंट के तौर पर जानी जाती है।
जी हां सुनने अजिब लगता है कि भला पक्षी क्यों आत्महत्या करेंगा, लेकिन यह एक ऐसा सच है जिसका जबाव तलाशने के लिए निरंतर शोध किए जा रहें है। साल के नौ महीने बाहरी दुनिया से लगभग अलग-थलग रहने वाला जतिंगा गांव सितंबर की शुरुआत के साथ ही खबरों की सुर्खियों में छाया रहता है। सितंबर से लेकर नवंबर तक बरैल पर्वत श्रृंखला की गोदी में बसी यह छोटी-सी घाटी पक्षीशास्त्रियों, पर्यटकों, पत्रकारों आदि की पसंदीदा जगह बन जाती है क्योंकि इन दिनों यहां ‘पक्षी आत्महत्या’ की रहस्यमय घटनाएं होती हैं। 1980 के दशक में जितंगा एक जाना-पहचाना पयर्टन केंद्र था, लेकिन उग्रवाद की चपेट में आने से यहां पर्यटकों की आवाजाही लगभग बंद सी हो गई।
जनजातियों ने खोजा रहस्य
उत्तरी कछार हिल का यह इलाका विविध जनजातीय संस्कृति का एक ऐसा कोलॉज प्रस्तुत करता है, जो पूर्वोत्तर के अलावा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। सिर्फ दिमा हासो जिले में ही लगभग दो दर्जन जनजातीय समुदाय के लोग रहते हैं। जतिंगा की रहस्यमय घटना का पता भी मणिपुर की ओर से आई जेमेस नामक जनजातीय समूह के लोगों ने लगाया था, जो सुपाड़ी की खेती की तलाश में वहां पहुंचे थे।
छाया है अंधविश्वास
दरअसल, अक्टूबर से नवंबर तक कृष्णपक्ष की रातों में यहां ‘पक्षी-हराकिरी’ का अद्भुत वाक्या होता है। शाम सात बजे से लेकर रात के दस-साढ़े दस बजे के बीच अगर आसमान में धुंध छा जाए, हवा की रफ्तार तेज हो जाए और कहीं से कोई रोशनी कर दे तो चिड़ियों की खैर नहीं। उनके झुंड कीट-पतंगों की तरह बदहवास होकर रोशनी के स्त्रोत पर गिरने लगते हैं। आत्महत्या की इस दौड़ में स्थानीय और प्रवासी चिड़ियों की करीब तीन दर्जन प्रजातियां शामिल रहती हैं।
इस रहस्यमय घटना के बारे में स्थानीय स्तर पर तरह-तरह की किंवदंतियां और अंधविश्वास फैले हुए हैं। गांव में जयंतिया, कारबी, दिमासा आदि जनजाति के लोग रहते हैं, जो मुख्य रूप से कृषक हैं। उनका मानना है कि इलाके की बुरी आत्माएं चिड़िया बनकर यहां आती हैं और आग या रोशनी के प्रताप से मर जाती हैं। इसी कारण से स्थानीय लोगों में ज्यादा-से-ज्यादा चिड़िया पकड़ने और उसे मार देने की होड़ मची रहती है। अंधविश्वास का आलम यह है कि जो सबसे ज्यादा चिड़ियों को गिराने-मारने में सफल होता है, उसे अपने समाज-परिवार में प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है।
निरंतर खोजा जा रहा है जवाब
हालांकि सभी पक्षीशास्त्रियों और भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि घटना इलाके के भूगोल और यहां के मौसम के कारण होती है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कई वैज्ञानिक अनुसंधान हुए हैं। गैर सरकारी स्तर पर कई वैज्ञानिक अनुसंधान हुए हैं। प्रसिद्ध पक्षीशास्त्री सलीम अली, डॉ.एस सेनगुप्ता, रॉबिन बनर्जी समेत कई अन्य विशेषज्ञों ने लंबा समय जतिंगा में बिताया, लेकिन आज तक वे किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं।
कुछ वर्ष पहले जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भी एक अन्वेषण दल जतिंगा भेजा था। पक्षीशास्त्री डॉ.एस सेनगुप्ता के अध्यक्षता वाले इस दल ने अपनी अनुसंधान रिपोर्ट में बताया था कि इसके पीछे इलाके की धरती का चुंबकत्व जिम्मेदार है। यानी विशिष्ट मौसम में इस घाटी के चुंबकत्व-चरित्र में परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण चिड़ियों का शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है और बदहवासी में वे रोशनी की ओर भागने लगती हैं।
लेकिन यह सिद्धांत तब खंडित हुआ जब कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि चिड़िया एक खास दिशा की ओर रखे प्रकाश स्त्रोत की ओर ही झपटती हैं। यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि अगर मौसम की वजह से इलाके का चुंबकत्व-चरित्र बदलता है तो इसका असर जतिंगा की डेढ़ किलोमीटर लंबी और दो सौ मीटर चौड़ी पट्टी तक ही सीमित क्यों रहता है?