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बिहार में सत्ता के लिए नए तरह का दलित-पिछड़ा संघर्ष - Sabguru News
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बिहार में सत्ता के लिए नए तरह का दलित-पिछड़ा संघर्ष

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बिहार में सत्ता के लिए नए तरह का दलित-पिछड़ा संघर्ष
JD(U) sacks manjhi, elects nitish kumar as new leader
JD(U) sacks manjhi, elects nitish kumar as new leader
JD(U) sacks manjhi, elects nitish kumar as new leader

6-7 फरवरी 2015 को बिहार में एक नए तरह का सामाजिक संघर्ष दिखा। महादलितों और पिछड़ों के बीच जोरदार सत्ता संघर्ष पटना की सड़कों पर नजर आया। महादलित जीतन राम मांझी और पिछड़े नितिश कुमार के बीच हुए सत्ता संघर्ष में जीतनराम मांझी की जगह जद यू विधायक दल ने नितिश कुमार को अपना नेता चुन लिया। जीतन राम मांझी अड़े रहे, वही नितिश के पास बहुमत विधायकों का समर्थन मौजूद था।

राजनीतिक घटनाक्रम से अलग यह सत्ता संघर्ष बिहार में अब एक नए सामाजिक संघर्ष का आगाज करेगा जिसका सीधा प्रभाव बिहार विधानसभा के अगले चुनावों पर पड़ेगा। इससे अछूता बिहार का कोई राजनीतिक दल नहीं रह सकेगा। क्योंकि यह बिहार के सामाजिक तानाबुना में आजादी के 65 साल बाद एक नए तरह का संघर्ष है, जो आने वाले समय में बिहार में और तेज होगा। अगड़ी जातियां अब या तो रेफरी की भूमिका में होंगे या दर्शक की भूमिका में।
जिस नितिश कुमार ने महादलित कमिशन बनाकर महादलितों का वोटबैंक अपने हक में करने की एक कुशल रणनीति बनायी थी, वो आज उल्टा पड़ गया। वही महादलित जीतनराम मांझी अब नितिश को खुलेआम चुनौती दे रहे है। नितिश कुमार और उनके गुट के लोगों को वो सामंती बता रहे है। मांझी के आरोपों में दम है। पच्चीस साल में अगड़ों का सामंती व्यवस्था पर चोट पहुंची। लेकिन कुछ पिछड़ी जातियों का व्यवहार नवसामंत के तौर पर जरूर नजर आयी।
 
जीतनराम के सहयोगियों के अनुसार जीतनराम मांझी को जब नितिश ने मुख्यमंत्री बनाया था तो नितिश कुमार के व्यवहार में सामंती झलक नजर आयी थी। उन्होंने सामंती अंदाज में ही गया जाने की तैयारी कर रहे जीतनराम को मुख्यमंत्री निवास पर बुलाया था। उन्हें मांझी को कहा कि वे अब बिहार के मुख्यमंत्री होंगे। जबकि नितिश कुमार को लोकतांत्रिक तौर तरीकों का पालन कर विधायक दल की बैठक बुलानी चाहिए थी। वहां नेता का चुनाव करना चाहिए था। लेकिन यहीं पर नितिश गलत फैसला ले गए।
जीतनराम मांझी समाज के सबसे अंतिम छोर के दबी कुचली जाति से संबंधित जरूर थे। लेकिन उनकी मूल ट्रेनिंग कांग्रेस से हुई थी। वो बिहार की राजनीति में नितिश कुमार से वरिष्ठ थे। नितिश पहली बार विधानसभा में 1985 में पहुंचे लेकिन जीतनराम 1980 और 1985 में कांग्रेस के टिकट से विधायक बने और बिहार की कांग्रेसी सरकार में मंत्री भी रहे। उन्होंने भाजपा को छोड़ तमाम राजनीतिक दलों में सफर किया। वहां भी जीत दर्ज की। अब जीतनराम ने साबित किया वो कठपुतली नहीं रहेंगे।
 
सत्ता की लड़ाई में धूर विरोधी नितिश और लालू अब एक साथ है। क्योंकि दोनों को डर है कि बिहार में महादलित एकजुटता उन्हें हमेशा के लिए सत्ता से बाहर कर सकती है। किसी समय में अगड़ों के सत्ता छीनने के बाद बिहार में दबंग पिछड़ी जातियों के बीच सत्ता संघर्ष हुआ। कुर्मी नितिश कुमार और यादव लालू यादव के बीच दस साल से ज्यादा सड़कों पर भी टकराव हुआ।
अंत में एक पिछड़े ने दूसरे पिछड़े को भाजपा के सहयोग से सत्ता से वंचित किया। लेकिन अब महादलित को कुर्सी से हटाने के लिए दोनों पिछड़े एक हो गए है। यह बिहार में एक नया सामाजिक समीकरण तय करेगा। यह संघर्ष गांवों तक पहुंचेगा। पटना की सड़कों पर जो कुछ हुआ वो गांवों में तनाव बढाने के लिए काफी है। अब दलित अस्मिता की बात होने लगी है। इस लड़ाई में तमाम दलित नेता जिसमें रामविलास पासवान और रमई राम शामिल है जीतनराम के साथ है।
 
बिहार में दलित मुख्यमंत्री पहले भी हुए। लेकिन मांझी पहले मुख्यमंत्री है जिन्होंने दलित अस्मिता को जगाया। बिहार में भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास भी दलित मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन अगड़ों के नियंत्रण से वे बाहर नहीं थे। दरअसल अभी तक बिहार में दलित और पिछड़े अगड़ों के खिलाफ एक मंच पर होते थे। इसके सहारे लालू प्रसाद यादव ने बिहार में 15 साल राज किया। इस दौरान ही दलितों ने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया था।
जीतन राम मांझी ने जो आज किया है उसकी मांग किसी जमाने में राम विलास पासवान ने की थी। लेकिन उनकी जाति का सीधा टकराव बिहार के ग्रामीण इलाकों में यादवों से है। पासवान बिहार में 6 प्रतिशत है। लेकिन अन्य जातियों के समर्थन नहीं मिलने के कारण वो यादवों को चुनौती नहीं दे सके। पासवान लडाकू जाति है और मांझी शांत स्वभाव की जाति है। मांझियों का शांत स्वभाव जीतनराम के हक में जा रहा है। जीतनराम मांझी बिहार के मगध क्षेत्र से संबंधित है। व्यक्तिगत रूप से मगध की दबंग अगडी जातियां जीतनराम मांझी को पसंद करती है।
आजादी के बाद बिहार की राजनीति दो अगड़ी जातियों के बीच घूमती रही। बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार थे। उनके मंत्रिमंडल में जाति से राजपूत अनुग्रह नारायण सिन्हा उपमुख्यमंत्री थे। दोनों के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए लंबे अर्से तक शीतयुद चला। लेकिन अनुग्रह नारायण सिन्हा को सफलता नहीं मिली। कांग्रेस के राज में मुख्यमंत्री पद पर हमेशा अगड़ों को तव्वजों मिली। भूमिहार-राजपूतों के जातीए संघर्ष को देखते हुए कांग्रेस ने बीच का रास्ता निकाला। उन्होंने ब्राहमणों को समझौते का मुख्यमंत्री बनाने की परंपरा शुरू की। यह तरकीब काफी सफल रही। बिदेंश्वरी दुबे, जगन्नाथ मिश्रा और भागवत झा जैसे ब्राहमण मुख्यमंत्री कुर्सी पर पहुंचे। इस दौरान बीच में राजपूत चंद्रशेखर सिंह और सत्येंद्र नारायण सिंह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।

हालांकि अगड़ों के खिलाफ सामाजिक-राजनीतिक चेतना बिहार में 1970 के बाद शुरू हो गई थी। सत्ता मे हिस्सेदारी दलित और पिछड़े मांग रहे थे। जेपी मूवमेंट ने इसका मौका दिया। 1977 में जब बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ तो ढाई सालों के राज में पिछड़े जाति के नाई बिरादरी के कर्पूरी ठाकुर और दलित रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री पद मिला। यह बिहार के लिए नायाब था। कर्पूरी ठाकुर की जाति की संख्या बिहार में न के बराबर थी। कर्पूरी ठाकुर ईमानदारी के प्रतीक थे। जेपी मूवमेंट ने ही दो पिछड़े और एक दलित नेता को आगे के लिए तैयार किया।

लालू यादव, नितिश कुमार और राम विलास पासवान इसमें शामिल थे। वीपी सिंह के आंदोलन में उनका पूरा उदय हुआ। लालू यादव ने बाजी मारी। मुख्यमंत्री का चुनाव हुआ तो विधायक दल में दलित रामसुंदर दास को पिछड़े लालू यादव ने पराजित कर दिया। यहीं से दलितों और पिछड़ों के बीच सत्ता संघर्ष की नींव रखी गई थी। लालू यादव के 15 साल में अगड़े पिछड़ों के संघर्ष के साथ-साथ दलित-पिछड़ा संघर्ष भी बिहार में शुरू हो गया। उसकी परिणाम आज पटना की सड़कों पर नजर आ रहा है।

 

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