6-7 फरवरी 2015 को बिहार में एक नए तरह का सामाजिक संघर्ष दिखा। महादलितों और पिछड़ों के बीच जोरदार सत्ता संघर्ष पटना की सड़कों पर नजर आया। महादलित जीतन राम मांझी और पिछड़े नितिश कुमार के बीच हुए सत्ता संघर्ष में जीतनराम मांझी की जगह जद यू विधायक दल ने नितिश कुमार को अपना नेता चुन लिया। जीतन राम मांझी अड़े रहे, वही नितिश के पास बहुमत विधायकों का समर्थन मौजूद था।
हालांकि अगड़ों के खिलाफ सामाजिक-राजनीतिक चेतना बिहार में 1970 के बाद शुरू हो गई थी। सत्ता मे हिस्सेदारी दलित और पिछड़े मांग रहे थे। जेपी मूवमेंट ने इसका मौका दिया। 1977 में जब बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ तो ढाई सालों के राज में पिछड़े जाति के नाई बिरादरी के कर्पूरी ठाकुर और दलित रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री पद मिला। यह बिहार के लिए नायाब था। कर्पूरी ठाकुर की जाति की संख्या बिहार में न के बराबर थी। कर्पूरी ठाकुर ईमानदारी के प्रतीक थे। जेपी मूवमेंट ने ही दो पिछड़े और एक दलित नेता को आगे के लिए तैयार किया।
लालू यादव, नितिश कुमार और राम विलास पासवान इसमें शामिल थे। वीपी सिंह के आंदोलन में उनका पूरा उदय हुआ। लालू यादव ने बाजी मारी। मुख्यमंत्री का चुनाव हुआ तो विधायक दल में दलित रामसुंदर दास को पिछड़े लालू यादव ने पराजित कर दिया। यहीं से दलितों और पिछड़ों के बीच सत्ता संघर्ष की नींव रखी गई थी। लालू यादव के 15 साल में अगड़े पिछड़ों के संघर्ष के साथ-साथ दलित-पिछड़ा संघर्ष भी बिहार में शुरू हो गया। उसकी परिणाम आज पटना की सड़कों पर नजर आ रहा है।