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काछन और रैला देवी से मिली दशहरा मनाने की अनुमति - Sabguru News
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काछन और रैला देवी से मिली दशहरा मनाने की अनुमति

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काछन और रैला देवी से मिली दशहरा मनाने की अनुमति
Kanchan Devi grant permission to celebrate Dussehra in jagdalpur
Kanchan Devi grant permission to celebrate Dussehra in jagdalpur
Kanchan Devi grant permission to celebrate Dussehra in jagdalpur

जगदलपुर। आज शाम काछनगुड़ी मंदिर में धूमधाम के साथ काछनगादी का पर्व मनाया गया। बस्तर के विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व को मनाने के लिए बेल के कांटों में झूलती काछन देवी विशाखा ने दशहरा मनाने की अनुमति और आशीर्वाद  दिया।

इसके पश्चात स्थानीय गोलबाजार में रैला देवी से आर्शीवाद लेने पहुंचे जहां रैला देवी ने भी निर्विध्न दशहरा हेतु आर्शीवाद प्रदान किया। इसके साथ ही दंतेवाड़ा की मॉ दंतेश्वरी देवी  तथा अंचल के अन्य देवी-देवताओं को निमत्रंण पत्र भेजा गया।
भारी आतिशबाजी और बाजे-गाजे के साथ जुलूस राजमहल से काछनगुड़ी तक पहुुंचा। जुलूस के सामने आंगादेव की सवारी चल रही थी और पुजारी अपने शरीर पर कोड़े से वार करता हुआ चल रहा था। जुलूस में बस्तर के सांसद, विधायक, सहित महाराजा कमलचंद्र भंजदेव तथा पुजारी व राजगुरू सम्मिलित थे। आदिवासियों की भारी भीड़ जुलूस का स्वागत करने काछनगुड़ी के सामने उपस्थित थी।
मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार बस्तर दशहरा की महत्वपूर्ण रस्म काछन पूजा आज अश्विन अमावस्या को पुलिस लाईन स्थित गुड़ी में संपन्न हुई, जहां नौ दिनों से उपवास कर रही नाबालिग बालिका विशाखा को देवी की सवारी आने पर उसे बेल के कांटों से तैयार झूले पर झुलाया गया। इस कार्यक्रम में पुलिस की चाक-चौबंद व्यवस्था थी। काछन देवी ने राज परिवार के सदस्यों सहित भक्तों को प्रसाद और आशीर्वाद देकर पर्व मनाने की अनुमति दी।

नारी सम्मान का बेहतरीन उदाहरण है काछनगादी
बस्तर दशहरा जातीय समभाव का प्रमुख पर्व है। इसमें सभी जाति के लोगों को जोडक़र इनकी सहभागिता निश्चित की गई थी। इसीलिए यह जन-जन का पर्व कहलाता रहा है। राज्य के महापर्व की शुरूआत जातीय व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़ी अनुसूचित जाति की बालिका की अनुमति से हो, ऐसी राष्ट्रीय एकता की भावना और नारी सम्मान का बेहतरीन उदाहरण बस्तर दशहरा में देखने को मिलता है। इस बार लगातार छटवें साल बस्तर दशहरा निर्विघ्न और सफलतापूर्वक संपन्न होने का आशीर्वाद विशाखा ने दिया।

विशाखा ने कहा व्रत रखने से मिलती है नयी उर्जा
विशाखा के परिजनों ने बताया कि बरसों से उनके परिवार की ही नाबालिग कन्या पर काछन देवी की सवारी आ रही है। विशाखा के पूर्व उसकी मौसी और मां भी काछन देवी के रूप में कांटों के झूले पर बैठ चुके हैं। परंपरा के अनुसार बस्तर राजपरिवार को काछन देवी, प्रसाद तथा फूल देकर दशहरा मनाने की अनुमति देती है, इसके बाद दशहरा के अन्य प्रमुख रस्म संपादित किये जाते हैं। विशाखा ने बताया कि उसे कांटों के झूलों पर बैठने पर डर नहीं लगता, मां दंतेश्वरी का आर्शीवाद उसके साथ है। व्रत रखने से उसे नई उर्जा मिलती है।

काछन गुड़ी का निर्माण हुआ था 1772 में
स्थानीय समाज सेवी राकेश पांडे एवं एम कृष्णाराव नायडू बताते हैं कि बस्तर अंचल में काछिन देवी, रण की देवी कहलाती है। काछिन गादी का अर्थ होता है, काछिन की देवी को गादी अर्थात् गद्दी या आसन प्रदान करना, जो कांटों की होती है। काले रंग के कपड़े पहनकर कांटेदार झूले की गद्दी पर आसन्न होकर जीवन में कंटकजयी होने का सीने में हाथ रखकर सांकेतिक संदेश देती हैं।

काछिन देवी बस्तर दशहरा में प्रतिवर्ष निर्विघ्न आयोजन हेतु स्वीकृति और आशीर्वाद प्रदान किया करती हैं। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात् बस्तर का दशहरा पर्व धूमधाम से प्रारंभ हो जाता है। इस मंदिर का निर्माण चालुक्य वंशीय राजा दलपत देव ने लगभग 1772 के पश्चात करवाया था। मान्यता के अनुसार काछिन देवी पशुधन और अन्न-धन की रक्षा करती है। प्रतिवर्ष माहरा जाति की एक नाबालिग पर काछिन देवी आरूढ़ होती हैं।

कभी बांस मुंडा तालाब में मनायी जाती थी काछन गादी
दशहरा पर्व का काछन जात्रा रस्म कभी पथरागुड़ा के बांसमुण्डा तालाब किनारे होती थी, लेकिन अब अतिक्रमणकारियों ने तालाब के अस्तित्व को ही मिटा दिया है। जिससे अब काछन जात्रा सडक़ किनारे हो रही है। वहीं काछन मण्डप का स्थान भी अतिक्रमण के चलते सीमित हो गया है। ऐसे में रस्म अदायगी में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
गौरतलब है कि 75 दिनों तक चलने वाला विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में शहर के विभिन्न जगहों पर रस्म अदायगी होती है। इसमें से काछन जात्रा भी एक महत्वपूर्ण पूजा विधान है। पथरागुड़ा भंगाराम चौक में काछन जात्रा पूजा होती है।

जानकारों के मुताबिक दशकों पूर्व पथरागुड़ा स्थित बांसमुण्डा तालाब के मेड में काछन जात्रा पूजा-विधान सपन्न होता था। कालांतर में यहां तालाब के किनारे अतिक्रमण कर मकान बनाते गये और आज उक्त तालाब का अस्तित्व ही खत्म हो गया  है। तालाब की जगह पर अब एक बस्ती बस गयी है, जिसके चलते अब सडक़ किनारे ही काछन जात्रा पूजा-विधान सम्पन्न की जा रही है।