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kashmir separatists failed to offer roadmap to all party delegation
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कश्मीर पर अब खुलेगा शिवजी का त्रिनेत्र

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कश्मीर पर अब खुलेगा शिवजी का त्रिनेत्र
kashmir separatists failed to offer roadmap to all party delegation
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कश्मीर के घायल नौजवानों के प्रति हमदर्दी जताने के लिए केंद्र सरकार ने क्या-क्या नहीं किया? प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने उन्हें ‘हमारे बच्चे’ तक कहा। उनके कंधों पर मधुर बयानों का मरहम भी लगाया। खुद गृहमंत्री कश्मीर भी गए।

बाद में सभी राजनीतिक दलों का प्रतिनिधिमंडल भी गया। घायल नौजवानों के इलाज का भी इंतजाम किया। प्रदर्शनकारियों पर छर्रों का इस्तेमाल भी बंद किया गया। गृहमंत्री पहले हुर्रियत से बात करने को राजी नहीं थे। फिर राजी भी हो गए, लेकिन दो माह से चल रही मशक्कत का नतीजा क्या निकला? सिर्फ शून्य! उससे भी कम।

कश्मीर में चल रही हिंसा रुकी नहीं। कर्फ्यू जारी है। पत्थरबाजी थोड़ी घटी है, लेकिन दिल्ली का मरहम उसका कारण नहीं है। दो माह की थकान है। डर है कि कहीं पत्थरों का जवाब गोलियों से न मिलने लगे।

दिल्ली से गए बड़े-बड़े नेता क्या खुश होकर लौटे हैं? उनका जैसा अपमान इस बार हुआ है, क्या पहले कभी हुआ है? सैयद अली शाह गिलानी ने नेताओं को अपने घर में घुसने तक नहीं दिया। क्या यही कश्मीरी संस्कृति है? हुर्रियत के जिन अन्य नेताओं से दिल्ली के नेता मिलने गए, उन्होंने भी उनसे काम की कोई बात नहीं की।

कश्मीरी नौजवानों के नाम शांति की कोई अपील जारी करना तो दूर, केंद्र के सारे प्रयत्नों को उन्होंने ढोंग करार दे दिया। जिन गैर-हुर्रियत नेताओं ने रचनात्मक सुझाव दिए, उनके सुझाव तो लागू किए जा रहे हैं, लेकिन किसी ने भी यह जिम्मेदारी नहीं ली कि अशांत जिलों में जाकर पत्थरफेंकू नौजवानों को समझाया जाए।

हुर्रियत रट लगाए हुए हैं कि पाकिस्तान से भी बात की जाए, जो गलत नहीं है, लेकिन उससे कोई पूछे कि इस बात का उन नौजवानों की पत्थरबाजी से क्या लेना-देना? जब बात होगी, तब होगी। अभी तो पत्थरबाजी बंद होनी चाहिए कि नहीं, लेकिन हुर्रियत को इसकी चिंता नहीं है कि 70-75 लोगों की जान चली गई और दर्जनों नौजवान दृष्टिहीन हो गए।

क्यों हो? ये बच्चे उनके बच्चे नहीं हैं। गरीबों के हैं, मजदूरों के हैं, बेजुबानों के हैं। उनके बच्चे तो ब्रिटेन और अमेरिका में पढ़ रहे हैं, मौज कर रहे हैं। पता नहीं हुर्रियत और पाकिस्तान के नेताओं को कश्मीरियों की मौत पर कितना दुख होता है? होता तो होगा, लेकिन उससे भी ज्यादा वे इसे अपने लिए अच्छा मौका मानते होंगे, अपनी राजनीति गरमाने का।

इसीलिए इतने लंबे रक्तपात के बावजूद शांति की कोई अपील उनकी तरफ से नहीं आई। बस, वे भारत सरकार की निंदा करने में निष्णात हैं। सरकार अभी भी आम कश्मीरियों के प्रति सद्‌भाव रखती है, लेकिन अब हिंसकों और आतंकियों पर शिवजी का तीसरा नेत्र खुलने ही वाला है।

इसलिए अब भारत सरकार का रवैया काफी कठोर हो गया है। वह न तो उस विशेष कानून को हटा रही है, जिसके तहत फौज को विशेष अधिकार मिले हैं, न फौजियों की संख्या घटा रही है, न अब हुर्रियत वगैरह से बात करने को तैयार है। यदि अब कश्मीर में हिंसा बढ़ेगी तो यह मानकर चलना चाहिए कि अब सरकार जवाबी हिंसा में कोई कोताही नहीं कर पाएगी।

जाहिर है कि काफी लोग हताहत होंगे। यह बहुत बुरा होगा, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? अभी तक तो देश की संसद, अखबारों और टीवी चैनलों ने कश्मीरी नौजवानों के साथ पूरी सहानुभूति दिखाई है, लेकिन अब कश्मीरी आतंकियों के लिए हमदर्दी कौन दिखाएगा?

अलगाववादी तत्वों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च पर रोक लगेगी, उनके बैंक खातों और सारे नकद लेन-देन की जांच होगी, उनके पासपोर्ट जब्त होंगे, उनकी विदेश यात्राओं पर प्रतिबंध लगेगा। हिंसा और आतंक को उकसाने वाले तत्वों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी होगी।

अब यदि हुर्रियत नेता या आतंकी तत्व यह मानकर चल रहे हैं कि यही मौका है, जबकि उनके मंसूबे पूरे हो सकते हैं तो वे गलतफहमी में हैं। जो हिंसा कश्मीर में पिछले 60 दिनों से चल रही है, वह अगले 600 दिन भी चलती रहे तो उनका मकसद पूरा नहीं होगा।

वे शायद इस गलतफहमी में हैं कि पाकिस्तान उनकी मदद के लिए आएगा। क्या पाकिस्तान उनकी खातिर भारत से युद्ध लड़ेगा? पाकिस्तान की आर्थिक हालत यूं ही इतनी खस्ता है कि वह युद्ध लड़ने की हिमाकत नहीं कर सकता।

फिर दो परमाणु-पड़ोसी युद्ध छेड़ने के पहले सौ बार सोचेंगे। वास्तव में कश्मीर के सवाल से पाकिस्तान के जुड़ने पर कश्मीरी पक्ष कमजोर पड़ गया है, क्योंकि पाकिस्तान का नाम आतंकवाद से जुड़ गया है और आतंकवाद से आज सारी दुनिया नफरत करती है। इसीलिए आज पूरी दुनिया में कश्मीर को रोने वाला कोई नहीं है।

अभी चीन में हुए जी-20 और लाओस में हुए आसियान सम्मेलन में जब भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंक के गढ़ (पाकिस्तान) पर हमला बोला तो किसी भी राष्ट्र ने उसके बचाव में मुंह तक नहीं खोला। यहां तक कि सऊदी अरब, तुर्की और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र भी चुप रहे। इसके अलावा बलूचिस्तान, गिलगित, बाल्तिस्तान आदि के मामले उठाकर नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान की दाल काफी पतली कर दी है।

कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पाकिस्तान अब खूब जोर लगाएगा, क्योंकि उसकी अंदरूनी राजनीति की यह जरूरत है, लेकिन उसे पता है कि इस मुद्‌दे पर अब अमेरिका का रवैया बदल चुका है और चीन भी सिर्फ कामचलाऊ समर्थन दे रहा है। दुनिया की महाशक्तियां और संयुक्त राष्ट्र भी अब कश्मीर जैसे मुद्‌दे से ऊब चुके हैं।

पत्थरफेंकू नौजवानों को सोचना चाहिए कि उनके अलगाववादी नेता आखिर उन्हें किधर ले जा रहे हैं? कश्मीर का भविष्य क्या है? क्या वे सचमुच कश्मीर को आजाद कराना चाहते हैं या पाकिस्तान में उसका विलय चाहते हैं। खुद पाकिस्तान क्या चाहता है?

क्या वह कश्मीर को आजाद करवाना चाहता है। नहीं, बिल्कुल नहीं। उसे तो वह खुद में मिला लेना चाहता है यानी कश्मीर को वह अपना गुलाम बना लेना चाहता है। यदि नहीं तो वह अपने आजाद कश्मीर को कम से कम ऐसा तो बना लेता कि हमारे कश्मीर के हजारों लोग उधर जाने की हसरत अपने दिल में रखते।

भारतीय कश्मीर की अंगीठी हमेशा सुलगाए रखना उसकी मजबूरी है, लेकिन वह भी यह जानता है कि अब भारत की भी बर्दाश्त की हद हो चुकी है। ऐसा न हो कि भारत भी अपने अलगाववादियों के साथ वही बर्ताव करे, जो श्रीलंका और चीन ने अपने अलगाववादियों के साथ किया है।

: डॉ. वेदप्रताप वैदिक