मां, माटी और मानुष के नारे के साथ पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल करने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन दिनों गुस्से में नजर आ रही है।
दीदी के गुस्से के मुख्य कारण है भारत सरकार द्वारा उन्हें विश्वास में लिए बिना ही देश में 500 व 1000 के नोटों का चलन बन्द कर देना।
8 नवम्बर की रात 8 बजे जैसे ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नाम अपने सन्देश में 500 व 1000 रूपये मूल्य के नोटों को प्रचलन से बाहर होने की घोषणा की उसके तुरन्त बाद ममता दीदी ने नोट बन्दी का विरोध शुरू कर दिया।
नोट बन्दी के बाद ममता दीदी ने केन्द्र की भाजपा सरकार के खिलाफ एक देशव्यापी अभियान चलाना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने दिल्ली में आप व शिवसेना के नेताओं के साथ मिलकर राष्ट्रपति भवन तक पैदल मार्च निकालकर राष्ट्रपति को एक ज्ञापन देकर नोटबन्दी का फैसला वापस करवाने की मांग की।
ममता बनर्जी ने केन्द्र सरकार के खिलाफ दिल्ली के आजादपुर, लखनऊ व पटना में जनसभा का भी आयोजन किया मगर लखनऊ व पटना में सत्तारूढ़ दलों द्वारा उनकी सभा को समर्थन नहीं दिए जाने के कारण उनकी रैली प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही।
ममता बनर्जी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के साथ मिलकर केन्द्र सरकार को नोटिस देकर तीन दिन में नोटबन्दी वापस लेकर पुराने नोट पुन: चलाने वरना गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी तक दे डाली थी मगर उनकी धमकी थोथी ही साबित हुई।
नोटबंदी से हो रही लोगों की परेशानी को मुद्दा बनाकर ममता ने दिल्ली से लेकर पटना तक एक कर किया और मोदी विरोधियों को एकजुट करने की कोशिश की। बंगाल में सेना की तैनाती की खबरें आईं तो ममता का गुस्सा और बढ़ गया।
बंगाल की मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार पर तख्तापलट की साजिश का आरोप तक लगा डाला और सचिवालय में ही धरने पर बैठ गई। ममता के प्लेन की इमरजेंसी लैंडिंग की खबर ने तृणमूल कांग्रेस के गुस्से में आग में घी डालने का काम किया।
इस मसले पर संसद में भी जमकर हंगामा हुआ। नोटबंदी के बाद देश के मौजूदा माहौल में ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश में भी हैं। 2019 के चुनाव के नतीजे क्या होंगे, इसे लेकर विपक्षी दलों के बीच स्थिाति साफ नहीं है।
कांग्रेस के पास इतना संख्याबल नहीं है कि वो किसी मसले पर अन्य विपक्षी दलों को एकजुट कर केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चेबंदी कर सके। बिहार में नीतीश कुमार और लालू के रिश्ते ठीक नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के कुनबे में पिछले दिनों मची कलह का देश गवाह रहा है। सपा फिलहाल आगामी विधानसभा चुनावों पर फोकस किए हुए है। ऐसे हालात में ममता आगामी लोकसभा चुनाव से पहले सरकार के खिलाफ बनने वाले किसी भी विपक्षी मोर्चे के नेता के तौर पर खुद को पेश करने की कोशिश कर रही हैं।
ममता का ध्यान भले ही राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए या अपनी पार्टी के लिए जगह बनाने पर हो, लेकिन वो राज्य में अपने मजबूत जनाधार को थेड़ा सा भी खिसकने नहीं देना चाहतीं।
ममता का मानना है कि बंगाल में लेफ्ट फ्रंट उनका प्रतिद्वंद्वी है ही नहीं, उनको कोई टक्कर दे भी सकता है तो वो है भारतीय जनता पार्टी। पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने हालांकि काफी कोशिश की लेकिन सत्ता हासिल करने से काफी दूर रही।
ऐसे में ममता अपने राज्य की जनता में से किसानों, छोटे व्यापारियों और कर्मचारी वर्ग को साधने और मोदी के खिलाफ प्रोजेक्ट करने की कोशिश में हैं।
तृणमूल नेता ममता बनर्जी सुशिक्षित और संवेदनशील हृदयवाली कठोर प्रशासक और लड़ाकू राजनेता मानी जाती रही हैं, लेकिन भारतीय सेना के कोलकाता की सडक़ों पर उतरने को लेकर उनकी जो प्रतिक्रिया रही, उसने उनकी भारतीय संविधान के प्रति विश्वास और भारतीय स्वतंत्रता के बाद के इतिहास की समझ पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
आज तक भारतीय सेना ने कभी भी किसी सरकार को अपदस्थ करने के बारे में कदाचित सोचा भी नहीं होगा। ममता बनर्जी ने भारतीय सेना के प्रति जो रुख दिखाया है और जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया उन्होंने व्यक्ति की उससे उनकी छवि खराब ही हुई है।
ममता बनर्जी के इस कृत्या पर जितनी भी प्रतिक्रया आई है, वह भी यही बताती है कि उन्हें भी संविधान की समझ और गहराई का बोध नहीं है। अपने कॉलेज के दिनों में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की गाड़ी के बोनट पर चढक़र निकम्मी सरकार के प्रति अपना विरोध व्यक्त करने वाली ममता बनर्जी बचपन से ही जुझारू छवी की रही है।
1984 में 29 वर्ष की उम्र में माकपा के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा चुनाव में पराजित कर अचानक पूरे देश में चर्चा में आई ममता बनर्जी ने 70 के दशक में कांग्रेस की छात्र इकाई से राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। वे सात बार लोकसभा सांसद व कई बार केन्द्र में मंत्री रह चुकी है।
बगावती तेवर उनमें बचपन से ही है। अपने इन्ही तेवरों के चलते उन्होने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी खुद की पार्टी तूणमूल कांग्रेस बनाई। मगर केन्द्र सरकार के नोटबन्दी के निर्णय का विरोध करके ममता दीदी विरोधी दलों में भी अलग-थलग पड़ गई है।
आज अधिकांश विरोधी दल सरकार के नोट बन्दी के फैसले का ता समर्थन कर रहें है वहीं नोटबन्दी को लेकर जनता को परेशानी होने का विरोध कर रहें है वहीं ममता दीदी आज भी नोटबन्दी के फैसले को वापस करने की मांग पर अड़ी बैठी है जो उनके राजनैतिक कैरियर के लिये हितकर नहीं जा पड़ता है क्योंकि लगातार में नोट बदलवाने के लिये लम्बी-लम्बी लाईनों लगने के बावजूद भी आम जनता प्रणानमंत्री के फसले के साथ खड़ा नजर आ रहा है।
-रमेश सर्राफ
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)