झुंझुनूं। हाल ही में दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में सम्पन्न हुऎ 17वें एशियन खेलों में महिलाओं की हैमर थ्र्रो स्पर्धा में एक चाय बेचने वाले की बेटी ने रजत पदक जीत कर अपने पिता का सपना पूरा किया ही है तथा देश एवं प्रदेश का नाम भी रोशन किया है।…
चूरू जिले के राजगढ तहसील में चांदगोठी गांव की मंजूबाला का यह पहला एशियाड है और पहली बार में उन्होंने देश के लिए पदक जीत लिया। एक जुलार्ई 1989 को जन्मी मंजूबाला ने पहले ही प्रयास में 60.47 मीटर की दूरी तय कर ली थी। मंजू का सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिगत प्र्रदर्शन 62.74 मीटर का है, जो उन्होंने इसी साल जून में लखनऊ में हुई चैम्पियनशिप में बनाया था। मंजूबाला के पिता विजयसिंह चांदगोठी गांव के बस स्टैंड पर एकचाय की दुकान चलाकर घर खर्च निकालते हैं एवं कुछ आमदनी खेती बाडी से हो जाती है।
परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर भले है लेकिन उन्होंने बेटी के सपने को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। उनके पिता का कहना है कि मंजू की सफलता में मेरे से ज्यादा उसकी मां संतोष देवी का योगदान रहा। उसकी मां पढ़ी लिखी नहीं है, इसके बावजूद मंजू को हमेशा प्रोत्साहित किया। सच कहूं तो एक मां ही बेटी को बाहर भेज सकती है, पिता में ऎसा साहस नहीं होता। मंजू राष्ट्रीय स्तर पर कई रिकार्ड बना चुकी है। करीब दो दर्जन गोल्ड मेडल उसके घर में सजे है लेकिन एशियाड में पहली बार गई है।
मंजू के पिता ने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए बताया कि कई बार ऎसा हुआ जब मंजू को टूर्नामेंट या ट्रेनिंग में भेजने के लिए गांव वालों से ही उधार पैसे लेने पडे हैं। दिल्ली कामॅनवैल्थ गेम्स से पहले भी उसकी ट्रेनिंग के लिए पैसे उधार लिए। मुझे उसका अफसोस नहीं है, क्योंकि बेटी ने ऎसा काम कर दिया, जिसके सामने यह कर्ज कुछ भी नहीं है।
विजय सिंह ने बताया कि मंजू बाला ने वॉलीबाल से अपना खेल कॅरिअर शुरू किया था। वे जूनियर स्टेट खेली हुई है। नौवीं क्लास में उन्होंने वॉलीबाल के साथ ही शॉटपुट भी खेलना शुरू कर दिया था। इस दौरान वे एक टूर्नामेंट के सिलसिले में बाहर गई। वहां पर पहली बार हैमर थ्र्रो देखा। घर आकर बोली की अब में हैमर थ्र्रो खेलना चाहती हूं। बस यहां से वे इसी इवेंट में आगे बढ़ती गई।
अपने खेल के बारे में मंजूबाला ने बताया कि उनके गांव में ऎसा कोई मैदान नहीं था जहां वह हैमर थ्र्रो का अभ्यास कर सके। इसलिए समय मिलते ही वह गांव के बाहर जाने वाले कच्चे रास्ते पर अभ्यास में जुट जाती। कई बार राहगीर उसे अभ्यास करते देख हंसते थे तो कई लोग उसके अभ्यास से रास्ते में व्यवधान होने से नाराज भी होते थे। मगर उसने हिम्मत नहींं हारी व अपना अभ्यास जारी रखा।
वर्ष 2005 में उसका चयन राष्ट्रीय टीम में हो गया जहां मैनें स्वर्ण पदक जीता। इस स्वर्ण पदक ने मेरी किस्मत खोल दी और उसके बाद मैंने क भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वर्ष 2012 में मंजू की अहमदाबाद रेलवे में क्लर्क नौकरी लग गई और दो साल पहले उसकी शादी भी कर दी। विजय के अनुसार सेना में कार्यरत मंजूबाला के पति राकेश कुमार ने भी उसकी काफी हौसला अफजाई की, इसी कारण शादी के बाद भी वे खेल रही है। इस बार इंचियोन एशियाड में रजत पदक जीतकर वे बेहद खुश है और आगे भी ऎसा प्रदर्शन जारी रखना चाहती है।
उनके पिता ने बताया कि अपनी बेटी को इस मुकाम पर पहुंचाने में अब तक उनको सरकार से कोई बड़ी सहायता नही मिली है। मंजूबाला ने जब नेशनल गेम्स में मेडल जीता था तब राज्य सरकार ने उसे तीन लाख रूपए का पुरस्कार जरूर दिया था। इसके अलावा और किसी तरह की सहायता या सम्मान उसे नहीं मिला।
इंचियोन में रजत पदक जीतकर देश को गौरवान्वित करने वाली मंजूबाला ने कहा कि अभिभावक खेलों का ऎसा वातावरण तैयार करे कि बच्चे बिना झिझक के खेलों में अपना कॅरियर बना सके। हरियाणा सरकार की तरह राजस्थान में भी खेलों को प्रोत्साहन मिले। पदक लाओ पद पाओं योजना शुरू की जानी चाहिए। कोई भी युवा प्रतिभा अवसरों व सुविधाओं से वंचित ना रहे।
उसका आगामी लक्ष्य अपने पति व हैमर थ्रो के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी रमेश मान के निर्देशन में अभ्यास कर 2016 में होने वाले ओलम्पिक खेलों में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतने का है।