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Maoist menace : Time for Serious Action
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दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में नासूर बन गया नक्सलवाद

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दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में नासूर बन गया नक्सलवाद
Maoist menace : Time for Serious Action
Maoist menace : Time for Serious Action
Maoist menace : Time for Serious Action

बिहार में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 10 कमांडों शहीद हो गए हैं। क्रूर नक्सलियों के हाथों देश के 10 रणबाकुरों की इस शहादत से यह साबित होता है कि आतंकवाद की ही भांति नक्सलवाद भी देश में ऐसी ज्वलंत समस्या है जो देश के कर्णधारों में दृढि़ इच्छाशक्ति के अभाव के कारण दिनों-दिन विकराल होती जा रही है।

नक्सलवाद के प्रभावी उन्मूलन एवं नक्सलियों की नशें तोडऩे का दंभ भरने वाली सरकारों ने सिर्फ कागजी दावों के अलावा इस दिशा में धरातलीय स्तर पर कोई चमत्कारिक काम नहीं किया है। उसी का नतीजा है कि देश में नक्सलियों के हाथों कभी निरीह आम जनों को तो कभी सुरक्षा तंत्र से जुड़े हुए रणबाकुरों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है।

यह बेदह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में जब भी नक्सली हमला होता है तो देश की व्यवस्था से जुड़े जिम्मेदार जनों द्वारा सिर्फ बयानबाजी एवं निंदा-आलोचना की रम्स अदायगी से ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि नक्सलवाद के समूल सफाए की दिशा में एक इंच भी आगे बढऩे के लिए ईमानदारी पूर्ण कदम नहीं उठाए जाते।

देश में बढ़ते नक्सलवाद के लिए नक्सलियों के प्रति सहानुभति रखने वाले वह झंडाबरदार भी जिम्मेदार हैं जो अपने कतिपय स्वार्थ के लिये नक्सलियों की हिमायत करते हैं तथा उनके द्वारा नक्सलियों की घोर अमानवीय एवं पाशविक विचारधारा का समर्थन किया जाता है तथा मानवाधिकार की दुहाई दी जाती है।

सरकारों द्वारा नक्सलियों से कई बार हिंसा का रास्ता छोडक़र राष्ट्र एवं समाज की मुख्यधारा में शामिल होने तथा उनका आत्म समर्पण सुनिश्चित कराने के साथ ही उनके आर्थिक व सामाजिक कल्याण की कवायद भी की जाती है। तब भी नक्सली अपनी पाशविक विचारधारा को छोडऩे व समाज की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए तैयार नहीं होते।

इसकी सबसे बड़ी वजह नक्सलियों द्वारा की जाने वाली विदेशी फंडिंग तो है ही साथ ही भारत में सक्रिय नक्सलियों के माध्यम से कुछ अंतर्राष्ट्रीय भारत विरोधी ताकतें भी भारत में नक्सलवाद के नासूर बनने के लिए प्रमुखता के साथ जिम्मेदार हैं। वहीं देश के सत्ताधारियों की विडंबना यह है कि नक्सलवाद से निपटने के प्रति उनकी कोई दृढ़ इच्छाशक्ति व दूरदर्शी सोच नहीं है।

देश से नक्सलवाद का सफाया करना ही होगा, भले ही इसके लिये सेना की पर्याप्त तैनाती करके भीषण बल प्रयोग का सहारा क्यों न लेना पड़े। वैसे भी आतंकवाद की समस्या के समाधान के लिये अगर सेना की मदद ली जा सकती है तो नक्सलवाद के प्रभावी उन्मूलन और नक्सलियों को उनकी औकात बताने के लिए सेना का इस्तेमाल करने से परहेज क्यों किया जाए?

कुछ वर्ष पूर्व जब छत्तीसगढ़ की जीरमघाटी नक्सली हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, कार्यकर्ता तथा सुरक्षा तंत्र से जुड़ हुए लोग शहीद हुए थे तो सरकार की तरफ से जोर-शोर से यह कहा गया था कि नक्सलवाद के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़ी जाएगी।

नक्सलविरोधी विस्तृत कार्ययोजना का ब्योरा देते हुए तब बताया गया था कि देश के नक्सल प्रभावित इलाकों की निगरानी ड्रोन के माध्यम से कराई जाएगी तथा नक्सलवाद के खिलाफ ऐसी निर्णायक जंग देड़ी जायेगी कि नक्सली या तो आत्म समर्पण को मजबूर हो जाएंगे या फिर वह देश छोडक़र चले जाएंगे।

लेकिन इतना लंबा वक्त बीतने के बावजूद स्थिति जस की तस है तथा देश में आए दिन नक्सली हमले होते रहते हैं। उसी क्रम में बिहार में नक्सलियों ने 10 सीआरपीएफ कामांडो को मौत के घाट उतार दिया।

अमानवीयता के पर्याय इन नक्सलियों को जितना धिक्कारा जाए उतना कम ही है, साथ ही सरकार को भी शर्म आनी चाहिये जो नक्सलवाद को कुचलने के मामले में कूटनीति व चालाकी पूर्वक काम कर रही है। देश के राजनेता यह समझ नहीं पा रहे हैं कि नक्सलियों का कोई मानवीय सरोकार व सामाजिक एजेंडा नहीं होता। वह तो बस नरभेडिय़े हैं, जिन्हें बोली नहीं बल्कि गोली के माध्यम से ही सुधारा जा सकता है।

नक्सली अगर यह दावा करें कि उन्होंने अन्याय व अत्याचार से त्रस्त होकर हथियार उठाया है तो उनके इस तर्क में कुछ खास दम नहीं है क्यों कि सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर ऐसी तमाम योजनाओं एवं कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है, जिनकी मदद पीडि़तों-प्रताडि़तों द्वारा ली जा सकती है।

साथ ही मानवीय सरोकारों से युक्त तमाम ऐसे लोग हैं जो पीडि़तों-प्रताडि़तों की मदद के लिये तत्पर रहते हैं। फिर नक्सलवाद का रुख अख्तियार करने का क्या औचित्य है? सरकार को चाहिए कि वह नक्सलवाद के मामले में कागजी खानापूर्ति एवं फर्जी दावे करने के बजाय धरातल पर ठोस कदम उठाए।

सुधांशु द्विवेदी