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marriage is a love, partnership of equality, gentleness, generosity and dedication
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प्रेम, समर्पण और विश्वास की मूरत है ‘विवाह’

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प्रेम, समर्पण और विश्वास की मूरत है ‘विवाह’
indian marriage is a love, partnership of equality, gentleness, generosity, calm and dedication and belief is that the image of 'marriage'
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जिसके प्रेम में बावले हो कर शादी की उसी ने अपने प्रेमी से पति की हत्या करा दी, जिसके लिये घर मर्यादा, जाति धर्म सब के बंधन को तोड़ दौड़ी चली आई, उसी पति ने अपने प्रेमिका के खातिर घर से बेघर कर दिया। ऐसी ही खबरों से आजकल समाचार पत्र भरे हुए हैं और परिवार इन समस्याओं के गहन अंधकार से जूझ रहे हैं।

आज के युवा जिसे प्रेमानुभूति समझ विवाह की डोर में बंध रहे हैं, वह महज आकर्षण या स्वार्थ भ्रम ही सिद्घ हो रहा है। आज के दौर में ’ब्रेक अप‘ का एक नया शब्द विन्यास प्रचलन में है। जहां ये मदमस्त नौजवान बड़े सहज भाव से कहते हैं कि अब हमारा उससे ’ब्रेक अप‘ हो गया और इनसे दोस्ती या प्रेम शुरू हो गया, पर क्या ऐसा कह देने मात्र से अतीत इस ’ब्रेक अप‘ से लौट सकता है। कदापि नहीं, बल्कि इसकी कड़वाहट पूरी जिंदगी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी।

क्या आप जानते हैं जितने साहस से आप वाट्स एप, मैसेज या अन्य ऐप पर अपने दोस्तों से इस संदर्भगत बात लिखते हैं वहीं सब आपके वैवाहिक जीवन को तबाह करने के हथियार बन सकते हैं।

इस पर भी आज के युवक, युवतियों को गंभीरता से विचार करना चाहिये। आपकी ये गलती भविष्य में अपराध का रूप ले सकती है, ये मैं नहीं कह रहा, रोज ही समाचार पत्रों में ये खबरें आती हैंं।

भारतीय संस्कृति में वर्णित सोलह संस्कार में ’विवाह‘ संस्कार का अत्यंत महत्व है। यह संस्कार एक व्यक्ति के जीवन को पूर्णता प्रदान करता है। यह संस्कार जैसे प्रकृति को ब्रह्म में समाहित करती है। जीवन यदि यात्रा है तो इस संघर्षशील विस्मयकारी यात्रा में ’विवाह‘ हमसफर के दिव्य लक्ष्य को प्राप्त करती है।

’पाणि‘ का एक अर्थ आत्मा ही होता है और ’पाणि ग्रहण‘ का तात्पर्य आत्मा का आत्मा में समाहित हो जाना है। ये एक ऐसे पवित्र रिश्ते की बुनियाद होती है जिसमें दो तन एक मन, आत्मा से जन्म-जन्मान्तर के आलौकिक बंधन में समाहित हो, लौकिक जगत की यात्रा पूरी करते हैं।

श्रीमद्भागवत में एक सुन्दर श्लोक है- ’दुर्लभं मानुषं देहि, देहिनां क्षणु भंगुरा‘। मनुष्य का शरीर दुर्लभ है किंतु क्षणु भंगुर भी। इस छोटे से जीवन सफर में परिवार उसका घरौंदा होता है, जहां सुकन, शांति, आनंद, सुख-दुख, संघर्ष, सफलता और फिर अंतिम विश्रांति उसे मिलती है। परिवार, जिसे गृहस्थ आश्रम कहा गया है, व्यक्ति के जीवन की रीढ की तरह होती है और विवाह जिसकी बुनियाद होती है।

आज भौतिकवाद की चकाचौंध में नई पीढी इस बुनियाद के प्रति लापरवाह हो चली है और माता-पिता भी इसे केवल एक दायित्व मानकर इसके प्रति उदासीनता, तनाव, भय और अधीरता का भाव लिये गंभीरता खोते जा रहे हैं। वस्तुत: जीवन की बुनियाद विवाह है, जो सत्य, विश्वास, पवित्रता और समर्पण के आधार स्तंभों पर खड़ा होता है।

भारतीय संस्कृति में पाणिग्रहण संस्कार के पूर्व सप्तपदी (सात वचन) गृहस्थ जीवन की महत्ता को ही प्रतिपादित करते हैं, जिसमें वर-वधु सत्य, पवित्रता, विश्वास और समर्पण के साथ जीवन प्रारंभ करने का संकल्प और वचन लेते हैं।

लेकिन आजकल तथा -कथित आधुनिक शैली के लोग तो छल, कपट, धोखा और फरेब के आवरण से विवाह की पवित्रता को दूषित करने में लगे हैं। हमें इस बात के लिए सजग होना पड़ेगा कि झूठे स्वाभिमान और स्वार्थ की प्रतिपूर्ति के लिये हमारे बच्चों का जीवन बर्बाद न हो सके।

प्रश्न यह है कि आप किस जीवन शैली को स्वीकार करते हैं? आधुनिक, पाश्चात्य अथवा संस्कारवान जीवन शैली। आप जिस भी शैली में रहते हैं उसे पूर्ण रूप से उस परिवेश में ढालकर जीवन जीना सीखें, क्योंकि जीवन जीना और यापन करना एक कला है।

किंतु भारतीय परिवेश ही एक ऐसा परिवेश या पद्घति है, जिसमें व्यक्ति जीवन को सुखमय और आनंदपूर्ण बना सकता है। इस संस्कृति के मूल्यों को जीवन में उतारकर ही एक इंसान में इंसानियत जागृत होती है।

आपकी संतान आपके दिये संस्कार एवं जीवन शैली के आधार पर ही अपना विकास करते हैं। उनके जीवन पर माता-पिता के आचार-व्यवहार का सीधा प्रभाव पड़ता है और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो फिर ये मां-बाप का अनिवार्य कर्तव्य है कि उन्हें समय रहते रोकें-टोकें और सँवारें, क्योंकि उनके वयस्क हो जाने पर उन्हें रोकने-टोकने या डाँटने से उनमें किसी सुधार की संभावना नगण्य ही होती है।

एक बिटिया ने वयस्क होते ही प्रेम का रोग पाल लिया। चार बरस तक अपने प्रेमी को पति बनाने जेहाद करती रही पर समाजसेवी माँ और शराबी बाप ने उसकी एक न सुनी। भावनात्मक ब्लैकमेल कर उसकी शादी एक संस्कारवान, कुलीन परिवार में कर दी। जहाँ न उसे शराब नसीब था न माँस न सिगरेट।

ये अन्याय था बेटी के साथ, ये धोखा था उस नवयुवक के साथ जो इससे अनजान अपने गृहस्थ जीवन के आनंद में समाहित होना चाहता था, ये फरेब था उस लडक़ी के प्रेमी के साथ जिसे पति मान वह जेहाद कर रही थी और सजा थी लडक़े के माता-पिता को, जो संस्कारवान बहू की कल्पना संजोये थे, फिर लडक़ी के माँ-बाप को कौन सी खुशी मिल रही थी इस गुनाह से।

कितना अच्छा हो कि नवजीवन का शुभारंभ सत्य से हो, विवाह के पूर्व रिश्ते के चयन के समय पर वर-वधु के माता-पिता, परिवार, आचरण और खान-पान के बारे में सच कहें, कोई कपट या छिपाव न रखें।

विवाह विश्वास की मजबूत डोर से बंधा होता है। यदि बच्चों का कोई अतीत दूषित रहा हो तो वे एक-दूसरे से चर्चा के समय इसे सुस्पष्ट कर दें ताकि, ऐसे अतीत उनके वर्तमान को दुखद कर भविष्य को प्रताडि़त न कर सके।

घर मंदिर होता है। तन, मन और आत्मा की पवित्रता विवाह को सात जन्मों का जीवन प्रदान करती है। आप कितने भी पाश्चात्य हो जाऐं, यदि विश्वास झूठा निकला तो संदेह की आग आपके जीवन को राख का ढेर बना देगी।

यदि वर-वधु के जीवन में समर्पण नहीं तो वे ’हम तुम्हारे बन गए, तुम हमारे बन गए‘ का सुखद अहसास नहीं कर पाएंगे, बल्कि ’’चाह में है और कोई, राह में है और कोई‘ के घुटन में दम तोड़ देंगे।

छलकपट और धोखा, विवाह या गृहस्थ जीवन का आधार नहीं, झूठ की बुनियाद में रिश्ता ही नहीं होता, वो तो $फरेब और धोखा ही होता है और ऐसे षड़यंत्र के परिणामों से आज समाचार पत्र भरे होते हैं। ऐसे रिश्ते तीन गति को ही प्राप्त होते हैं- हत्या, आत्महत्या या तलाक।

भावनात्मक दबाव, झूठी शान, दूषित परम्परा और मन मार के जीवन बिताने से बेहतर है कि आप ऐसे बंधन से मुक्त हो जाऐं। क्योंकि विवाह गृहस्थ जीवन का आधार है और गृहस्थ जीवन आनंद का संसार है।

तुलसी ने सटीक कहा है-

’तुलसी कबहुं न छाडि़ये, अपने कुल की रीत,
लायक हों सों कीजिये, ब्याह बैर और प्रीत।।‘
जैसे मंदिर में मूरत की पूजा होती है वैसे ही गृहस्थ जीवन में ’विवाह‘ संस्कार पूज्यनीय है, क्योंकि प्रेम, समपर्ण और विश्वास की मूरत है ’विवाह‘

पं. सुरेन्द्र बिहारी गोस्वामी