समस्त भारतीय पर्व उत्सवों में संभवतः गुरु पूर्णिमा ही ऐसा पर्व और परम्परा है जिसे विश्व में सर्वाधिक स्वीकार किया गया है। गुरु के प्रति कृतज्ञता, धन्यवाद, सम्मान व स्वयं की लघुता प्रकट करनें का यह अवसर मानव सभ्यता का प्रिय त्यौहार बन गया है।
यह आश्चर्य जनक तथ्य है कि भारत से गुरु परम्परा सीखनें वाली अटलांटिक सभ्यता में गुरुओं की संख्या अब तक की किसी भी अन्य सभ्यता से अधिक थी। दक्षिण अमरीका, यूरोप, मिस्र, मेसोपोटामिया, तिब्बत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका, बर्मा और जापान आदि देशों में में गुरु परंपरा आज भी समृद्ध रूप में चल रही है। भारत से यह गुरु परम्परा प्रागैतिहासिक एवं पाषाण काल में ही विश्व भर में जाने लगी थी।
सार्वभौमिक हो गई गुरु परम्परा यद्दपि पश्चिम में समय समय पर होनें वाले युद्धों, प्राकृतिक आपदाओं व सांस्कृतिक पतनों के चलते क्षीण होती चली गई तथापि अब फिर से पाशचात्य जगत भारतीय गुरु परम्परा में अपनी आध्यात्मिक शान्ति व मानसिक सुख को खोजनें लगा है।
गुरु पूर्णिमा के इस अवसर पर स्वाभाविक ही है कि हम इस पर्व के व्यापक मायनों व अर्थों को अपनें वर्तमान भारतीय सन्दर्भों में अधिकाधिक टटोल लेवें। समूचे विश्व को गुरु पूर्णिमा जैसा अदभुत व वर्ष भर प्रेरणा भरा पर्व देनें वाले हम भारत में ही यह गुरु परम्परा क्षीण होती जा रही है।
पहले तो गुरु परम्परा के प्रति शिष्यों व विद्यार्थियों में अनादर का भाव आना प्रारंभ हुआ किन्तु अब प्रमुखता से देखनें में आ रहा है कि स्वयं गुरु समूह भी आदर प्राप्त करने योग्य आचरण नहीं कर रहा है। हाल ही के वर्ष में घटित दिल्ली के जेएनयू की घटना को गुरु संस्था के क्षरण की प्रतिनिधि घटना माना जा सकता है।
हम यदि दिल्ली जेएनयू घटना को वहां के गुरुओं अर्थात प्रोफेसर्स की भूमिका के मापदंड से जांचे तो पाएंगे कि हमारी गुरु परम्परा को वहां के शिक्षक वृन्द ने गर्त में पहुंचा दिया है। जेएनयू में जिस प्रकार की संस्कृति पिछले दशकों में विकसित हुई है वह केवल विद्यार्थियों के चरित्र पतन की एक घटना नहीं है अपितु उससे बहुत अधिक आगे बढ़कर वह गुरु अर्थात शिक्षक संस्कृति के पतन की एक प्रतिनिधि घटना है।
गुरु तो वह होता है जो ‘गुरु मृत्यु औषधि पयः’ करे अर्थात हमारे पूर्व व्यक्तित्व को पूर्णतः मार डाले। “गुरु मृत्यु ओषधि पयः” का अर्थ ही यह है कि यदि हमें सद्गुरु मिल गएं हैं तो वे पहले तो हमें मार डालेंगे और फिर औषधि पयः अर्थात गुरु मंत्र की औषधि पिला कर हमारें समस्त विकारों को समाप्त कर हमें नया जीवन देंगे अर्थात सद्गुरु हमारें पूर्व रूप और व्यक्तित्व को समाप्त कर देंगे और फिर हमें अपनें गुरु मंत्र से अर्थात शिक्षा की औषधि से जीवित करके हमें आमूल चूल परिवर्तित कर एक नया व्यक्तित्व-जीवन देंगे।
यदि हम इस परिप्रेक्ष्य में जेएनयू के प्रोफेसर्स की भूमिका को पूरे देश के शिक्षक वृन्द की भूमिका के विषय में प्रतीक रूप में लेंगे तो वह भारत में अनेकों स्थानों पर चल रही आदर्श गुरु परम्परा के विषय में अन्याय हो जाएगा। जेएनयू जैसी स्थिति अभी देश में कुछ सीमित स्थानों पर ही है जहां कि गुरु परम्परा व गुरु-शिष्य सम्बंध गर्त में पहुंच गए हैं। अतः इस आलेख में भारत अब भी सैकड़ों स्थानों में चल रही लगभग आदर्श या आदर्श गुरु परंपरा से आदर पूर्वक क्षमा मांग रहा हूं। इस संदर्भ में संत कबीर ने एक बहुत सुंदर-सार्थक दोहा कहा है –
‘गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर-बाहर चोट।। ’
जैसे कुम्हार घड़ा बनाते समय घड़े की मिट्टी में पड़े कंकड़ों को बीन-बीन कर निकाल फेंकते हैं और घड़े के भीतर हाथ का सहारा देते हुए लकड़ी से थाप देकर उसे मजबूत बनाते हैं वैसे ही सद्गुरु भी अपने शिष्यों की संपूर्ण विकृतियों को पहले चुन-चुन कर दूर करते हैं और इसके लिए गुरु अपने शिष्यों को अनुशासित करते हैं तथा अपने शिष्यों पर अपनी करुणा, स्नेह व वात्सल्य का सहारा देकर उसे भव्य, शांत एवं ब्रहम्ग्य बना देते हैं।
जेएनयू के जैसे शिक्षकों को आज यह स्मरण करना चाहिए कि गुरु-शिष्य सम्बंध मानवीय विकास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है। भारत में अधिकांश सांगठनिक विकास का आधार गुरु परम्परा से हुआ है. आध्यात्मिक संगठन, संप्रदाय संगठन, वैचारिक संगठन यहां तक कि अनेक राजनैतिक संगठनों का उद्गम भी गुरु परम्परा से हुआ है। अनेक बड़े बड़े तथा व्यापक सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक, संगठन व मठ, मंदिर, आश्रम, संप्रदाय गुरु परम्परा से पीढ़ी दर अपनी शिष्यों की समृद्ध विरासत को आगे बढ़ा रहें हैं।
समाज को आलोकित-प्रकाशित कर रहें हैं। जेएनयू घटना ने हमारे वर्तमान समाज को एक अवसर दिया है कि हम हमारी समूची शिक्षा व शिक्षक व्यवस्था को एक नए दृष्टिकोण से देखें। जेएनयू की घटना या चुनौती को एक अवसर रूप में लिया जाना चाहिए. यही नहीं अपितु मेरा मानना है कि प्रकृति ने सर्वाधिक सही समय पर जेएनयू घटना को उभारा है, यह सटीक व अनुकूल समय है कि हमारें समाज के इस प्रकार के दोष और विकार उभर-उभर कर निकलें व सामने आएं ताकि हम उनका निवारण-निराकरण कर सकें।
यदि आज हम हमारी गुरु शिष्य परंपरा को, शिक्षा व्यवस्था को व शिक्षक प्रशिक्षण व उत्तरदायित्व व्यवस्था को आमूल चूल जांच कर, उसके गुण-दोष देखकर आगे नहीं बढ़े तो कहीं न कहीं इतिहास की दृष्टि में दोषी कहलाएंगे।
गुरु शिष्य सम्बंध भारतीय संस्कृति का एक अदभुत किन्तु गूढ़ विषय रहा है। यह जितना सरल, सहज व सुबोध सम्बंध दिखता है उससे दोगुना गुह्य, गहरा व दायित्वपूर्ण सम्बंध है। गुरु शिष्य परंपरा की चर्चा के बिना भारतीय संस्कृति की चर्चा अधूरी ही रहेगी। गु और रु दो शब्दों से मिल कर बनने वाला गुरु शब्द एक वृहद व गुरुतर भाव को समेटे हुए होता है। “गु” शब्द का अर्थ है अन्धकार या अज्ञान और “रु” शब्द का अर्थ है ज्ञान या प्रकाश।
अज्ञान नाम के अन्धकार का खंडन करने वाला जो ज्ञान पुंज है वह गुरु है। वर्तमान समय के शिक्षकों, आचार्यों, व प्रोफेसर्स को व विद्यार्थियों यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है।
“गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वर:
गुरुर साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः”
संत कबीर दास जी ने भी लिखा है कि –
“गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूँ पांय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय”
गोविन्द से भी सर्वोपरि गुरु को मानने की हमारी परम्परा में शिष्य में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा होती थी। गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता का भाव ही गुरु शिष्य परम्परा का आधार होता था।
अब आज आवश्यकता इस बात की हो गई है कि हम न केवल गुरु शिष्य सम्बंधों को हमारी प्राचीन आदर्श स्थिति में ले जायें अपितु इससे भी अधिक गुरुओं को भी अपने आपको यथा नाम बदलना होगा। आज के शिक्षक अपनें आचरण, चरित्र व व्यवहार से ऐसा आदर्श प्रस्तुत करें कि प्राचीन गुरुओं की अवधारणा अपनें जीवंत रूप में सामनें दिखलाई पड़े।
श्रीराम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनी, चन्द्रगुप्त-चाणक्य, विवेकानंद-स्वामी रामकृष्ण आदि की परम्परा अपनें सम्पूर्ण स्वरूप में आगे बढ़ेगी तभी भारत अपनें सांस्कृतिक वैभव शिखर पर पुनः आरूढ़ हो पाएगा। जेएनयू जैसी घटनाएं, अप संस्कृति व लत-आदतें आगें बढेंगी तो निश्चित रूप से हमारा सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक पतन ही नहीं होगा बल्कि सर्वांगीण और समूचे हम भारतीय पतन की गर्त में ऐसे धसेंगे कि कही दिखलाई भी न पड़ेंगे।
: प्रवीण गुगनानी