देश में समान नागरिक संहिता को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है। इस बीच केंद्र सरकार ने एकाएक बड़ा कदम उठाते हुए विधि आयोग से इसे लागू करने को लेकर आ रही दिक्कतों की पड़ताल करने के लिए कहा है। आजादी के बाद यह पहला मौका है जब किसी सरकार ने आयोग से इस तरह की रिपोर्ट मांगी है।
रिपोर्ट के बाद यदि समान नागरिक संहिता कानून बन जाता है तो इससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाएगा, जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू होगा। आदिवासी और घूमंतू जातियां भी इसके दायरे में आ जाएंगी। इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 44 में भी मिलता है।
सर्वोच्च न्यायलय भी कई बार ‘समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केंद्र सरकार के रुख को जानने की पहल कर चुकी है। दरअसल संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत भी यही अपेक्षा रखता है कि समान नागरिकता संहिता लागू करने की दिशा में उचित पहल हो। केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार से यह उम्मीद ज्यादा इसलिए है,क्योंकि यह मुद्दा भाजपा के राम मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने के बुनियादी मुद्दों में शामिल है।
इसीलिए अदालत द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में विधि मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा कि ‘राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है।‘ किंतु चतुराई से अगले वाक्य में यह भी जोड़ दिया था ‘इस मसले पर सभी हितधारकों से विचार-विमर्श की जरूरत है।‘ दरअसल यही वह पेंच है,जो असमान कानूनों को एकरूपता में ढालने में रोड़ा बनता है।
इसमें सबसे बड़ी चुनौतियां बहुधर्मों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं हैं,जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार, गोद जैसे अधिकारों को दीर्घकाल से चली आ रही क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं। इनमें सबसे ज्यादा भेद महिलाओं से बरता जाता है। एक तरह से ये लोक प्रचलित मान्यताएं महिला को समान हक देने से खिलवाड़ करती हैं। लैंगिक भेद भी इनमें स्पष्ट परिलक्षित रहता है।
वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति,पुरातन परंपराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंततःकानूनी असमानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम कर रहे हैं। इसलिए समाज,लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं। इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं।
हांलाकि संविधान के भाग-4 में उल्लेखित राज्य-निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है। इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता है।
किंतु यह प्रावधान विरोधाभासी है,क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-26 में विभिन्न धर्मावलंबियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं,जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं।
इसलिए समान नागरिक संहिता की डगर कठिन है। क्योंकि धर्म और मान्यता विषेश कानूनों के स्वरूप में ढ़लते हैं तो धर्म के पीठसीन, मंदिर, मस्जिद और चर्च के मुखिया अपने अधिकारों को हनन के रूप में देखेंगे।
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग इस परिप्रेक्ष्य में यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों,मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा। जबकि यह परिस्थिति तब निर्मित हो सकती है,जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय नजरिया अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप दिया जाए।
जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई संभव नहीं है। विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है,जहां एक धर्म के लोग रहते हों। भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मायने हैं कि विभिन्न धर्म के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट हो?
इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति,बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता को बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है,किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है? इस दृश्टि से देश में समान‘दंड प्रक्रिया सांहिता‘ तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू है,लेकिन समान नागरिकता संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है।
इस बाबत सबसे अह्म 1985 में आया इंदौर का ‘मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम‘ मुकदमा है। इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में सुनाया था। फैसले को सुनाते वक्त अदालत ने यह चिंता भी प्रगट की थी कि ‘संविधान का अनुच्छेद-44 अभी तक लागू नहीं किया गया।
‘अनुच्छेद-44 को लागू करने की बात तो छोड़िए,इस फैसले पर जब मुस्लिम समाज ने नाराजी जताई तो प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ राजीव गांधी सरकार के हाथ-पांव फूल गए। गोया,आनन-फनन में मुस्लिम कट्टरपंथियों की मांग स्वीकारते हुए ‘मुस्मिल महिला विधेयक-1986‘ संसद से पारित कर दिया गया।
मुस्लिम महिलाओं के लैंगिक अधिकारों से यह खिलवाड़ उस कांग्रेस ने किया, जो कथित धर्मनिरपेक्षता के आडंबर को अपने सिर पर उठाए फिरती है। धर्मनिरपेक्षता का यही छद्म न्याय के समान कानूनों के निर्माण में प्रमुख अडंगा है।
इसी तरह 1995 में सरला मुद्गल बनाम भारत सरकार और 2003 में वल्लामोटम बनाम भारत सरकार मामलों में भी न्यायालय ने विवाह, तलाक, गोद व विरासत आदि मामलों के परिप्रेक्ष्य में सरकारों को आगाह किया था कि अनुच्छेद-44 में निर्देशित समान नागरिक संहिता को संसद से पारित किया जाए। लेकिन सरकारें हैं कि कानों में अंगुलियां ठूंसे हुए हैं।
हालांकि अब कई सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जता रहे हैं। उनकी मांग है कि तीन तलाक और बहुविवाह पर रोक लगे। यह अच्छी बात है कि शीर्ष न्यायालय ने भी इस मासले पर बहस और कानून की समीक्षा की जरूरत को अहम् माना है। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि खुद मुस्लिम समाज के भीतर पर्सनल लॉ को लेकर बेचैनी बढ़ रही है।
ऐसे महिला और पुरूष बड़ी संख्या में आगे आए हैं, जो यह मानते है कि पर्सनल लॉ में परिवर्तन समय की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम संगठनों की प्रतिनिधि संस्था आॅल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ये-मुशावरत ने दो महीने पहले अपील की थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाएं।
इस्लाम के अध्यता असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ दरअसल ‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ‘ है, जो फिरंगी हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए फैसलों पा आधारित है। लिहाजा इसे संविधान की कसौटी पर परखने की जरूरत है।
दरअसल देश में जितने भी धर्म व जाति आधारित निजी कानून हैं, उनमें से ज्यादातर महिलाओं के साथ लैंगिक भेद बरतते हैं। बावजूद ये कानून विलक्षण संस्कृति और धार्मिक परंपरा के पोशक माने जाते हैं,इसलिए इन्हें वैधानिकता हासिल है। इनमें छेड़छाड़ नहीं करने का आधार संविधान का अनुच्छेद-25 बना है। इसमें सभी नागरिकों को अपने धर्म के पालन की छूट दी गई है।
इसी आधार पर हिंदू महिला के साथ तलाक की स्थिति में खासतौर से पुत्र के सरंक्षण के अधिकार के संबंध में भेद बरता जाता है। क्योंकि हिंदु परंपरा के अनुसार पुत्र कुलदीपक है और पितृसत्तात्मक परिवार में वंष बढ़ाने की जिम्मेबारी उसी पर है।
मोक्ष का द्वार भी उसी के द्वारा मुखाग्नि देने और पिडंदान करने से खुलता है। नतीजतन,पिता पुत्र पर अधिकार जमाता है। इसी तरह मुस्लिम पर्सनल लॉ में पत्नी के साथ भेद बरतते हुए तलाक की सुविधा सरल बना दी गई है।
ईसाई समाज में युवक-युवती ने यदि चर्च में शादी की है,तो उनको चर्च में आपसी सहमति से संबंध-विच्छेद का अधिकार है। किंतु यही सुविधा ‘हिंदु विवाह अधिनियम‘में नहीं है। यदि हिंदु युगल मंदिर में स्वयंवर रचाते हैं और कालांतर में उनमें तालमेल नहीं बैठता है तो वे चर्च की तरह मंदिर में जाकर आपसी सहमति से तलाक नहीं ले सकते हैं।
उन्हें परिवार न्यायालय में कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही तलाक मिलता है। जबकि यदि हम परंपरा को कायम रखना चाहते हैं तो मंदिरों को तलाक का अधिकार भी देना चाहिए। हिंदुओं में खाप पंचायतें एक गौत्र में शादी करने की प्रबल विरोधी हैं। कई जनजातियां अपनी लोक मन्यताओं के अनुसार गांव और जाति से बाहर विवाह को वर्जित मानती हैं।
मध्यप्रदेश की कुछ जातियों में ‘धरीचा‘ नाम की एक ऐसी मान्यता है,जिसके अनुसार विवाहित स्त्री शपथ-पत्र में यह स्वीकार ले कि ‘मेरा वर्तमान पति से तालमेल ठीक से बैठे नहीं रहा है, इसलिए मैं फलां व्यक्ति के साथ शादी कर रही हूं।‘
हालांकि ये मान्यताएं हिंदू विवाह संहिता का हिस्सा नहीं हैं,लेकिन क्षेत्रीय मान्यताओं के आधार पर प्रचलन में खूब हैं। अदालतें भी इन्हें मानती हैं। समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार किए जाने की शुरूआत में ऐसी असमानताओं को दूर किए जाने की पहल हो तो कुछ स्तरों पर विभिंन धर्म व जाति समुदायों से विचार-विमर्श के बाद सहमति बन सकती है।
हालांकि जैसे-जैसे धर्म समुदाय शिक्षित होते जा रहे हैं,वैसे-वैसे निजी कानून और मान्यताएं निष्प्रभावी होती जा रही हैं। पढ़े-लिखे मुस्लिम अब शरिया कानून के अनुसार न तो चार-चार शादियां करते हैं और न ही तीन बार तलाक बोलकर पति-पत्नि में संबंध विच्छेद हो रहे हैं।
हिंदू समाज का जो पिछड़ा तबका शिक्षित होकर मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसने भी लोक में व्याप्त मान्यताओं से छुटकारा पा लिया है। कुछ मामलों में उच्च और उच्च्तम न्यायालओं ने भी ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं,जिनके चलते हरेक धर्मावलंबी के लिए व्यक्तिगत रूप से संविधान-सम्मत धर्मनिरपेक्ष कानूनी व्यवस्था के अनुरूप कदमताल मिलाने के अवसर खुलते जा रहे हैं।
बहरहाल समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक राय-मशविरे की जरूरत तो है ही,यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली लोक-परंपराओं और मान्यताओं में समानताएं तलाशते हुए,उन्हें भी विधि-सम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है। ऐसी तरलता बरती जाती है तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन कानूनी विसंगतियों और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है, वे दूर हो जाएं।
: प्रमोद भार्गव