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Muslim migrant and refugees become global crisis
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वैश्विक संकट बनते मुस्लिम शरणार्थी

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वैश्विक संकट बनते मुस्लिम शरणार्थी
Muslim migrant and refugees become global crisis
Muslim migrant and refugees become global crisis
Muslim migrant and refugees become global crisis

सीरिया, ईराक और लीबिया में चल रहे गृह युद्ध से पलायन करने वाले मुस्लिमों को शरण देने में सबसे ज्यादा उदारता जर्मनी ने दिखाई थी, अब उसी जर्मनी में यही शरणार्थी भेष बदलकर आतंकी हमले कर रहे हैं।

जर्मनी के आंसबाख शहर में रविवार 24 मई 2016 को जो आत्मघाती हमला हुआ, उसका हमलावर मुस्लिम शरणार्थी निकला। इसके ठीक पहले इसी देश के म्यूनिख शहर के शॉपिंग सेंटर में हुई गोलाबारी का हमलावर ईरानी मूल का मुस्लिम था।

जर्मनी के ही बवेरिया में जिस अफगानी नागरिक ने कुल्हाड़ी से लोगों पर हमला किया था, वह भी मुस्लिम था। इसी दौरान जर्मनी के ही रुटलिनजेन शहर में एक गर्भवती महिला की हत्या 21 वर्षीय सीरियाई शरणार्थी ने कर दी थी।

एक सप्ताह में हुए इन चार हमलों के हमलावर मुस्लिम शरणार्थी थे। इस कारण जर्मनी में शरणार्थी कानून और उन्हें शरण देने की नीति पर सवाल उठने लगे हैं। तय है ये हालात पूरी दुनिया में प्रवासियों और शरणार्थियों के लिए गंभीर संकट पैदा करने वाले हैं।

पिछले साल तुर्की में समुद्र के किनारे सीरिया के तीन वर्षीय मासूम बालक आयलन कुर्दी का शव औंधे मुंह पड़ा मिला था। इस बच्चे की तस्वीर जब समाचार-पत्रों में छपी और चैनलों पर दिखाई गई, तब दुनिया के संकटग्रस्त मानव समुदायों के प्रति मानवता बरतने वाले रहमदिल इंसान पसीज हो उठे थे।

इसी तस्वीर के बाद सीरिया का संकट वैश्विक फलक पर उभरकर सामने आया। तब खासकर यूरोपीय देशों ने इंसानियत दिखाई और लाचार शरणार्थियों को खुले मन से शरण दी। जर्मनी के आम नागरिकों ने तो शरणार्थियों के लिए सरकारी मदद के अलावा अपने घरों के दरवाजे तक खोल दिए थे।

इस रहमदिली के कारण देखते-देखते जर्मन में 10 लाख से भी ज्यादा शरणार्थियों को शरण मिल गई। हालांकि जर्मनी में बड़ी संख्या में सीरियाई ईरानी 1980 के दशक से ही शरणाथी के रूप में रहने लग गए थे। जर्मनी के बाद शरणार्थियों को सबसे ज्यादा मदद ब्रिटेन, फ्रांस और आस्ट्रिया ने की है।

किंतु अब फ्रांस और जर्मनी में शरणार्थी इस्लामिक आतंकवाद का हिस्सा बनकर इन देशों के लिए संकट का सबब बन रहे हैं, उस कारण इन देशों समेत पूरा यूरोप शरणार्थियों को बाहर का रास्ता दिखाने को मजबूर हो रहे हैं। मालूम हो ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रमुख वजह वैश्विक आतंकवाद और प्रवासी व शरणार्थी ही बने थे।

जर्मनी में शरणार्थी आतंक की भूमिका में तो पिछले हते आए हैं, लेकिन इसका रूढ़िवादी धार्मिक कट्टरता से जुड़ा रुख बहुत पहले से दिखाई दे रहा है। इसी वर्ष, नए साल के जश्न के मौके पर इनकी कट्टरता और विद्रोही तेवर 31 दिसंबर 2016 की रात जर्मनी में देखने को मिले थे।

यहां के म्यूनिख शहर में जब जर्मन मूल के लोग अपनी परंपरा के अनुसार उत्सव मना रहे थे, तब शरणार्थियों की भीड़ धार्मिक नारे लगाते हुए आई और जश्न के रंग को भंग कर दिया। शरणार्थी बोले, इस्लाम में अश्लील नाच-गानों पर बंदिश है, इसलिए इसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।

इस्लाम के बहाने इस विरोध के स्वरूप ने कोलेन शहर में तो हिंसक रूप धारण कर लिया था। यहां एक चर्च के सामने जश्न मना रहे उत्सवियों पर हमला बोला गया। महिलाओं के कपड़े तार-तार कर दिए। कई महिलाओं के साथ दुष्‍कर्म भी हुए। हैरानी इस बात पर भी है कि इनमें अनेक महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने उदारता बरतते हुए शरणार्थियों को अपने घरों में पनाह दी थी।

इस घटना के बाद से शरणार्थियों को शक की निगाह से देखा जाने लगा। इनकी बेदखली शुरू हो गई। एक जर्मन युवती जब शरणार्थियों के शिविर के पास से गुजरी तो उसे 20 जनवरी 2016 को सामूहिक हवस का श्किार बना लिया गया। इस युवती ने इस दुष्‍कर्म की कहानी एक टीवी समाचार चैनल पर बयान कर दी। इससे जर्मन जनता शरणर्थियों के खिलाफ खड़ी हो गई।

बावजूद जर्मन सरकार को चेतना तब आई जब मिश्र की अल अजहर विश्वविद्यालय की एक महीला प्राध्यापक ने बयान दिया कि ‘इस्लाम में मुस्लिम पुरूषों को गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार की इजाजत है। इस बयान के बाद जर्मन ही नहीं ब्रिटेन भी चौकन्ना हो गया।

नतीजतन जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्वेâल को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहना पड़ा था, ‘उन्हें अब शरणार्थियों की नीति पर पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है।’ लेकिन अब शरणार्थियों के भेष में आतंकी हमलों ने जर्मनी में खौफ का माहौल पैदा कर दिया है। मर्केल की ‘खुले द्वार’ की नीति सवालों के घेरे में आ गई है। हवन करते हाथ जलने की कहावत चरितार्थ होने पर अब वहां नए शरणार्थियों के आने पर अंकुश लगा दिया है।

दरअसल इस हिंसा से परेशान होकर जर्मनी के दक्षिणपंथी नेता तातजाना पेकस्टरलिंग ने बेहद तार्क‍िक सवाल उठाया था, जब लाचार और भुखमरी की हालत में मुस्लिम शरणार्थी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अनादर कर रहे हैं, तो जब ये यहां बाईदेव बहुसंख्यक व शक्ति संपन्न हो गए तो ईसाइयों को ही यूरोप से बेदखल करने लग जाएंगे।

इन्हीं हालातों के चलते अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के रााट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप ने कट्टर इस्लाम के विरुद्ध जो रवैया अपनाया हुआ है, उससे अमेरिका में मुस्लिम विरोधी लहर मजबूत हो रही है। फ्रांस के 46 फीसदी लोगों का मानना है कि शरणार्थियों की वजह से आतंकवाद फैेल रहा है।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने मुस्लिमों की आबादी ब्रिटेन में न बढ़े, इस दृष्‍ट‍ि से नीतिगत उपाय शुरू कर दिए हैं। डेविड ने जनवरी 2016 से में शर्त लगाई हुई है कि ब्रिटेन में दूसरे देशों से जो भी नागरिक आते हैं, उन्हें अंग्रेजी भाषा सीखना जरूरी है। यह शर्त उनके लिए है, जो ब्रिटेन में अस्थाई रूप में या तो व्यापार करने आते हैं या फिर नौकरी करने के लिए अपनी बीबीयों को साथ लाते हैं। इनमें से ज्यादातर औरतों को अंग्रेजी नहीं आती है।

ब्रिटेन इन लोगों को पांच साल का वीजा देता है। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इन महिलाओं को ढाई साल के भीतर अंग्रेजी सीख लेने की सहूलियत दी है। इस दौरान ये अंगेजी नहीं सीख पाती हैं, तो इन्हें देश से निकाल दिया जाएगा। ब्रिटेन में दो लाख ऐसी मुस्लिम महिलाएं हैं, जिन्हें कतई अंग्रेजी नहीं आती है।

डेविड ने इसी समय मुस्लिमों के धार्मिक कानूनों पर एतराज जताते हुए, उन्हें अप्रासंगिक हो चुके मध्ययुगीन धार्मिक कानून ढोने की संज्ञा दी थी। साफ है, डेविड कैमरन जैसा एक उदार व सुलझा हुआ व्यक्ति इस तरह के अल्फाज बोल रहा है तो कुछ आशंकाएं ऐसी जरूर हैं, जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष बहुलतावादी लोकतांत्रिक देश पर कालांतर में भारी पड़ सकती हैं?

इन हालातों के निर्माण के बाद से ही यूरोप में शारणार्थियों को वापस भेजने का आंदोलन व गतिविधियां तेज हो रही हैं। स्वीडन, नीदरलैंड और ग्रीस ने इसी साल के अंत तक शरणार्थियों को अपने देश से वापस भेजने का वादा जनता से किया है।

दरअसल कई देशों में न केवल शरणार्थी समस्या विकराल रूप ले रही है, बल्कि देशों के बहुलतावादी स्वरूप को भी खतरा साबित हो रही है। ज्यादातर यूरोपीय देशों में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष विविधता व नागरिक स्वतंत्रता है। इसीलिए यूरोप को आधुनिक लोकतंत्र का प्रणेता माना जाता है।

किंतु इस्लामिक आतंकवाद के विस्तार के साथ इन देशों के जनमानस में खुलापन कुंद हुआ और सोच में संकीर्णता बढ़ने लगी। मुस्लिम और मुस्लिम देशों के साथ सोच और धार्मिक कट्टरता का विरोधाभासी संकट यह है कि जहां-जहां ये अल्पसंख्यक होते हैं, वहां-वहां धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की वकालात करते हैं, परंतु जहां -जहां बहुसंख्यक होते हैं, वहां इनके लिए धार्मिक कट्टरता और शरीयत कानून अहम् हो जाते हैं। अन्य धार्मिक अल्पसंख्कों के लिए इनमें कोई सम्मान नहीं रह जाता।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक मुस्लिमों की इसी क्रूर मानसिकता का दंश झेलते हैं। भारत के ही कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के चलते अल्पसंख्यक हिंदू, सिख और बौद्ध घाटी से ढाई दशक पहले ही निकाल दिए हैं।

चार लाख से भी ज्यादा विस्थापितों का अपने ही मूल निवास स्थलों में पुनर्वास इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि धार्मिक दुर्बलता के चलते घाटी के ज्यादतर लोग अलगाववादियों के समर्थन में हैं। इस दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ कि देश की बड़ी मुस्लिम आबादी ने विस्थापितों के पुनर्वास के लिए आंदोलन कोई किया हो।

जबकि भारत में मुस्लिमों की आबादी करीब 17 करोड़ है। इसी मानसिकता की वजह है कि दुनिया का एक भी मुस्लिम देश धर्मनिरपेक्ष देश नहीं है। साफ है, इस्लामिक आतंकवाद जिस तेजी से दुनिया में फैल रहा है, उसी अनुपात में प्रवासियों और शरणार्थियों के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं।

: प्रमोद भार्गव