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Narendra Modi-led government's ambitious namami gange project
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कुछ कम नहीं हैं नमामि गंगे की रुकावटें

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कुछ कम नहीं हैं नमामि गंगे की रुकावटें
Narendra Modi-led government's ambitious namami gange project
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Narendra Modi-led government’s ambitious namami gange project

मोदी सरकार ने अपने बहुप्रतिक्षित नमामि गंगे के पहले चरण का जयघोष कर दिया है। यह जिस अंदाज में देश के सात राज्यों में 104 स्थानों पर एक साथ 231 परियोजनाओं के शुभारंभ से जो शुरू हुआ है, जमीन पर उनका समय पर पूरा होना तथा इससे गंगा को उसके शुद्ध रूप में ला पाना कोई आसान काम नहीं होगा।

क्योंकि अब भी बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनका समावेश किए बगैर गंगा का अपने पुराने रूप में लौटना नामुमकिन है। हां, यह ठीक है कि मोदी सरकार ने नमामि गंगे के पहले चरण का आरंभ कर देश की आम जनता को यह बता दिया हो कि वे मां गंगा की सफाई की लिए प्रतिबद्ध हैं।

किंतु कहना होगा कि अभी उन तमाम बातों पर गंभीरता से ध्यान दिया जाना जरूरी है, जिन पर पिछली सरकारों ने गंगा की सफाई का उपक्रम एक-दो बार नहीं, अनेक बार करने का प्रयत्न किया, लेकिन उन्होंने इन बातों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया था। यही कारण रहा कि इस दिशा में अब तक जितने भी प्रयास हुए, वे वांछित परिणाम देने में असफल ही सिद्ध हुए हैं।

वास्तव में गंगा सिर्फ देश की प्राकृतिक संपदा नहीं है और न ही यह अपनी सहायक नदियों के साथ 2071 किलोमीटर तक भारत में और फिर बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को उपजाऊ मैदान बना देने वाली सिर्फ एक नदीभर है।

वस्तुत: यह जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार है। भारत वर्ष के प्राचीनतम् धर्म ग्रंथ से लेकर अधुनातन सहित्य क्यों न हो, सभी में गंगा को पुण्यसलिला, पापनाशिनी, मोक्षप्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा और महानदी कहा गया है। अर्थात, भू-मण्डल में ऐसी एक नदी के रूप में गंगा की पहचान है जो जीवनदायनी होने के साथ-साथ मोक्षदायिनी भी है।

गंगा ही दुनिया की एकमेव ऐसी नदी है जिसके बारे में भारतीय पुराण और साहित्य उसके अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ उसे वंदित करते ही हैं, विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन कई-कई स्थानों पर मिलता है। इतना ही नहीं, गंगा को लेकर भावनात्मक लेखन का सतत् प्रवाह आज भी जारी है।

भारत ही नहीं यह विश्व की एक ऐसी नदी है, जिसमें पानी को शुद्ध रखने के वैक्टेरिया पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु होते हैं, जो अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते। वहीं मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियां भी इसमें वास करती हैं, उधर मीठे पानी वाले दुर्लभ डालफिन भी यहां हैं।

वस्तुत: गंगा की इस असीमित शुद्धीकरण क्षमता और सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसका प्रदूषण रोका नहीं जा सका है। जबकि गंगा सफाई का पहला अभियान वर्ष 1985 में शुरू हुआ था। तब से अब तक गंगा सफाई की तमाम कोशिशों पर लगभग 4 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, अकेले उत्तरप्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के निष्कर्ष को देखें तो पता चलता है कि गंगा किनारे रहने वाले लोगों में अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर अधिक होता है, क्योंकि अपशिष्ट से आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य भारी धातु सरीखे जहरीले तत्व गंगा जल में घुल-मिल जाते हैं।

इसी प्रकार के नकारात्मक आंकड़े औद्योगिक विष विज्ञान केंद्र के हैं। यहां के वैज्ञानिकों की रिपोर्ट बताती है कि गंगा के पानी में जहरीले जीन वाला ई-काइल बैक्टीरिया मिला है, जो मानव मल और जानवर मल को नदी में बहा देने की वजह से उत्पन्न होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऋषिकेश से पश्चिम बंगाल तक 23 जगहों से गंगा के पानी के नमूने लिए थे। लेकिन दुर्भाग्य से कहीं का भी गंगाजल पीने योग्य नहीं पाया गया।

रिपोर्ट के मुताबिक ऋषिकेश का भी पानी नहाने लायक था, जबकि हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते यह गंगाजल स्नान योग्य भी नहीं रहा। बनारस, कानपुर और इलाहाबाद का गंगाजल केवल जानवरों के पीने लायक बचा था। इन निष्कर्षों और अनुसंधानों से भी गंगा के वर्तमान हालातों को समझा जा सकता है।

दरअसल गंगा प्रदूषण में किनारे बसे शहरों, उनके निकट स्थित उद्योगों और हमारी अव्यावहारिक एवं अवैज्ञानिक आस्था की ही सबसे अधिक भूमिका रही है। मैली होती गंगा की चिंता के बीच भी इसमें कोई खास कमी नजर नहीं आयी। आज भी लगभग 3 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गंगा में फैका जा रहा है।

इसके बावजूद मोदी सरकार के नमामि गंगे से कुछ उम्मीद जगी है। पहली बार न सिर्फ पूरी गंगा, बल्कि समूचे बेसिन की सफाई की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं शुरू की गई हैं। इससे पहले कभी यह देखने को नहीं मिला कि गंगा को लेकर ऐसी सुनियोजित कोशिश की गई।

निश्चित ही इस शुरुआत से मोदी सरकार की गंभीरता झलकती है। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नमामि गंगे परियोजना की घोषणा की थी, जो अब धरातल पर उतर रही है। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत अब 112 परियोजनाएं उत्तरप्रदेश में, पश्चिम बंगाल में 20 और 26 बिहार में चलेंगी।

यह पहली बार है कि गंगा किनारे बसे पांच राज्यों में 104 स्थानों पर अधिक क्षमता वाले सीवेज प्लांट लगाये जायेंगे। गंगा ग्राम योजना में नदी से लगे 400 गांवों को वेस्ट मैनेजमेंट में शामिल किया गया है। 13 आईआईटी ने गंगा विकास के लिए 5 गांवों को गोद लिया है।

कहने का अर्थ यह कि पहली बार संबंधित राज्य सरकारों और अन्य संस्थाओं को भी साथ लेकर गंगा शुद्धीकरण का यह पुनीत अभियान छेड़ा गया है। इस परियोजना में गंगा किनारे बने घाटों और श्मशान घाटों के निर्माण और मरम्मत की भी योजना है।

निश्चय ही ये सुनियोजित व्यापक परियोजनाएं गंगा की सफाई की आस जगाती हैं, लेकिन इस सब के बीच फिर कहना होगा कि नमामी गंगे मिशन के संकट भी कुछ कम नहीं हैं। क्योंकि ज्यादातर अभी तक गंगा को प्रदूषित करने का सबसे अधिक काम इसके तट पर घने बसे औद्योगिक नगरों ने किया है।

केंद्र सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि जो उत्तराखंड में करीब 558 हाइड्रो इलेक्टिक पावर परियोजनाएं धरातल पर आने को प्रयासरत हैं, जो भागीरथी को 80 फीसदी और अलकनंदा को 65 फीसदी प्रभावित करेंगी इन्हें रोकने के लिए क्या वह राज्य सरकार को मना पाएगी?

कुछ साल पहले आई कैग की रिपोर्ट भी बताती है, यदि उत्तराखंड सरकार निर्माणाधीन 53 पावर प्लांटों को प्रश्रय देती रही तो देव प्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा के जल के संगम से जो गंगा बनती है, उसके लिए पानी उपलब्ध ही नहीं हो सकेगा। उत्तराखंड सरकार की पावर नीति व जल नीति पावर प्लांट लगाने वालों को इस बात की छूट देती है कि वे इस पानी का 90 फीसदी हिस्सा टरबाइन के लिए रोक सकते हैं।

जबकि विश्व भर में ऐसे काम के लिए 75 फीसदी हिस्सा रोकने का ही प्रावधान है। बहती गंगा को जलाशयों में कैद करने से होता क्या है, यह भी समझना जरूरी है, इससे पानी की गुणवत्ता में गिरावट आती है। ठहरे हुए पानी में ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। जलजीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चट्टानी घर्षण से तांबा, क्रोमियम और थोरियम के सूक्ष्म कण गंगा में घुल जाते हैं।

गंगा के प्राकृतिक बहाव के साथ छेड़-छाड़ करने का ही यह परिणाम है, जो उसका पानी लाभकारी तत्वों से वंचित होता जा रहा है। ऐसे में जब गंगा ही नहीं बचेगी तो केंद्र की इस नमामी योजना का भविष्य क्या होगा, स्वत: ही समझा जा सकता है। इसलिए केंद्र को चाहिए कि वह राज्य सरकारों का सहयोग लेकर सबसे पहले गंगा किनारे लगे उन तमाम उद्योगों को हटाए, जो इसमें प्रदूषण फैलाने का सबसे बड़ा कारण हैं।

जब तक इसके किनारे के सभी औद्योगिक कारखाने नहीं हटाए जाएंगे, केंद्र या राज्य सरकारें लाख प्रयत्न कर लें, गंगा का कभी शुद्धकिरण नहीं होगा। वहीं इसकी अविरल धारा की शुद्धता के लिए जरूरी है कि इसके प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए प्रयास हों।

गंगा किनारे बसे शहरों की गंदगी लगातार इसमें जा रही है इसे रोकने के लिए सरकार को जनजागरण अभियान, स्वयंसेवी संस्थाओं और जनता के सहयोग से चलाना चाहिए।

प्लास्टकि, कचरा या अन्य गंदगी को रोकने के लिए जब भगीरथी प्रयास, जन साधारण और खासकर गंगा किनारे बसे शहरों के निवासियों व उद्योगपतियों के द्वारा शुरू होंगे तभी सही मायनों में गंगा को साफ-स्वच्छ रख पाने की सफलता सुनिश्चित हो पाएगी, अन्यथा तो प्रधानमंत्री मोदी के नमामी गंगे प्रोजेक्ट का भी वही हस्र होगा जो कि इस दिशा में किए गए पिछले सभी सरकारी प्रयासों का होता आया है।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी से जुड़े हैं। )