देश के दक्षिण और पूर्वोत्तर क्षेत्र की हिंसा, राजनीतिक दुश्मनी से उपजी हत्याएं, भ्रष्टचार और अराजकता की खबरें राष्ट्रीय स्तर पर कम ही धमाल मचा पाती हैं, मीडिया में खबर भी नहीं बन पाती हैं, बुद्धिजीवी भी खामोशी तोड़ नहीं पाते हैं, देश की संसद में भी इस पर चर्चाएं नहीं के बराबर होती हैं, मानवाधिकार संगठन भी उस पर नजर रखने और उस पर विश्वव्यापी ध्यान आकृष्ट कराने की प्रक्रियाओं को धार नहीं दे पाते हैं? आखिर क्यों?
अभी-अभी केरल के क्राइम रिकार्डस व्यूरों का खुलासा काफी चिंता जताने वाला है। केरल क्राइम रिकार्ड व्यूरों का खुलासा है कि पिछले एक दशक के दौरान 100 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं जो राजनीतिक विचार से प्रेरित थी, इतना ही नहीं बल्कि ऐसी सभी हत्याएं सोची-समझी साजिश के परिणाम थे।
पिछले एक दशक में केरल के अंदर में करीब 500 से अधिक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता मार्क्सवादी गुडों और मुस्लिम आतातायियों के हाथों मारे गए हैं। एक पर एक ही ऐसी क्रूरतम हत्याएं हुई हैं जिसे जान कर-सुन कर रोंगटे खड़ी कर देंगी।
केरल एक ऐसा राज्य है जो लंबे समय तक कम्युनिस्ट हिंसक विचार के केन्द्र में रहा है और जहां पर मार्क्सवादी शासन व्यवस्था ने मार्क्सवादी गुंडागर्दी को एक राजनीतिक धार देते हुए संरक्षण दिया था। कुछ साल पूर्व केरल के मार्क्सवादी नेता ने यह बयान देकर खनसनी फैला दी थी कि उनकी पार्टी विरोधियों की हत्या करती-कराती आई है और विरोधियों के नाश के लिए सभी प्रकार की हिंसक-अहिंसक हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं।
मार्क्सवादी नेता के उस बयान व स्वीकृति के बाद भी वामपंथी जमात के खिलाफ देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता जैसा कोई राजनीति, सामाजिक, साहित्यिक, एनजीओगत अभियान नहीं चला। अगर ऐसी हत्याओं किसी और विचारधारा की सलिप्तता में होती तो सहिष्णुता-असहिष्णुता से बड़ा आंदोलन खड़ा होता और इसकी गूंद देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक होती।
केरल में अभी कांग्रेसी सत्ता है। पर लंबे समय तक केरल में मार्क्सवादी सरकार रही है। सत्ता की आड़ में मार्क्सवादी किस प्रकार की हिंसक खेल खेलते हैं और किस प्रकार से विरोधियों को जर्मीदोज करते हैं उसका उदाहरण देश ने पश्चिम बंगाल में देखा था। अपनी सत्ता कायम करने के लिए हत्या, बलात्कार, चोरी-डकैती, अपहरण जैसी घटनाओं को अंजाम देने से भी पीछे नहीं रहते हैं।
ममता बनर्जी का प्रंचड प्रताप और अदम्य साहस ने पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी गुंडागर्दी युक्त शासन को उखाड फेका था। केरल में भी मार्क्सवादी जमात कांग्रेस से हारती रही है पर मार्क्सवादी गुडागर्दी जस की तस बनी रहती है।
प्रसिद्ध मलयालम लेखक पाल जकरिया का कहना है कि केरल के अधिकतर क्षेत्रों में मार्क्सवादियों का नियंत्रण रहा है, गांवों में इनकी इजाजत के बिना पता तक नहीं हिलता था, इनकी मर्जी ही कानून होता था, इतना ही नहीं बल्कि शादी समारोह में दूसरी विचार धारा वालों को निमंत्रण देने को भी विद्रोह माना जाता था, इसकी सजा मार्क्सवादी हिंसा से देते रहे हैं।
पाल जकरिया का कहना है कि जब आरएसएस ने मार्क्सवादी नियंत्रण और वर्चस्व वाले क्षेत्रों में चुनौती दी और अपनी शाखाएं शुरू की तब ऐसी मार्क्सवादी हिंसाएं सामने आएगी ही, इससे इनकार कैसे किया जा सकता है। यह सही है कि मार्क्सवादी हिंसा के खिलाफ सिर्फ आरएसएस के स्वयं सेवक ही डट कर मुकाबला कर रहे हैं और बलिदान भी हो रहे हैं।
अभी तक केरल में भाजपा ने अपनी कोई वर्चस्व वाली शक्ति हासिल नहीं की है और न ही विधान सभा में अपनी उपस्थिति तक दर्ज करा सकी है। फिर भी संघ और भाजपा वहां पर एक शक्ति तो जरूर है। पिछले विधान सभा चुनाव में मार्क्सवादियों की कांग्रेस के हाथों से मिली पराजय के केन्द्र बिन्दु संघ ही है। संघ के प्रभाव से पिछले केरल विधान सभा चुनाव में भाजपा ने लगभग आठ प्रतिशत वोट हासिल की थी जिसके कारण ही मार्क्सवादियों की पराजय हुई थी।
जानना यह भी जरूरी है कि कांग्रेस के मुस्लिम और ईसाई गठजोड़ के खिलाफ हिन्दू समर्थक मतदाता पहले मार्क्सवादियों को ही वोट देते थे पर अब हिन्दू समर्थक मतदाता भाजपा और संघ की परिधि में हैं।
मार्क्सवादियों द्वारा हुई वीभत्स, क्रूरतम हत्याओं का कुछ विचरण यहां पर आप देख लीजिए, आपके रोगटे खड़े हो जाएंगे, इनकी हिंसक राजनीति सामने आ जाएंगी, इनके क्रूरतम चेहरे आपके सामने आ जाएंगे, इन्हें आप राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि राजनीतिज्ञ के खोल में छीपे भेड़िये मान लेंगे।
संघ के कार्यकर्ताओं की बात छोड़ दीजिए, बल्कि अपने पूर्व साथियों जो इनके विचारधारा से मोह भंग होने, इनकी क्रूरतम चेहरे, इनकी वीभत्स हत्याओं के खेल से आजित आकर इन्हें छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले जाते के खिलाफ भी उसी वीभत्स व हिंसा का खेल खेलते हैं। कभी बडे मार्क्सवादी रहे टीपी चन्द्रशेखरण की मार्क्सवादियों ने काट-काट कर हत्या कर दी थी।
टीपी चन्द्रशेखरण की कसूर सिर्फ इतनी ही था कि उन्होंने सीपीएम से नाता तोड़ कर स्वयं अपनी पाटी रेवेशन्यूयरी मार्क्सवादी पार्टी का गठन कर लिया था। टीपी चन्द्रशेखर ने अलग पार्टी बना कर सीपीएम की जड़ें हिला कर रख दी थी। टीपी चन्द्रशेखरण की पत्नी रमा केके चुनाव लड़ रही है और मार्क्सवादियों को चुनौती भी दे रही है।
टीपी चन्द्रशेखरण का बेटा अभिनन्त कहता है कि एक न एक दिन केरल से मार्क्सवादी हिंसा और मार्क्सवादी गुडागर्दी का जरूर नाश होगा। सुलोचना नामक महिला के सामने उसके 26 वर्षीय पुत्र सुजीत के पैर तोड डाले गए, उसके बाद उसके बाजुओं को तोड़ा गया, उसके बाद उसके सिर को कुचल कर उसकी हत्या कर दी गई। हत्या करने वाला गिरोह कोई और नहीं बल्कि मार्क्सवादियों की हिंसक गिरोह था।
सुजीत का इतना ही कसूर था कि वह सिर्फ संघ का स्वयं सेवक था और शाखा लगाता था। अभी-अभी केरल में दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या हुई है। बात-बात पर असहिष्णुता का खेल खेलने वाले कम्युनिस्ट जमात उस दलित लड़की के परिजनों से मिलने तक नहीं गए जबकि वह दलित लड़की मार्क्सवादी वर्चस्व वाले क्षेत्र की ही निवासी थी।
दलित लड़की के साथ बलात्कार और हत्या की जांच के लिए दिल्ली से गई एक महिलाओं की टीम की प्रधान सर्जना शर्मा कहती है निश्चित तौर दलित लड़की के साथ बलात्कार और हत्या के अपराधी बड़े अपराधिक गिरोह हैं जिन्हें मार्क्सवादियो से संरक्षण मिलता रहा है।
अब सवाल यहां मीडिया, मानवाधिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों की निष्पक्षता पर खड़ा होता है। जब पिछले एक दशक में 100 से अधिक साजिशपूर्ण राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, 500 से अधिक संघ के स्वयं सेवको ही हत्या हुई तब मीडिया, मानवाधिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों की चुप्पी उनकी निष्पक्षता को जमींदोज करती है।
वास्तव में अधिकतर बुद्धिजीवी, मानवाधिकार संगठनों के लोग मार्क्सवादी-माओवादी विचारधारा के लोग हैं जिनकी निष्पक्षता कोई आज नहीं बल्कि पहले से संदिग्ध के घेरे में रहती है। क्या संघ के स्वयं सेवकों का मानवाधिकार नहीं होता है, क्या संघ के स्वयं सेवक मनुष्य नहीं है।
जब देश के अंदर आतंकवादियों और विखंडनवादियों की कथित हत्या पर हंगामा मचता है,राष्ट्र की अस्मिता की कब्र खोदी जाती है, परसंप्रभुता के गीत गाए जाते हैं तब संघ के स्वयं सेवकों की हत्या पर संज्ञान क्यों नहीं?
राजनीति में विचारों की लड़ाई होनी चाहिए। लोकतंत्र विचारों की प्रगाढ़ता से आगे बढ़ना चाहिए। पर दुखद तो यह है कि वामपंथी जमात के प्रभुत्व वाले राज्यों में सत्ता प्राप्ति का माध्यम विचारों की प्रागढ़ता और गतिशीलता नहीं बल्कि राजनीतिक हिंसा के हतकडे से सत्ता प्राप्त करने का खेल जारी है।
केरल में इस तरह की हिंसा और कत्लेआम के खेल पर रोक लगनी चाहिए और माक्र्सवादियों की इस हिंसा पर खासकर बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार संगठनों को भी संज्ञान लेना चाहिए।
विष्णुगुप्त